जयसिंह रावत
हरिद्वार के प्रसिद्ध मनसा देवी मंदिर में 27 जुलाई रविवार को जो कुछ हुआ, वह किसी अप्रत्याशित घटना की तरह नहीं था। यह हादसा एक बार फिर से उस सच्चाई को सामने लाता है कि धार्मिक आस्था का उफान जब प्रशासनिक विवेक, स्थान की क्षमता और वैज्ञानिक भीड़ प्रबंधन पर भारी पड़ता है तो आस्था का यह सैलाब त्रासदी में बदल सकता है। उस दिन मंदिर के मुख्य मार्ग की सीढ़ियों पर अचानक भगदड़ मच गई। कहा गया कि किसी ने यह अफवाह फैला दी कि रेलिंग में करंट दौड़ रहा है। नतीजा यह हुआ कि 8 श्रद्धालुओं की मौके पर मौत हो गई और लगभग 30 श्रद्धालु घायल हो गए। यह घटना हमें बताती है कि हम आज भी उन्हीं भूलों को दोहरा रहे हैं जिनका इतिहास दशकों पुराना है।
मनसा देवी मंदिर पहाड़ी पर स्थित एक अत्यधिक लोकप्रिय शक्ति पीठ है जहां सावन और नवरात्र जैसे पर्वों पर श्रद्धालुओं की भीड़ कई गुना बढ़ जाती है लेकिन इस भीड़ को नियंत्रित करने के लिए जो व्यवस्था होनी चाहिए, वह अक्सर उतनी ही कमजोर साबित होती है जितनी कि श्रद्धा प्रबल। यह पहली बार नहीं है जब हरिद्वार में ऐसा हुआ हो। इससे पहले 1986 के कुंभ मेले की भगदड़ में लगभग 200 लोगों की मृत्यु हुई थी। 2011 में हर की पैड़ी पर भी एक भगदड़ में 20 लोग मारे गए थे। इसी प्रकार 8 नवम्बर 2011 को ही शांतिकुंज के एक कार्यक्रम में भी भगदड़ में 20 श्रद्धालुओं की मौत और 30 घायल हो गये थे। इन हादसों का पैटर्न लगभग एक जैसा रहा है, अत्यधिक भीड़, संकरे रास्ते, अफवाहें और प्रशासनिक लापरवाही।
भगदड़ हादसों के मामले में हरिद्वार अकेला नहीं है। देश के अन्य धार्मिक स्थलों पर भी इसी तरह की घटनाएं बार-बार होती रही हैं। 2024 में उत्तर प्रदेश के हाथरस में एक स्वयंभू बाबा के सत्संग में भगदड़ मची जिसमें 121 लोगों की मृत्यु हो गई थी। 2022 में वैष्णो देवी मंदिर में भी नववर्ष के मौके पर भगदड़ मचने से 12 श्रद्धालुओं की जान गई। 2008 में हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में चट्टान खिसकने की अफवाह से भगदड़ मची थी जिसमें 162 लोग मारे गए थे। 2023 में रामनवमी के अवसर पर वहीं एक और भगदड़ हुई जिसमें 36 श्रद्धालु मरे। इसी महीने मध्यप्रदेश के बागेश्वर धाम में गुरु पूर्णिमा महोत्सव के दौरान टेंट गिरने और दीवार ढहने से दो लोगों की मौत हुई। ये आंकड़े महज संख्याएं नहीं बल्कि व्यवस्थागत असफलताओं के प्रमाण हैं।
प्रश्न यह है कि आखिर ये घटनाएं बार-बार क्यों घट रही हैं? एक कारण तो यह जरूर है कि भीड़ को आयोजन और आयोजन स्थल की सफलता का मापदंड माना जाता है। सरकारें और धार्मिक संस्थाएं जितनी अधिक भीड़ जुटा पाती हैं, उसे उतनी ही बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित करती हैं। श्रद्धालुओं की संख्या को लाखों और करोड़ों में गिनाया जाता है, और यह मान लिया जाता है कि आस्था जितनी व्यापक होगी, उतनी ही मान्यता और चढ़ावा भी मिलेगा परंतु इस मानसिकता में यह भूल जाती है कि किसी भी स्थल की एक सीमा होती है जिसे कैरीइंग कैपेसिटी कहा जाता है। कैरीइंग कैपेसिटी का अर्थ है किसी स्थल की वह अधिकतम सीमा जहाँ तक वह पर्यावरणीय, भौगोलिक और संरचनात्मक रूप से भीड़ को सुरक्षित रूप से संभाल सकती है। मनसा देवी मंदिर जैसे स्थलों पर यह सीमा सीमित होती है, सीढ़ियां संकरी हैं, रेलिंग पुरानी हैं, और ऊपर-नीचे आने-जाने का मार्ग एक ही है। ऐसी स्थिति में यदि हजारों की संख्या में लोग एक साथ एक ही दिशा में बढ़ते हैं और अचानक अफवाह या घबराहट फैलती है, तो भगदड़ अवश्यंभावी हो जाती है।
प्रशासनिक दृष्टि से देखा जाए तो भारत में अधिकांश धार्मिक स्थलों पर ऐसी स्पष्ट कैरीइंग कैपेसिटी निर्धारित नहीं की जाती और न ही भीड़ को उसी अनुसार रोका जाता है। जब तक यह वैज्ञानिक आधार पर तय नहीं किया जाएगा कि किस पर्व पर किस स्थल पर कितने लोग एक समय में प्रवेश कर सकते हैं, तब तक सुरक्षा सिर्फ भाग्य पर आधारित होगी। प्रशासन कई बार दावा करता है कि उसने पर्याप्त इंतजाम किए थे, सीसीटीवी कैमरे लगाए थे, पुलिस बल तैनात किया गया था, रूट प्लान तैयार था परंतु जब हादसा हो जाता है तो यही व्यवस्थाएं कागजों में ही सीमित पायी जाती हैं। मनसा देवी मंदिर की घटना में भी यही हुआ। एक अफवाह ने समूची व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। यदि श्रद्धालुओं को पहले से जागरूक और नियंत्रित किया गया होता, तो शायद यह हादसा टल सकता था।
दूसरी ओर धार्मिक संस्थाओं की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। कई बार आयोजक भीड़ को लेकर कोई वैज्ञानिक अनुमान नहीं लगाते, न ही किसी प्रकार की पूर्व अनुमति की प्रक्रिया का पालन करते हैं। हाथरस की घटना इसका ज्वलंत उदाहरण है। न आयोजन का कोई नियंत्रण था, न किसी एजेंसी से सहमति ली गई थी और न ही आपातकालीन प्रबंधन की कोई योजना थी। इन हादसों के बाद अक्सर एक जैसी प्रतिक्रियाएं आती हैं, मुआवजे की घोषणा, मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश परंतु एक लोकतांत्रिक और उत्तरदायी प्रशासन को इससे कहीं आगे जाकर कार्य करना होगा। प्रत्येक प्रमुख धर्मस्थल की कैरीइंग कैपेसिटी का वैज्ञानिक आकलन कर उसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए। भीड़ नियंत्रण के लिए डिजिटलीकृत टोकन प्रणाली, लाइव निगरानी, अलग-अलग प्रवेश व निकास मार्ग, प्रशिक्षित स्वयंसेवकों की व्यवस्था, और अफवाहों के खिलाफ त्वरित प्रतिक्रिया तंत्र को स्थायी रूप से लागू किया जाना चाहिए।
भीड़ की यह संस्कृति केवल धार्मिक आयोजनों तक सीमित नहीं है लेकिन वहां इसका प्रभाव सबसे घातक होता है क्योंकि श्रद्धालु अपने धार्मिक जोश में अनुशासन को अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं। इसलिए केवल प्रशासन ही नहीं बल्कि आम श्रद्धालुओं को भी यह समझने की आवश्यकता है कि भीड़ का हिस्सा बनना कहीं उनकी श्रद्धा की परीक्षा न बन जाए। धार्मिक आस्था को आंकड़ों, भीड़ या प्रचार का माध्यम नहीं बल्कि विवेक और जिम्मेदारी के साथ जोड़ना होगा। जब तक भीड़ को आयोजन की सफलता और चढ़ावे का पैमाना माना जाता रहेगा, तब तक मनसा देवी, नैना देवी, हाथरस या वैष्णो देवी जैसी त्रासदियाँ दोहराई जाती रहेंगी। इस सोच को बदलने की शुरुआत अब आवश्यक है।
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