चन्द्र प्रभा सूद
तथाकथित धर्मगुरु जब स्वयंभू भगवान बन बैठते हैं तब सारी समस्याओं का जन्म होता है। उनके अनुयायियों को न तो निगलते बनता है और न ही उगलते बनता है। वे अनजाने ही समाज की नजरों में घृणा के पात्र बन जाते हैं। लोग उनका उपहास करते हैं, उनके मुँह पर छींटाकशी करने से नहीं चूकते। उनका जीना मुहाल हो जाता है। जो बहुत ही कट्टर भक्त होते हैं, वे अन्त तक अपने गुरु से अपना विश्वास नहीं डिगने देते।
ऐसे तथाकथित धर्मगुरु धर्म और गुरु के नाम पर कलंक होते हैं। ये धर्म का विनाश करने का अपराध करते हैं। यही दुष्ट लोग हैं जो गुरु की महान परम्परा को दागदार करने का कुकर्म करते हैं। यही लोग अपने तुच्छ स्वार्थों, वासनाओं और कामनाओं के वशीभूत होकर समाज का अहित करते हैं। अपने अन्धभक्तों के मुँह पर करारा तमाचा मारने का कार्य करते हुए उन्हें बिलबिलाता हुआ छोड़ देते हैं। उन्हें जरा भी दया नहीं आती भोले-भाले लोगों को बरगलाने में।
दुखों-परेशानियों से घिरे साधारण लोग इन तथाकथित धर्मगुरुओं की शरण में शान्ति की खोज में जाते हैं। वे इन ठग लोगों के पास कष्टों और दुखों से मुक्ति पाने की तलाश में ही जाते हैं। उनकी सोच होती है कि वे चमत्कार करके, चुटकी बजाते ही उनकी समस्याओं का समाधान कर देंगे या उन्हें हर लेंगे। उन्हें क्या पता कि इनके पास जाकर वे ठगे जाएँगे और कहीं के भी नहीं रहेंगे। वे इस बात से अनजान होते हैं कि वहाँ जाकर न तो उन्हें माया मिलेगी और न ही राम।
ऐसे ठग लोग शेर की खाल में भेड़िए की तरह छिपे होते हैं, जो अवसर मिलते ही घात लगाने से परहेज नहीं करते। मासूम लोगों को ये दुष्ट सरलता से अपना शिकार बना लेते हैं। कुछ छोटी-मोटी सिद्धियाँ प्राप्त करके ये लोगों को अपना चमत्कार दिखाकर उल्लू बनाते हैं। जन-साधारण उनके बनाए जाल में फँस जाता हैं। कभी-कभी उन्हें दीक्षा देने के नाम पर भी फँसा लेते हैं। लोग उन्हें सच्चा गुरु मानकर उनकी ओर आकर्षित हो जाते है, फिर मुँह की खाते हैं।
ऐसे धूर्त आम लोगों को अपरिग्रह का पाठ पढ़ाते हैं और स्वयं एक के बाद एक प्रापर्टियों को जोड़ते जाते हैं। अनाप-शनाप तरीकों से धन-सम्पत्ति का संग्रह करते हैं। नामी-बेनामी भूखण्ड खरीदते हैं। बहुत-सी जमीन पर नाजायज कब्जा करने से भी नहीं डरते। न तो इनकम टैक्स देते हैं और न ही प्रॉपर्टी टैक्स। लोगों को धर्म के नाम पर डरा-धमकाकर दान के रूप में पैसा वसूल करते हैं। शायद ये लोग ऐसे दुष्कर्म इसलिए कर पाते हैं कि वे स्वघोषित ईश्वर बन होते हैं। अतः सभी कुकर्म करने का लाइसेंस शायद ये स्वयं ही बना लेते हैं।
जिन आश्रमों में लोग शान्ति की खोज में आते हैं, उन आश्रमों में यातनागृह बनाए होते हैं। किसी ने जरा भी विरोध प्रकट करने का साहस किया या सिर उठाने का प्रयत्न किया, तो वहाँ ले जाकर उन्हें यातनाएँ दी जाती हैं। किसी को भी जान से मार डालना मानो उनका शगल है, इस दुष्कर्म से उनकी रुह भी नहीं काँपती। वे तब भूल जाते हैं कि कल जब उनका समय खराब हो जाएगा तो उनका साथ देने के लिए कौन आगे आएगा?
ये तथाकथित धूर्त यह भी भूल जाते हैं कि भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान बहुत उच्च कहलाता है। चारों वर्णों में ब्राह्मण या गुरु को राज्य में भी सर्वाेच्च स्थान दिया गया है। श्गुरुर्देवोश् कहकर उपनिषद गुरु को भगवान कहता है। गुरु को तो ईश्वर से भी बड़ा माना जाता है क्योंकि वही ईश्वर को पाने का मार्ग दिखता है। उसकी प्रशस्ति में अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं। अनेक कवियों ने भी उसका गुणगान किया है।
गुरु का सबसे बड़ा धर्म है कि वह अपने शिष्यों को अपनी सन्तान माने। अपनी सन्तान रूपी अनुयायियों की हत्या करना, उनके साथ बलात्कार करना, उन्हें ठगना, भ्रष्टाचार करना जैसे अपराध किसी भी तरह से मान्य नहीं है। इनसे बढ़कर कोई अन्य कुकर्म नहीं हो सकते और इनकी कोई माफी नहीं होती। इन सबका दुष्परिणाम भी बहुत भयंकर होता है। जन-साधारण में इन सबका गलत सन्देश जाता है। लोगों का विश्वास ऐसे तथाकथित धर्म के ठेकेदारों से विश्वास उठ जाता है।
हर व्यक्ति का नैतिक दायित्व बनता है कि वे जब भी किसी को अपना गुरु बनाएँ, सोच-समझकर बनाएँ। हर किसी पर यूँ ही अन्धविश्वास नहीं करना चाहिए। अपने घर बैठिए, अपने महान ग्रंथो का स्वाध्याय कीजिए। मोक्ष का मार्ग स्वयं प्रशस्त हो जाएगा। यदि बहुत ही आवश्यक हो तभी गुरु बनाएँ अन्यथा भेड़चाल नहीं करनी चाहिए। मनीषी कहते हैं सुई की नोक से जो निकले, वही गुरु बनने का अधिकारी है।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)