गौतम चौधरी
टीबी, जिसका पूरा नाम ट्यूबरकुलोसिस है, भारत में इसे यक्ष्म रोग के नाम से भी जाना जाता है। यह रोग दुनिया की घातक बीमारियों में से एक है। हालांकि अब यह रोग लाइलाज नहीं रहा, फिर भी इसके कारण लाखों लोग अपनी जान गवां रहे हैं। इतिहास की दृष्टि से देखें तो यह बेहद पुरानी बीमारी है। इस रोग के जीवाणु का प्रमाण आज से 9 हजार साल पहले भूमध्यसागरीय द्वीप में मिलता है। भारत में इसका लिखित प्रमाण 32 सौ वर्ष पुराना है, जबकि चीन में 23 सौ वर्ष पहले से यह रोग अस्तित्व में है। जानकार बताते हैं कि शरीर में एक अंग, आंख को छोड़ कर यह रोग किसी भी हिस्से में हो सकता है। विशेषज्ञों की राय में टीबी की बीमारी महिलाओं के जननांगों में नहीं होता है लेकिन इधर के शोध से पता चला है कि जननांग का एक भाग ऐसा है जहां इस बीमारी के लक्षण देखे गए हैं। वैसे यह रोग फेफरे में अधिक होता है लेकिन शरीर के अन्य भागों में भी यह रोग लगता है और उसके उपचार में चिकित्सकों को बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती है।
इस बीमारी को लेकर दुनिया भर में कई प्रकार की भ्रांतियां हैं। यहां तक कि इसी प्रकार की कुछ भ्रांतियां इंग्लैंड के राजपरिवार तक को प्रभावित कर चुका है। इंग्लैंड के राजपरिवार में यह मान्यता विकसित हो गयी थी कि गर्दन के उभार को यदि हटा दिया जाए, या उसे किसी प्रकार अंदर कर दिया जाए तो इस बीमारी से छुटकारा पाया जा सकता है। इसलिए जब कभी भी राज परिवार में इस बीमारी के लक्षण दिखते थे तो एक खास प्रकार के तेल से गले के अग्र भाग की मारिश की जाती थी। भारत में भी यक्ष्म रोगियों को भेड़-बकड़ियों के बारे में बांध दिया जाता था। ऐसी धारणा थी कि भेड़-बकड़ियों के साथ रहने पर इस बीमारी से छुटकारा मिल जाता है साथ ही यह बीमारी परिवार के अन्य लोगों को नहीं लगेगी। वैसे भारत के आयुर्वेदिक चिकित्सकों ने इस रोग का इलाज ढुंढ लिया था लेकिन वह इतना महंगा होता था कि आम लोग की पहुंच वहां तक नहीं हो पाती थी। इसलिए संस्कृत में इसे राज क्षय रोग के नाम से भी जाना जाता है।
आधुनिक काल में टीबी को लेकर सक्रियता और समझ 19वीं शताब्दी में विकसित हुई। टीबी पर शोध और दवा विकसित करने में संयुक्त राज्य के वैज्ञानिकों की बड़ी भूमिका है। किसी भी बीमारी के उपचार के लिए कई प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। सबसे पहले बीमारी की पहचान जरूरी होती है। जबतक यह पता नहीं चलेगा कि बीमारी के लिए जीवाणु या विषाणु में से कौन जिम्मेबार है, तबतक बीमारी के इलाज की दिशा संदिग्ध रहती है। इसलिए टीवी के जीवाणु की पहचान के लिए वैज्ञानिकों को कठिन परिश्रम करना पड़ा है। जब बीमारी की पहचान हो जाती है तो उसके उपचार के लिए एक प्रक्रिया का सहारा लेना होता है। उस प्रक्रिया का ही एक भाग दवाई है। टीबी के उपचार के क्रम में आज से 100 साल पहले जिस प्रक्रिया को अपनाया गया था आज भी उसे सशक्त माना जाता है। टीबी की पहचान के लिए डाॅक्टर बलगम की जांच करते हैं। डाॅक्टरों की राय मानें तो सामान्य तौर पर, 20 दिन से अधिक समय से खांसी है और बलगम में खून आ रहा है, साथ ही शरीर का वनज भी घट रहा है तो ऐसी परिस्थिति में रोगी को टीबी की जांच करा लेनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि रोगी को टीबी हो ही लेकिन इस परिस्थिति में टीबी होने की बड़ी संभावना होती है। टीबी को लेकर न तो डरना चाहिए और न ही घबड़ाना चाहिए। टीबी कोई लाइलाज बीमारी नहीं है। इसे समय रहते इलाज कर दिया जाए तो ठीक होना तय है। हां, एड्स के रोगियों के लिए यह कठिन हो जाता है। इसमें टीबी के कारण रोगी की मौत निश्चित हो जाती है।
इस रोग को लेकर आज के आधुनिक समाज में भी कई प्रकार की भ्रांतियां हैं। इस रोग को लेकर एक जो सबसे बड़ी समस्या है वह जागरूकता का अभाव है। विशेषज्ञों की मानें तो अधिकतर मामलों में टीबी के रोगी आधे इलाज के बाद दवा खाना बंद कर देते हैं। ऐसी परिस्थिति में जब दूसरी दफा वे इस रोग की चपेट में आते हैं तो चिकित्सा थोड़ा कठिन हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि जीवाणु पर दवा का असर होना बंद हो जाता है। इस अवस्था में रोगी का रोग लाइलाज तो नहीं होता लेकिन तब रोगी को इलाज की कई प्रक्रिया से जुगरना होता है। चिकित्सकों की मानें तो जब कभी भी यह रोग हो तो दवा का पूरा डोज लेना चाहिए और डॉक्टरों द्वारा निर्देशित समय सीमा तक चिकित्सकीय अभिरक्षण में रहना चाहिए। इस रोग के इलाज में अमूमन एक वर्ष का समय लगता है। हालांकि छह महीने में ही रोग पर काबू पा लिया जाता है लेकिन चिकित्सक एक वर्ष तक दवा खाने की सलाह देते हैं। रोगियों को चिकित्सकों की राय मुकम्मल तौर पर माननी चाहिए। इसमें तनिक भी कोताही घातक साबित हो सकता है। हाल के दिनों, कुछ ऐसी दवा विकसित की गयी है जो चार महीने में भी रोग पर काबू पा लेती है, बावजूद इसके चिकित्सकों की राय में रोगी को एक वर्ष तक तो डॉक्टरों की निगरानी में रहनी ही चाहिए।
टीबी का सामाजिक और आर्थिक पहलू भी है। जानकारों की मानें तो इस रोग के जीवाणु हवा के माध्यम से फैलते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि किसी को इस प्रकार की बीमारी है, तो उसके संपर्क में आने से दूसरे को भी यह रोग हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े में बताया गया है कि भारत के लगभग 40 प्रतिशत आबादी में इस रोग के जीवाणु हैं। हालांकि इस मामले में कई प्रकार के द्वंद्व भी हैं। जीवाणु की सक्रियता के बारे में बताया जाता है कि यह तभी सक्रिय होता है जब शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता का अभाव हो जाता है। रोग प्रतिरोध क्षमता का अभाव तब होता है जब व्यक्ति कुपोषण का शिकार होता है। इसका सीधा मतलब आर्थिक स्थिति से है। जहां कुपोषण और आबादी घनी होती है वहां इस बीमारी की पहुंच ज्यादा लोगों तक हो जाती है। एड्स जैसे घातक बीमारी के साथ भी इसके संबंध बताए जाते हैं। एड्स के रोगी को टीबी की बीमारी जल्द पकड़ती है। ज्यादातक मामलों में ऐसा देखा गया है कि जिसे एड्स की बीमारी होती है वह तपैदिक रोग से ग्रस्त हो जाता है और उसकी मृत्यु का कारण भी यही रोग बनता है।
इसकी रोक-थाम के लिए पूरी दुनिया में अभियान चलाए जा रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का जोर इस बात पर है कि इस बीमारी को दुनिया से समाप्त किया जाए लेकिन यह कठिन जान पड़ता है। इस बीमारी के लिए गरीबी सबसे बड़ा कारण है और जबतक दुनिया में गरीबी रहेगी तबतक इस बीमारी से छुटकारा संभव नहीं है। भारत सरकार ने भी अपने स्तर पर इस बीमारी के खिलाफ अभियान चला रही है। भारत सरकार के द्वारा कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इसके कारण इस बीमारी पर बहुत हद तक नियंत्रण प्राप्त कर लिया गया है लेकिन कई प्रांत ऐसे हैं जहां यह बीमारी आज भी घातक बनी हुई है। इसमें से झारखंड, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्य शामिल हैं। इस बीमारी से बचने के लिए लोगों को जागरूक करना जरूरी है। कुपोषण की समस्या का हल इस बीमारी को फैलने से रोक सकता है। पहाड़ी और दुर्गम प्रदेशों में छोटे एवं गंदे घरों में इस बीमारी का फैलाव ज्यादा है। इसलिए इस दिशा में अगर ध्यान दिया जाए तो बीमारी को फैलने से रोका जा सकता है।