गौतम चौधरी
अभी हाल ही में संपन्न संसदीय आम चुनाव का परिणाम आते ही प्रतिपक्ष, खास कर कांग्रेस नरेन्द्र मोदी पर हमलावर हो गयी। राहुल व प्रियंका सहित कई नेताओं ने नरेन्द्र मोदी को नैतिकता का पाठ पढ़ाया और यहां तक कह दिया कि उनको भारत की जनता ने नकार दिया है, इसलिए तुरंत प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ राजनीति से सन्यास ले लेना चाहिए। हालांकि नरेन्द्र मोदी की अगुआई वाली भाजपा इस बार भी उतनी सीट ले आयी, जितनी कांग्रेस को बीते तीन चुनाव जोड़ कर भी नहीं आयी है। इस बात का जिक्र खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण में किया है। बावजूद इसके 2024 के संसदीय आम चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन निःसंदेह बढ़िया रहा है।
इस बार कांग्रेस को 2019 की तुलना में दोगुना के करीब सीटें आयी है। यह कांग्रेस का सराहनीय प्रदर्शन है, जबकि भाजपा की सीटें घटी है और 2019 की तुलना में भाजपा को 63 सीटों का नुकसान हुआ है। यदि प्रतिशत में बात करें तो 2019 की तुलना में इस बार भाजपा को 6 प्रतिशत वोट कम मिले हैं। सबसे ज्यादा नुकसान उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र का है। इसके पीछे के कई कारण हो सकते हैं लेकिन इस हार को लेकर विदेशी ताकतों को भी जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। पहले जब चुनाव को प्रभावित करने को लेकर विदेशी शक्तियों के हस्तक्षेप के आरोप लगते थे तो निशाने पर सत्ता पक्ष होता था। उदाहरण के तौर पर, वर्ष 2014 और 2019 के संसदीय आम चुनाव में प्रतिपक्षी कई पार्टियों ने भाजपा के ऊपर संयुक्त राज्य अमेरिका से सहयोग प्राप्त कर चुनाव जीतने का आरोप लगाया। इससे पहले 2009 में खुद कांग्रेस को बाहर से समर्थन देने वाली साम्यवादी पार्टियों ने चुनाव में बाहरी शक्तियों से सहयोग प्राप्त कर चुनाव जीतने का आरोप लगाया था। 2009 में संसदीय चुनाव हुआ तो डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस 2004 की तुलना में और ज्यादा मजबूती से वापस आयी। इससे पहले भी सोवियत रूस के समर्थन से चुनाव जीतने का आरोप श्रीमती इंदिरा गांधी पर लगा था लेकिन इस बार के चुनाव में प्रतिपक्षी पार्टियों पर उंगली उठ रही है। खास कर संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया पर भारतीय चुनाव को प्रभावित करने का आरोप लग रहा है।
इस बार के चुनाव को लेकर अमेरिका स्थित एक थिंकटैंक ने अपने बयान में कहा था कि 2024 के संसदीय आम चुनाव को चीन की खुफिया एजेंशी प्रभावित करने की कोशिश कर रही है। उसी समय भारतीय एजेंसियों के कान खड़े हो गए और देशी एजेंसियां चौकन्नी हो गयी थी। ऐन चुनाव प्रक्रिया के दौरान कनाडा के राष्ट्रपति जस्टिन टूडो का खालिस्तान के समर्थन में न केवल बयान आया, अपितु उन्होंने खुले तौर पर खलिस्तानियों के कार्यक्रम में जाकर भौतिक रूप से उन्हें समर्थन दिया। पाकिस्तान के बाद कनाडा दूसरा ऐसा देश है जो खुलेआम भारत की अखंडता पर चोट करने वाले आतंकवादी संगठन का समर्थन कर रहा है। बात यहीं खत्म नहीं हुई। ठीक चुनाव के दौरान ही अमेरिका के राष्ट्रपति जो बिडेन ने भारत के खिलाफ बयान जारी किया और कहा कि भारत में अल्पसंख्यकों के हितों पर चोट पहुंचाया जा रहा है और वहां के अल्पसंख्यक अपने आप को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं। अमेरिका के एक थिंक टैंक ने मणिपुर में हो रही घटनाओं पर नकारात्मक टिप्पणी की। इन तमाम घटनाओं और बयानों को चुनाव प्रभावित करने और भाजपा के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। 4 जून को मत गिनती के दौरान जब भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन कमजोर प्रदर्शन कर रहे थे तो एक बार फिर कनाडा के राष्ट्रपति ने कहा, भारत में नरेंद्र मोदी की जीत लोकतंत्र के लिए खतरा है।
यूएस लॉबी के ये तमाम बयान और गतिविधियां यह साबित करने के लिए काफी है कि उनकी नजरों में नरेंद्र मोदी और भारत का समावेशी राष्ट्रवादी उभार खटक रहा है। इसलिए उन्होंने मोदी की नकारात्मक छवि गढ़ने की कोशिश की। लेकिन इतना होने के बाद भी मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री की शपथ ले रहे हैं।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर अमेरिकी लॉबी को मोदी क्यों खटक रहे हैं? इस सवाल का जवाब सरल है। मसलन, मोदी ने ब्रिक्स को मजबूत करने में रूस, चीन, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील का साथ दिया है। शंघाई सहयोग संगठन के वैश्विक विस्तार में सहयोग किया है। डॉलर की दादागिरी पर लगाम लगाने में सऊदी अरब, चीन, रूस, ब्राजील, ईरान, यूनाइटेड अरब अमीरात, कतर, दक्षिण एशिया, दक्षिण अफ्रीका आदि देश का सहयोग किया है। रूस-यूक्रेन संघर्ष में तटस्थ भूमिका निभाई। फिलिस्तीन-इजरायल संघर्ष में पारंपरिक विदेश नीति के तहत फिलिस्तीन का साथ दिया। कोरोना महामारी के दौरान सन फार्मा जैसी अमेरिकी कंपनी को देश में घुसने नहीं दिया और अपना वैक्सीन बना कर न केवल देश को सुरक्षित किया अपितु दुनिया के कई देशों को सस्ते में कोरोना वैक्सीन उपलब्ध कराया। इलेक्ट्रिक कार बनाने वाली टेस्ला कंपनी को अपनी शर्त मानने को विवश किया। ये ऐसे तमाम कारक हैं, जिसके कारण पश्चिम की नजरों में मोदी खटकने लगे हैं। यही कारण है कि विपक्षी गठबंधन को जमीन तैयार करने में अमेरिकी की भूमिका संदिग्ध दिख रही है। इस काम में अमेरिकी कंपनियों के स्वामित्व वाली सोशल मीडिया ने भारत में व्यापार खेल खेला। चूंकि पारंपरिक समाचार माध्यम देशी पूंजी के प्रभाव में हैं इसलिए गैर पारंपरिक मीडिया को सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने में सहयोग दिया गया। यह देखने में सामान्य-सा दिखता है लेकिन इसके पीछे बड़ा तंत्र काम कर रहा है।
ऐसा इसलिए किया गया कि मोदी चुनाव हार जाएं और यदि चुनाव नहीं हारें तो कम से कम उनकी सरकार कमजोर हो और उन्हें निर्णय लेने में कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़े। इस काम में इस बार भाजपा के कुछ समान विचारधारा वाले संगठनों ने भी जाने अंजाने विदेशी शक्तियों को सहयोग किया है। हालांकि भाजपा का चुनाव में बुरा प्रदर्शन के लिए और कई कारक जिम्मेदार है, उसमें भाजपा की वह नीतियां भी शामिल है, जिसका बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है लेकिन उन नीतियों को हवा देना और उसके खिलाफ आम लोगों से लेकर खास तक को गोलबंद करने में विदेशी ताकत खास कर अमेरिकी लॉबी की बड़ी भूमिका साफ नजर आ रही है।