राजेश जैन
हाल में सत्ता परिवर्तन के बाद अमेरिका ने अपनी नीतियों में बहुत बड़ा बदलाव करते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा में यूक्रेन युद्ध को लेकर रूस के खिलाफ आए प्रस्ताव में पुतिन का साथ दिया। यही नहीं, अमेरिका के हस्तक्षेप के बाद जी-7 देशों की ओर से रूसी हमले की आलोचना करने के लिए जारी बयान भी उसे हल्का कर दिया गया और रूस को हमलावर मानने से इंकार कर दिया। ट्रंप के रक्षा सचिव पीट हेगसेथ कह चुके हैं कि 2014 और 2022 में जो इलाके रूस ने हासिल किए हैं, अगर यूक्रेन उन्हें वापस हासिल करने की उम्मीद कर रहा है तो वह आशा श्अवास्तविकश् है। यही नहीं, यूक्रेन के लिए और भी बुरी खबरें हैं। उसे नेटो में शामिल नहीं किया जाएगा। दूसरी ओर, अगर कोई शांति समझौता रूस और यूक्रेन के बीच होता है तो उस पर अमल के लिए अमेरिका वहां फौज भी नहीं भेजेगा। अगर यूरोपीय देश अपनी तरफ से यूक्रेन में फौज भेजते हैं तो उनकी सुरक्षा का दायित्व नेटो पर नहीं होगा।
अमेरिका का इस तरह पाला बदलना रूस के लिए यूक्रेन पर पर हमले के तीन साल पूरे होने पर अमेरिका की बड़ी सौगात की तरह है लेकिन इससे अब तक रूस के खिलाफ जंग में अमेरिका के साथ रहे जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे यूरोपीय देश-बुरे फंस गए हैं और खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं। यूरोपीय देश चाहते हैं कि अगर अमेरिका युद्ध रुकवाने के लिए रूस से कोई बातचीत करता है तो उन्हें भी उसका हिस्सा बनाया जाना चाहिए। इन देशों का मानना है कि वार्ता में जो भी हल निकले, उसमें यूक्रेन को मजबूत स्थिति में होना चाहिए।
वर्तमान हालात में यूक्रेन को यकीन नहीं है कि वह वित्तीय और सैन्य प्रतिबद्धता के लिए अपने सबसे मजबूत सहयोगी संयुक्त राज्य अमेरिका पर और अधिक भरोसा कर सकता है। उसको लग रहा है कि यूक्रेन केवल अमेरिकी कंपनियों के लिए लूट और युद्ध का मैदान बनकर रह गया है।
उसके लिए यह बात इसलिए भी शॉकिंग थी कि पिछले दिसंबर में ही ट्रंप और जेलेंस्की की मुलाकात हुई थी। इससे पहले बाइडन सरकार की नीति थी- यूक्रेन पर अगर कोई बातचीत होगी तो उसमें वह भी शामिल होगा। लेकिन ट्रंप ने पहले पुतिन से बात की और फिर जेलेंस्की से चर्चा। ट्रंप-पुतिन की बातचीत से ऐन पहले जेलेंस्की ने कहा था, श्अगर यूक्रेन युद्ध पर रूस और अमेरिका बात करें तो अमेरिका को सही सूचनाएं नहीं मिलेंगी।श् यानी अगर सही बात ही नहीं पहुंचेगी तो सही फैसला कैसे होगा।
असल में, शांति की इच्छा पुतिन और जेलेंस्की दोनों जाहिर करते रहे हैं। लेकिन शांति किस कीमत पर होनी चाहिए, इसे लेकर दोनों की राय अलग है। पुतिन चाहते हैं कि यूक्रेन के जिन इलाकों पर उनका कब्जा हो चुका है, वे वापस न लिए जाएं। जेलेंस्की चाहते हैं कि रूस वे इलाके यूक्रेन को वापस करे। पुतिन की मुश्किल यह है कि अगर वह जीते गए इलाके वापस करते हैं तो एक तरह से युद्ध में उनकी हार मानी जाएगी और इससे उनकी साख कमजोर होगी।
जेलेंस्की अगर यूक्रेन के इलाके वापस लिए बगैर युद्ध रोकते हैं तो उनके लिए राजनीतिक वजूद बचाए रखना मुश्किल हो जाएगा। वैसे, भी उनका आधिकारिक कार्यकाल पहले ही खत्म हो चुका है। फिलहाल, युद्ध की वजह से वहां चुनाव नहीं हो पा रहे हैं।
जब बाइडन राष्ट्रपति थे, तब यूक्रेन को अमेरिका और यूरोपीय देशों की ओर से दी जा रही मदद लोकतंत्र को बचाने की जंग थी। उन्हें इस बात का अहसास था कि अगर पुतिन की मनमानी को नहीं रोका गया तो वह विस्तारवादी नीतियों पर आगे बढ़ते रहेंगे। पुतिन के बारे में माना जाता रहा है कि सोवियत संघ के दौर के साम्राज्यवाद को वह फिर से स्थापित करना चाहते हैं। 2014 में उन्होंने यूक्रेन से क्रीमिया को छीना था। 2022 के बाद युद्ध में भी पुतिन यूक्रेन के कई क्षेत्रों पर कब्जा करने में कामयाब रहे हैं। यूक्रेन के सहयोगी यूरोपीय देश चाहते हैं कि युद्ध पुतिन की शर्तों पर खत्म नहीं करना चाहिए। युद्ध खत्म करवाने की एवज में रूसी राष्ट्रपति से भी रियायतें हासिल करनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो यह न सिर्फ दुनिया में लोकतंत्र के लिए झटका होगा बल्कि इससे दूसरी ताकतों को मनमानी करने का मौका मिलेगा।
आशंका है कि चीन भी ताइवान को अपने में मिलाने के लिए जंग छेड़ सकता है। हाल ही में शी चिनफिंग ने कहा कि ताइवान मसले को वह आने वाली पीढ़ियों की खातिर नहीं छोड़ना चाहते यानी वह अपने कार्यकाल में उसका विलय चीन में करना चाहते हैं। वहीं ट्रंप ने भी ऐसे संकेत दिए। पहले तो उन्होंने कनाडा को अमेरिका का 51वां सूबा बनाने की बात कही। फिर ग्रीनलैंड को खरीदने की। उसके बाद गाजा को फलस्तीनियों से खाली करवाने की। कुल मिलाकर एक बार शुरुआत हुई तो समूची दुनिया को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।
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