मानव
16 सितंबर से ही 22 साला कुर्द लड़की महसा अमीनी की मौत के बाद ईरान की पूँजीवादी-कट्टरपंथी हुकूमत के खलिाफ विरोध प्रदर्शन जारी हैं। सरकार द्वारा जबरन हिजाब थोपने, उसकी दमनकारी पुलिस व्यवस्था और निजी व सामाजिक जीवन में सरकार के दखल के खलिाफ देश-भर में आम लोगों, खासकर नौजवानों का गुस्सा भड़क उठा। इस संघर्ष को ईरान के कई कलाकारों और प्रसिद्ध लोगों का भी समर्थन मिला। यह इस लगातार जारी संघर्ष का ही नतीजा था कि ईरान के अटॉर्नी जनरल मोहम्मद जाफर मुंतजरी को दिसंबर के पहले सप्ताह में प्रेस द्वारा यह पूछे जाने पर कि आखरि ईरान की नैतिक पुलिस ‘गश्त-ए-इरशाद’ पिछले दो महीनों से खुलकर सामने क्यों नहीं आई है? इसका जवाब देते हुए कहना पड़ा था कि ईरान की नैतिक पुलिस का न्यायपालिका से कोई सीधा संबंध नहीं है। यह पुलिस विभाग के अधीन है और उन्होंने ही इसे खत्म करने का फैसला किया है। परोक्ष रूप से इस सरकार के मंत्री ने स्वीकार किया कि भले ही सरकार द्वारा इस पुलिस को खत्म करने का कोई फैसला नहीं लिया गया, लेकिन सरकार के अपने ही पुलिस विभाग ने अब इसे खत्म करने का फैसला किया है। इस दावे की पुष्टि सरकार के एक धार्मिक संस्थान के प्रवक्ता सैयद अली खान मोहम्मदी ने भी की थी। सरकार के शीर्ष संस्थानों द्वारा इस संबंध में बयान जारी करना हुकूमत पर पड़े दबाव को ही दर्शाता है। सत्तारूढ़ गलियारों में यह दबाव और विभाजन यही दर्शाता है कि हुकूमत को नीचे से काफी जनदबाव झेलना पड़ा है।
सितंबर के दूसरे पखवाड़े में, ईरान के कुर्द इलाकों में पुलिस की ज्यादतियों के खलिाफ विरोध जल्द ही व्यापक सरकार विरोधी प्रदर्शनों में बदल गए। इतने व्यापक पैमाने पर लोगों के गुस्से का फूटना असल में कट्टरपंथी सरकार द्वारा निजता में हस्तक्षेप के साथ-साथ बेरोजगारी, सामाजिक असमानता और बढ़ती महँगाई के खलिाफ जनता के गुस्से का इजहार भी था। ईरान के करोड़ों मजदूरों-मेहनतकशों की बदहाली के लिए एक तरफ जहाँ ईरान की पूँजीवादी हुकूमत जिम्मेदार है, वहीं दूसरी तरफ अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में पश्चिम द्वारा लगाई गई पाबंदियाँ भी सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं। आर्थिक पाबंदियों के कारण देश के बिगड़े हालातों को विशाल आर्थिक संसाधनों, प्राकृतिक स्त्रोतों पर काबिज बड़े पूँजीपतियों और धार्मिक कट्टरपंथी हुक्मरानों ने और ज्यादा बदतर बना दिया है। बीते समय में सरकार द्वारा आम लोगों को मिलने वाली सब्सिडियों में की गई कटौती के कारण रोजमर्रा की जरूरत की चीजों और मुख्य रूप से खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही हैं। खाद्य पदार्थों की महँगाई, कई क्षेत्रों में सूखा, और पहले से ही शुष्क देश ईरान में जल संसाधनों के अव्यवस्थित प्रबंधन ने बड़े पैमाने पर ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार के ख़िलाफ रोष को बढ़ावा दिया है। आर्थिक संकट का असर मध्यवर्ग पर भी पड़ा और क्योंकि मध्यवर्ग का संपन्न हिस्सा सरकार में भी अपनी पैठ रखता है, इसलिए बिगड़ते हालात को लेकर सरकारी प्रशासन में दबाव और मतभेद पैदा हो गए हैं।
एक ओर इन विरोध प्रदर्शनों का केंद्रीय नारा ‘जन (स्त्री), जीवन, आजादी’ था, जिसके तहत ईरान की धार्मिक हुकूमत द्वारा थोपे गए हिजाब और अन्य पाबंदियों से आजादी को मुद्दा बनाया गया था, दूसरी ओर संघर्ष के और व्यापक होने से, ‘तानाशाह मुर्दाबाद’ जैसे नारे भी इस विरोध का हिस्सा बने जो स्पष्ट रूप से हुक्मरानों के प्रति आम जनता की नाराजगी का इजहार थे। हालाँकि ये विरोध प्रदर्शन दिसंबर 2018-जनवरी 2019 और नवंबर 2019 के विरोध प्रदर्शनों जितने व्यापक नहीं थे, लेकिन ये निश्चित रूप से उन विरोध प्रदर्शनों की तुलना में अधिक समय तक चले हैं। दिसंबर के पहले सप्ताह में प्रदर्शनकारियों द्वारा मजदूरों, सरकारी कर्मचारियों, व्यापारियों को अपील करते हुए तीन दिवसीय देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पश्चिमी मीडिया के पक्षपात और ईरानी सरकार की सेंसरशिप के चलते यह ठीक-ठीक बता पाना संभव नहीं है कि इस हड़ताल में आम लोगों की भागीदारी किस स्तर की थी, लेकिन यह तय है कि इससे पिछले ढाई महीने के दौरान इस्फहान शहर के इस्पात मजदूरों, सनंदाज के पेट्रोकेमिकल मजदूरों, सिपाहान के सीमेंट उद्योग, मशाहद के बस कर्मचारियों की हड़ताल ने इस ताजा संघर्ष को ताकत दी। इस हड़ताल का आह्वान देश-भर में ‘छात्र दिवस’ के रूप में याद किए जाने वाले दिन किया गया था, जब 1953 में अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा सत्ता में बैठाई गई रेजा शाह की सरकार ने तीन छात्रों को मौत के घाट उतार दिया था। यह इस बात का स्पष्ट संकेत था कि किस तरह संघर्ष की नई मंजिलें तय करते हुए ईरान की जनता अपने हुकूमत विरोधी इतिहास को देख रहे हैं और उससे हौसला ले रहे हैं।
यह सच है कि इस नए उभार में ईरान की जनता ने धार्मिक पाबंदियों को कड़ी चुनौती दी है, जिसके कारण सरकार को थोड़ी ढील देनी भी पड़ी है। लेकिन किसी क्रांतिकारी संगठन के नेतृत्व के ना होने के कारण यह संघर्ष शुरू से ही नेतृत्वहीन रहा है और इसी कारण समय के साथ थम सा गया प्रतीत होता है। जो हुकूमत पिछले डेढ़-दो महीने से ढिलाई बरत रही थी, पुलिस को रोक कर रख रही थी, यह सब भाँपते ही उसने प्रदर्शनकारियों पर हमले करने शुरू कर दिए हैं। अक्टूबर के अंत में सरकार ने अपना पहला बड़ा न्यायिक फैसला सुनाते हुए घोषणा की कि वह राजधानी तेहरान में एक हजार से अधिक लोगों पर सार्वजनिक मुकद्दमे चलाएगी। सरकार के मुताबिक अब तक 200 लोगों की मौत हुई है, जिनमें 50-60 सुरक्षाकर्मी भी शामिल हैं। कहने की जरूरत नहीं कि सरकार के इन फर्जी मुकद्दमों में अपने अधिकारों की माँग करने वालों को ‘दंगई’, ‘आतंकवादी’ आदि बताकर कड़ी सजाएँ दी जाएँगी और कुछ को तो मौत की सजा भी दी जाएगी। दिसंबर के दूसरे सप्ताह तक दो लोगों को मौत की सजा और 100 से अधिक लोगों को पांच से पंद्रह साल तक की जेल की सजाएँ सुनाई जा चुकी हैं। यह पहली बार नहीं है जब ईरान की कट्टरपंथी सरकार अपने खिलाफ उठती आवाज़ के साथ ऐसा कर रही है। 1980 के दशक में सत्ता द्वारा दमन ने हजारों कार्यकर्ताओं को इसी तरह खत्म किया था। इस दमन को देखते हुए ईरानी सरकार के सुधारवादी धड़े द्वारा प्रदर्शनकारियों के साथ थोड़ा नरमी बरतने की अपील की गई है, क्योंकि यह धड़ा जानता है कि सरकार के दमन के चलते भविष्य में जनता से सरकार का अलगाव और बढ़ेगा।
दूसरी ओर अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने ईरान की आंतरिक स्थिति का लाभ उठाने के लिए अपना पूरा जोर लगा रखा है। अपने मीडिया संस्थानों के जरिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों के पिट्ठू रेजा शाह के शासन काल को भी महिमामंडित किया जा रहा है। दूसरी ओर वाशिंगटन ने स्पष्ट संकेत देते हुए कहा है कि ईरान परमाणु समझौते को बहाल करने का उसका फिलहाल कोई इरादा नहीं है और ईरान पर कठोर पाबंदियाँ उसी तरह जारी रहेंगी। कहने की जरूरत नहीं है कि ईरान पर लगाई गई आर्थिक पाबंदियाँ ईरान के हुक्मरानों पर रत्ती-भर भी असर नहीं डालती, लेकिन ये जरूरी दवाओं और अन्य बुनियादी सामानों का रास्ता रोककर वहाँ की मेहनतकश जनता पर बोझ बढ़ा रही हैं। अब अमेरिका ने ईरान द्वारा रूस को ड्रोन और मिसाइल देने का मुद्दा उठा रखा है, जबकि खुद साम्राज्यवादी अमेरिका अब तक यूक्रेन को 100 अरब डॉलर के घातक हथियार भेज चुका है। लब्बेलुबाब यह है कि ईरान की हुकूमत और उसके द्वारा थोपी गई धार्मिक पाबंदियों के खलिाफ लड़ाई ईरान की जनता की लड़ाई है। इसमें किसी भी देश को दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। और अमेरिका, यू.के., जर्मनी जैसे साम्राज्यवादी देशों, जिनके द्वारा खुद इस क्षेत्र में लाखों बेगुनाह लोगों को मारने का इतिहास हो, उसके लोकतंत्र के झंडाबरदार बनने की कोशिशों को ईरान की आम जनता कभी स्वीकार नहीं करेगी। आज जरूरत ईरान के इस नेतृत्वहीन संघर्ष को सही नेतृत्व दे सकने वाले एक क्रांतिकारी संगठन की है, जो वहाँ के मौजूदा दमनकारी हालात में बेहद मुश्किल कार्यभार तो जरूर है, लेकिन असंभव नहीं है।
(लेखक साम्यवादी चिंतक हैं। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेना देना नहीं है।)