उलगुलान! उलगुलान!! उलगुलान!!!—-

उलगुलान! उलगुलान!! उलगुलान!!!—-

अमरदीप यादव

आदिवासी साहित्यकार हरीराम मीणा बिरसा मुंडा की याद में लिखते हैं,


”मैं केवल देह नहीं मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूं पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं मैं भी मर नहीं सकता मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता।उलगुलान! उलगुलान!! उलगुलान!!!”

बीरसा मुंडा के उलगुलान का केंद्र छोटानागपुर का क्षेत्र था, इस क्षेत्र को मुंडा आदिवासियों ने ही अपने खून-पसीने से सींचकर आबाद किया था। इसलिए आदिवासियों ने जंगलों को भूमिमात्र नही बल्कि मातृभूमि की संज्ञा दी है। फिर भी उन्हें अंग्रेजों द्वारा जंगल व जमीन से बेदखल किया जा रहा था। छोटानागपुर में गांवों की परती जमीन को अंग्रेज सरकार ने भारतीय वन कानून 1878 के माध्यम से संरक्षित वन के दायरे में लाकर उसपर नियंत्रण कर लिया और जंगलों पर सरकारी कब्जा करके लकड़ी पर टैक्स लगा दिया गया। अंग्रेजी शासन के संरक्षण में महाजनों द्वारा आदिवासियों से लगान वसूला जाता, नही देने पर बदले में जमीन ले ली जाती, और जंगलों से भगाया जा रहा था।

वन कानून द्वारा पहली बार वन को तीन वर्गों- आरक्षित वन, ग्रामीण वन व संरक्षित वन में बांटा गया। इस कानून के दुष्परिणाम से आदिवासियों ने अपनी जमीन, घर संपत्ति, गाय-बैल-बकरी सब बिक गए। मुंडा सरदार न्यायालय की शरण में गए किन्तु वहाँ से भी उन्हें न्याय नहीं मिला।मुंडाओं ने उलगुलान का रास्ता चुना और सैंकड़ों बलिदान के बाद भी यह नही रुका। नई पीढ़ी के कंधों पर उलगुलान की जिम्मेदारी दी जाने लगी। इसी परंपरा को बढ़ाते हुए बिरसा मुंडा ने बगावत का बिगुल फूंका और ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ अर्थात ‘हमारा देश, हमारा राज’ का नारा दिया था। आंदोलन छोटानागपुर क्षेत्र के रांची, सिमडेगा, सिंहभूम, चक्रधरपुर तक फैल गया।

बिना किसी संगठित और केंद्रित संसाधन के अंग्रेजों के खिलाफ उलगुलान को सैंकड़ों सभाओं और नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से मिलों दूर तक फैलाने में बिरसा सफल रहे। उन्होंने परंपरागत वाद्य यंत्रों-बांसुरी, ढोल, मांदर, नगाड़े व संदेश पहुंचाने के अन्य प्रतीकों- आग जलाने, पेड़ के पत्ते-छाल को संकेतों के लिए भेजने आदि का उलगुलान विस्तार के लिए इस्तेमाल किया।अगस्त 1895 में वन सम्बंधी बकाये की माफी का उग्र आंदोलन चला और बिरसाइतों का संगठन जुझारू सेना की तरह मैदान में उतर गया।

लोग चाईबासा में सभा कर कर माफी की मांग की, अंग्रेज हुकूमत ने मांग को ठुकरा दिया। बिरसा ने भी ऐलान कर दिया – ‘यह अंग्रेजी सरकार जल्द खत्म होगी। अब जंगल-जमीन पर आदिवासियों का राज होगा।’9 अगस्त, 1895 को चलकद में पहली बार बिरसा को गिरफ्तार किया गया लेकिन अनुयायियों ने उन्हें छुड़ा लिया। इस घटना के बाद आंदोलन की दिशा ही बदल गयी। 16 अगस्त, 1895 को पुनः गिरफ्तार करने की योजना से आए पुलिस बल को उनके संगठन ने लगभग 900 की संख्या में घेर लिया और सशस्त्र बल को खदेड़ दिया।

24 अगस्त, 1895 को पुलिस अधीक्षक मेयर्स के नेतृत्व में पुलिस ने देर रात बिरसा को गिरफ्तार करके  रांची जेल ले लाया। सुबह होने तक गिरफ्तारी की खबर चारों तरफ फैल गयी। आदिवासियों ने बिरसाइतों के नेतृत्व में सरकार के खिलाफ आंदोलन उग्र हो गया। भयवश अंग्रेजों ने बिरसा पर कानूनी कार्यवाही चलाने का स्थान बदल कर रांची से खूंटी किया लेकिन इस निर्णय से शासन को लाभ नही हुआ। खूंटी में बिरसा के दर्शनार्थ हज़ारों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। ज्यादा भीड़ के कारण मुकदमे की कार्यवाही बीच में रोक कर बिरसा को तुरंत जेल भेज दिया गया। उनके 15 सहयोगियों के साथ सभी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 505 के तहत मुकदमा चला और 50 रुपया जुर्माना सहित सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई।

1897 में बिरसा सजा पूरी होने के कुछ दिनों पूर्व 30 नवंबर 1897 को रिहा हुए। 1897 में छोटानागपुर भीषण अकाल पड़ा और चेचक और प्लेग महामारी का प्रकोप फैला।लेकिन इस दौरान भी उन्होंने अपने वैद्य गुणों से मरीजों की सेवा, जागरूकता और आंदोलन जारी रखा। अंग्रेजों के खिलाफ लगातार विद्रोह चलाने के आरोप में उन्हें 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर से गिरफ्तार कर रांची जेल लाया गया। शारीरिक शैष्ठव से मजबूत नौजवान की जेल जाने के मात्र 120 दिनों बाद ही 9 जून 1900 को बीमारी से मौत की घोषणा अंग्रेजों के षड़यंत्र को सिद्ध करता है। उनकी मौत की खबर आज भी विष्मयकारी, अविश्वसनीय और स्तब्धकारी ही माना जाता है।ऐसे में कवि भुजंग मेश्राम की पंक्तियां याद आती हैं :’
‘बिरसा तुम्हें कहीं से भी आना होगाघास काटती दराती हो या लकड़ी काटती कुल्हाड़ीयहां-वहां से, पूरब-पश्चिम, उत्तर दक्षिण सेकहीं से भी आ मेरे बिरसाखेतों की बयार बनकरलोग तेरी बाट जोहते।

(लेखक भाजपा ओबीसी मोर्चा झारखंड प्रदेश अध्यक्ष है। लेखक के विचार निजी हैं। इससे जनलेख का कोई लेना-देना नहीं है।)

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