उत्तराखंड भाजपा के लिए गले की फांस बनती जा रही है UCC

उत्तराखंड भाजपा के लिए गले की फांस बनती जा रही है UCC

उत्तराखण्ड की धामी सरकार द्वारा खास कर लोकसभा चुनाव को लेकर तैयार की गयी समान नागरिक संहिता (यूसीसी) स्वयं भारतीय जनता पार्टी के लिये मुसीबत बन गयी है। समानता के नाम पर बनायी गयी इस असमान संहिता को लेकर जो संवैधानिक प्रश्न उठ रहे हैं, वे तो अपनी जगह हैं ही लेकिन अब इस संहिता में ’’निवासी’’ की नयी कानूनी परिभाषा को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। विवाद भी एकदम भावनात्मक होने के कारण विपक्षियों ने उसे भाजपा के धार्मिक ऐजेंडे की तोड़ के रूप में थाम लिया है। धामी सरकार की यूसीसी में महज एक साल से उत्तराखण्ड में रह रहे व्यक्ति को राज्य का निवासी मान लिया गया है जबकि लोग 1950 से पहले से यहां रहने वाले को ही यहां का मूल निवासी घोषित करने की मांग कर रहे हैं।

उत्तराखण्ड वासियों की सांस्कृतिक पहचान और गरीब पहाड़ियों की जमीनें बचाने को लेकर राज्य में मूल निवास और मजबूत भूकानून को लेकर जनता काफी समय से आन्दोलित है। इस मुद्दे को लेकर उत्तराखण्ड के प्रख्यात लोक गायक और कवि नरेन्द्र सिंह नेगी के आवाहन पर 24 दिसम्बर 2023 को देहरादून में एक ऐसी विशाल रैली हो चुकी है, जिसने लोगों को उत्तराखण्ड आन्दोलन की याद ताजा करा दी थी। इसी मुद्दे को लेकर कई प्रमुख नगरों में रैलियां हो चुकी है जिनमें हजारों की संख्या में लोगों ने भाग लेकर अपनी भावनाएं प्रकट कर चुके हैं। राज्य के लोग सन् 1950 से पहले से उत्तराखण्ड में रह रहे लोगों को मूल निवासी घोषित करने की मांग कर रहे हैं ताकि प्रदेश में तरक्की के अवसरों पर पहला हक मूल निवासियों को मिल सके और पहाड़ के लोगों की अपनी सांस्कृतिक पहचान अक्षुण बनाये रखी जा सके। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश कास्तकारी एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1972 की धारा 118 की तर्ज पर भूकानून की मांग उठ रही है ताकि धन्ना सेठ और राजनेता, नौकरशाह और माफिया की तिकड़ी लोगों की जमीनें बचाई जा सके।

सत्तारूढ़ दल समानता के नाम पर धामी सरकार की जिस यूसीसी का ढोल सारे देश में पीटा जा रहा है उसमें बहुत सारे प्रावधान असंवैधानिक तो हैं ही लेकिन उसमें ’’निवासी’’ को लेकर जो परिभाषा दी गयी है उसने नया बवाल खड़ा कर दिया है और इस पर सत्तरूढ़ दल को जवाब देते नहीं बन रहा है। समान नागरिक संहिता उत्तराखण्ड, 2024 के प्रारंभिक अध्याय के क्रम संख्या 3 में विभिन्न प्रावधानों से संबंधित कानूनी परिभाषायें दी गयी हैं। इसी क्रम संख्या 3 के (ड) के खण्ड चतुर्थ (पअ) में प्रावधानित है कि ‘‘जो व्यक्ति कम से कम एक वर्ष से राज्य में निवास कर रहा है या राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की ऐसी योजना का लभार्थी है जो राज्य में लागू है, वह राज्य का निवासी माना जायेगा।

कहां तो राज्यवासी पिछले 74 साल से उत्तराखण्ड में रहने वाले को मूल निवासी घोषित करने की मांग कर रहे हैं और कहां धामी सरकार ने एक साल से राज्य में रहने वाले को ही कानूनन यहां का स्थाई बना दिया। ऐसा प्रावधान कर सरकार ने चुपके से मूल निवास की मांग को ठोकर मार दी। तो क्या एक साल से कोई विदेशी भी उत्तराखण्ड में रह रहा हो तो सामरिक दृष्टि से संवेदनशील इस सीमान्त राज्य में वह ‘‘निवासी’’ मान लिया जायेगा? नेपाली आब्रजक जनसंख्या यहां आती जाती रहती है। तिब्बती लोग 1949 से देहरादून के कुछ क्षेत्रों में रहते हैं। इस संबंध में भी इस एक्ट में कोई स्पष्टीकरण नहीं है।

वर्तमान में राज्य गठन से 15 साल पूर्व याने कि 1985 से उत्तराखण्ड में रह रहे लोगों को स्थाई निवासी मानने का शासनादेश प्रवृत है लेकिन अब बाकायदा विधानसभा द्वारा पारित और भारत के राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित कानून ने एक साल की समय सीमा को कानूनी जामा पहना दिया। अब जबकि लोग धामी सरकार की यूसीसी के प्रावधानों को पढ़ रहे हैं तो धार्मिक कारणों से खुश हो रहे आम लोग भी यूसीसी को धोखा मानने लगे हैं। जिस यूसीसी को भाजपा ने चुनावी हथियार बनाया है वही हथियार बूमरैंग करने लगा है। इस मुद्दे को इस गले की फांस का उतारने के लिये कहा जा रहा है कि यह प्रावधान केवल यूसीसी के लिये ही है। जबकि एक्ट में ऐसा कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। कानून के जानकारों के अनुसार पहली बार राज्य में निवासी शब्द को विधानसभा ने कानूनन परिभाषित किया है इसलिये यह कानूनी प्रावधान गैर उत्तराखण्डियों को सरकारी नौकरियों से लेकर हर जगह काम आयेगा।

जनता की भारी मांग पर तत्कालीन नारायण दत्त तिवारी सरकार ने वर्ष 2003 में राज्य की बचीखुची जमीनें भूमाफिया, भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और नव धनाड्यों के हाथों खुर्दबुर्द होने से रोकने के लिये उत्तर प्रदेश जमीदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1950 में बदलाव कर नया कानून बनाया था जिसमें बाद में भाजपा की खण्डूड़ी सरकार ने हल्का संशोधन कर कानून को कुछ सख्त बना दिया था लेकिन 2017 में भाजपा के सत्ता में आते ही उस कानून पर भूमि कारोबारियों की सहूलियत के लिये औद्योगीकरण के नाम पर निरंतर छेद किये जाते रहे। बाद में धामी सरकार पर भी मजबूत भूकानून का दबाव पड़ा तो नये कानून का मजमून बनाने के लिये पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में एक समिति बना दी गयी जिसने अपनी सिफारिश समेत कानून का ड्राफ्ट भी 2023 में सरकार को सौंप दिया था। इस समिति की रिपोर्ट को तो सरकार ने कहीं दबा दिया जबकि बिना मांगे ही समान नागरिक संहिता के नाम पर नयी समिति बना डाली।

नया कानून बनाना तो रहा दूर मौजूदा कानून की धारा 143 क और ख में जो बची खुची बंदिश थी वह भी समाप्त कर दी। इनमें प्रावधान था कि अगर उद्योग के नाम पर ली गयी जमीन पर दो साल के अन्दर उद्योग नहीं लगा तो वह जमीन धारा 167 के तहत सरकार में निहित हो जायेगी। राज्य में व्यवसायियों ने उद्योग के नाम पर बड़े पैमाने पर जमीनें खरीदी थीं मगर उन पर उद्योग नहीं लगाये। ऐसी जमीनें जब्त हो कर सरकार के कब्जे में जाने ही वाली थी तब तक मैजूदा सरकार ने कानून से वे धारायंे ही हटा दीं ताकि न रहे बांस और ना बजे बांसुरी। सरकारी सांठगांठ से खरबों रुपयों की उन जमीनों को मनमाने दामों पर बेच दिया गया। सवाल उठता है कि शर्तों का उल्लंघन करने वालों पर यह दरियादिली क्यों दिखाई गयी और सरकार को मिलने वाली बेशकीमती जमीनों को सरकार ने किस लालच में लैंड शार्क के हवाले कर दिया?

राज्यवासी जब मजबूत भूकानून की मांग कर रहे थे, तब राज्य सरकार कभी लैंड जिहाद और कभी मजार जिहाद के नाम पर मुद्दे का भटका रही थी। जबकि वही सरकार बिना मांगे 5 करोड़ के खर्च पर अनचाही समान नागरिक संहिता का मजमून बनवा रही थी। चूंकि नयी नागरिक संहिता पूरी तरह हिन्दू विवाह अधिनियम, उत्तराधिकार अधिनियम जैसे हिन्दू कानूनों के आधार पर बनी हुयी है जिसमें इसाई, पारसी, मुस्लिम और सिखों के नागरिक कानूनों को समाप्त कर दिया गया। यही नहीं समानता के नाम पर बनायी गयी संहिता में जनजातियों को यह सोच कर छोड़ दिया कि वे सभी हिन्दू हैं जबकि सन् 2011 की जनगणना में प्रदेश में लगभग 5 हजार ऐसे जनजातीय परिवार थे जो हिन्दू न हो कर मुस्लिम, इसाई और सिख आदि धर्मों में दर्ज थे। अब तक उनकी संख्या कई हजार हो चुकी होगी। चूंकि यह संहिता अनुच्छेद 14 से लेकर 25 तक में दर्ज मौलिक अधिकारों की अनदेखी कर बनायी गयी है इसलिये मामले का अदालत में जाना तय ही है और इसका भविष्य भी अनिश्चित है।

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