गौतम चौधरी
शिक्षा हर राष्ट्र के समाज को आकार देने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वास्तव में, यह किसी भी समाज और देश के विकास का आधार है। द इंडियन एक्सप्रेस के एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि हिजाब विवाद के कारण कर्नाटक में मुस्लिम, विशेष रूप से मुस्लिम छात्रओं को सार्वजनिक संस्थानों को छोड़ना पड़ा और निजी कॉलेजों में दाखिला लेना पड़ा, जो ज्यादातर मुसलमानों के लिए अवहनीय है (जैसा कि सच्चर आयोग की रिपोर्ट सहित कई रिपोर्टों द्वारा उजागर किया गया है)। इस मामले में केवल अखबार की रिपोर्टिंग ही नहीं, कई व्याख्याकारों ने भी इसे शिक्षा के अधिकार बनाम धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार बनाने की कोशिश की है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार, कर्नाटक का उडुपी जिला (जो 2022 के हिजाब विरोध का केंद्र था) में सरकारी कॉलेजों से निजी प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेजों (पीयूसी) में मुस्लिम छात्रों का बड़े पैमाने पर प्रवास हुआ। सरकारी पीयूसी में मुस्लिम लड़कों का नामांकन 2022-23 (210 से 95 तक) में आधे से कम हो गया है, जबकि पीयूसी में मुस्लिम लड़कियों का नामांकन 91 प्रतिशत (178 से 91) कम हो गया है। ये आंकड़े खतरनाक हैं, क्योंकि बहस अब गुणवत्तापूर्ण सस्ती शिक्षा बनाम अवहनीय शिक्षा से बदलकर शिक्षा बनाम विश्वास हो गई है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस), 2014 के अनुसार, 18 से 24 वर्ष की आयु के बीच भारत में 16.6 प्रतिशत पुरुष स्नातक छात्र और 9.5 प्रतिशत महिला स्नातक छात्र उच्च शिक्षा का खर्च नहीं उठा सकते हैं। इसके अलावा, उच्च शिक्षा के अखिल भारतीय सर्वेक्षण (2019-20) ने संकेत दिया कि केवल 66.3 प्रतिशत छात्रों को निजी तौर पर संचालित 78.6 प्रतिशत कॉलेजों द्वारा सेवा दी जाती है। शिक्षा से न केवल व्यक्ति और समुदाय को बल्कि पूरे देश को लाभ होता है।
सच तो यह है कि मुस्लिम माता-पिता, अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए शैक्षणिक ऋण सहते हैं। भेदभाव की गलत अवधारणा पाल डर और चिंताओं के बीच अपने बच्चों को निजी शैक्षणिक संस्थाओं में दाखिला दिलवाने का कठोर निर्णय लेते हैं। यह गलत धारणा लंबे समय से बनी हुई है कि मुस्लिम परिवार औपचारिक शिक्षा में रुचि नहीं रखते हैं। हालांकि, सच्चर समिति की रिपोर्ट सहित कई अध्ययनों ने इस मिथक को दूर किया है और साबित किया है कि मुस्लिम छात्र और उनके माता-पिता ईमानदारी से अपने बच्चों को शीर्ष स्कूलों में दाखिला दिलाना चाहते हैं, लेकिन कई सामाजिक और आर्थिक दबावों के कारण विवश हो जाते हैं।
एक राष्ट्र की भलाई तभी संभव होता है जब महिलाओं का संसाधनों और विकासात्मक गतिविधियों में मजबूत हस्तक्षेप हो। यदि महिलाएं जीवन के सभी क्षेत्रों में किसी भी तूफान का सामना करने में सक्षम हो तो समझ लो वह राष्ट्र किसी भी मामले में सक्षम और सामर्थ वाला है। अल्पसंख्यक महिलाओं के सशक्तिकरण पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। अल्पसंख्यक समुदाय स्वयं महत्वपूर्ण है और अपने धार्मिक दायित्वों की परवाह किए बिना उन्हें अपनी शिक्षा को प्राथमिकता देने की अनुमति देकर अपने महिला अधिकारों का समर्थन कर सकता है क्योंकि शिक्षा एक विशेषाधिकार नहीं बल्कि एक मौलिक अधिकार है। सरकार के लिए यह बेहतर होगा कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत उलेमा हिंद आदि जैसे संगठनों को इस मामले में सहयोग के लिए प्रोत्साहित किया जाए। उन्हें इस बात के लिए प्रेड़ित किया जाए कि वे अपने समुदाय के लोगों के बीच विभिन्न संस्थानों द्वारा प्रदान की जाने वाली गुणवत्ता वाली सस्ती शिक्षा और शैक्षणिक संगठनों का प्रचार करें। यही नहीं अपने समुदाय के लिए वे कानूनी लड़ाई का समर्थन भी करें। शिक्षा को उन विवादों से बाधित नहीं होना चाहिए जो राजनीति से प्रेरित हैं और लाखों छात्रों के भविष्य को नुकसान पहुंचाता हो।
इस मामले में कर्नाटक की छात्रा, तबस्सुम शेख एक उदाहरण हैं। 18 वर्षीय तबस्सुम बेंगलुरु की एक महिला राष्ट्रीय विद्यालय की छात्रा है। पिछले वर्ष राज्य सरकार ने जब सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं में हिजाब लगाने पर प्रतिबंध लगा दी तो तबस्सुम ने धार्मिक मान्यताओं की जगह तालीम को प्राथमिकता दी। तबस्सुम पूरे कर्नाटक में सबसे अधिक अंक प्राप्त कर बोर्ड की टॉपर बन गयी है। इस मामले में तबस्सुम का कहना है, ‘‘तालीम और मान्यता के मामले में मैंने तालीम को चुना। एक सफल व्यक्ति को समाज आदर्श मानता है। मैंने तय किया कि पहले तालीम हासित कर अपने आप को सफल साबित करें फिर मान्यता के बारे में अपनी राय रूढ़ कर लेंगे।’’ अब तबस्सुम कई मायने में आदर्श है। वह एक ओर जहां मुस्लिम छात्राओं के लिए आदर्श बन गयी है, वहीं दूसरी ओर राजनीति से प्रेड़ित सरकारी निर्णय लेने वालों को भी आईना दिखा रही है।
भारतीय चिंतन में शिक्षा को मुक्ति का मार्ग बताया गया है। दक्षिण अमेरिका के प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री, पाउलो फ्रेरे ने अपनी पुस्तक ‘पैडागाॅगी आॅफ द आॅपरेस्ड’’ में कहा है, ‘‘शिक्षा मूलतः मुक्ति की प्रक्रिया है’’। तबस्सुम शेख ने भी वही किया जो उसका धर्म और ईमान उसे निर्देशित करता है। इस्लाम में यह प्रसिद्ध कथा प्रचलित है कि अगर ज्ञान प्राप्त करने के लिए चीन जाने पड़े तो जाना चाहिए। हिजाब को हटाकर तबस्सुम ने शिक्षा को महत्व दिया और आज वह संपूर्ण कर्नाटक की छात्राओं के लिए आदर्श बन गयी है। इस बात का प्रचार होना चाहिए। साथ ही शासन को भी यह सोचना चाहिए कि कोई भी निर्णय लेने से पहले उस निर्णय का समाज पर कोई नकारात्मक प्रभाव तो नहीं पड़ेगा।