शादाब सलीम
हमारे देश में पर्सनल लॉ के मामलों में कॉमन सिविल कोड लागू नहीं होकर भी लागू हो चुका है। पार्लियामेंट ने कानून नहीं बनाया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने समय समय पर परिवर्तन कर दिए हैं। किसी भी धर्म जाति का कोई रत्तीभर पर्सनल लॉ नहीं बचा है। सब कुछ सुप्रीम कोर्ट के वर्डिक्ट पर ही तय हो रहा है। जैसे मुस्लिम महिलाएं मेंटेनेंस क्लेम कर रही हैं, बहुविवाह पर भले सेक्शन 494 लागू न हो लेकिन 498ए लागू कर दी गई है क्योंकि उसे पहली पत्नी के अंगेस्ट क्रूरता मान लिया गया है। शादी को भले मान्यता हो लेकिन आपराधिक मुकदमा तो पर्सनल लॉ में बहुविवाह की मान्यता वालों पर भी बन रहा है। अब म्यूचुअल डिवोर्स तक कोरे कागजों पर या ओरल मान्यता नहीं रखता है, कई हाईकोर्ट नोटरी पर तलाक खत्म कर चुकी है, काजी के पास होने वाले खुला को भी लोग चेलेंज कर देते हैं इसलिए वहां भी कोर्ट की डिक्री मान्य हो गई है। अब तलाक सिर्फ कोर्ट की डिक्री पर ही होता है।
अब इस समय तक कॉमन सिविल कोड में कोई दम नहीं रह गया खासकर मुस्लिम पर्सनल लॉ के मामलों में। फिर अदालतों को मुस्लिम पर्सनल लॉ समझने में भी बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। सक्सेशन के मामलों में बहुत दिक्कत आती है। दिनशव फरदोन जी मुल्ला की एकमात्र किताब का सहारा लेकर जैसे तैसे मुस्लिम सक्सेशन चलाया जा रहा है। वास्तव में मुस्लिम सक्सेशन में बहुत मुश्किल होती है। बगैर वसीयत मर जाने वाले मुस्लिम व्यक्ति की संपत्तियों के विवाद सुलझाए नहीं सुलझते हैं। वारिस अदालतों में बुरी तरह लड़ते हैं, यह चीज अमीर मुस्लिम समुदाय के लोगों में देखने को मिलती है, यह झगड़े अमीर मुसलमानों के शहर दिल्ली, हैदराबाद, भोपाल और मुंबई जैसी जगहों पर खूब मिलेंगे। आखिर में सेटलमेंट कर वही पार्लियामेंट के बनाएं हिन्दू सक्सेशन एक्ट के प्रोविजन के दायरे में ही लोग आपसी रजामंदी करते हैं।
कॉमन सिविल कोड से एक संहिताबद्ध कानून हो जाएगा। कम से कम म्युचुअल डिवोर्स जैसे मामले तो सुधर जाएंगे और सक्सेशन भी। सरकार को इसे निष्पक्षता से देशहित में बना देना चाहिए तो यह वास्तव में बहुत अच्छा काम होगा। जैसे प्रतिषिद्ध नातेदारी में विवाह जिन जातियों में होता है उन्हें परन्तुक डालकर अलाव कर दे और जिनमें नहीं होता है उनमें प्रोहिबिशन कर दे लेकिन तलाक के बेस सभी के एक जैसे बना दे. यूं भी मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम में जितने सारे तलाक के बेस हैं वहीं सब हिन्दू मैरिज एक्ट में हैं, नेहरू जी के पहले ही अंग्रेजों के समय मुस्लिम मौलवियों ने ड्राफ्टिंग कर मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम बना का सरकार को सौंप दिया था जिसमें एक औरत को भी तलाक के अधिकार मिल गए थे. मुस्लिम महिला को तलाक का अधिकार मिले हुए अस्सी साल से ज्यादा समय हो गया है। यह काम 1939 में हो गया था लेकिन यह मुद्दा शुरू से राजनीतिक रहा है और इस पर राजनीति होगी। बहुत आसान सी बातें हैं लेकिन राजनीति ने उन्हें बहुत दुरह कर दिया हैं। एक तो हर आदमी जिसे कानून की कोई समझ नहीं है जो कभी अदालत नहीं गया है, फिल्मों के अलावा कभी कोर्ट नहीं देखी ,वह भी इस मुद्दे पर कूद पड़ता है और अपढ़ पत्रकार अपने खांचे बनाकर खबर लिख देते हैं जो अर्थ का अनर्थ पैदा कर देती है।
मेरे निकट तो इस देश में कॉमन सिविल कोड की सख्त जरूरत है। पर्सनल लॉ बहुत बिखरा हुआ है और लोगों में झगड़े हो रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट ने जैसे तैसे बात संभाली हुई है। एक कानून तय हो जाए तो कम से कम मुकदमे किसी एक रास्ते पर तो चल सकेंगे अभी वह चारों तरफ भागते हैं। थोड़ा थोड़ा त्याग सभी को करना पड़ेगा और समय समय पर सभी करते ही रहे हैं। जैसे मुस्लिम विवाह में महिला को तलाक का अधिकार नहीं है लेकिन 1939 में दे दिया गया क्योंकि एक मुस्लिम महिला के पति को कोढ़ या एड्स हो जाए तब यह उसका अधिकार है कि वह ऐसे व्यक्ति से तलाक मांगें क्योंकि ऐसे व्यक्ति से सेक्स करना जान जोखिम में डालना है और जान बचाना इस्लाम का अहम फर्ज है। जैसे हिन्दू मैरिज एक्ट 1955 में तलाक डाला गया जबकि हिन्दू विवाह में तलाक नहीं होता है और हिन्दू को सिर्फ एक हिन्दू माना गया है, यहां तक सिख बौद्ध और जैन को भी हिन्दू माना गया है लेकिन हिन्दू विवाह जातियों के अनुसार ही होता था, उन्हें प्रतिबंधित नातेदारी दी गई लेकिन गोत्र के भेद खत्म कर दिए गए। सभी ने समय के अनुसार थोड़ा त्याग तो किया है और बातों को आधुनिक युग में अपनाया है। बगैर विवाद और राजनीति किए लोगों के भले के लिए इस पर सोचना चाहिए. आखिर हर कानून इंसानों की भलाई के लिए ही है और फिर हमें दुनिया भर के कानूनों को देखना चाहिए।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)