शादाब सलीम
विधानसभाओं और पार्लियामेंट में चुनाव जीतकर आए सदस्य शपथ लेते हैं। शपथ ऐसी है जैसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से शपथ दिलवायी जा रही है जो अंग्रेजों से देश जीतकर लाए हैं। उक्त शपथ के शब्द ऐसे रिच और प्रीमियम हैं जिन्हें बेचारा आम आदमी पढ़कर ही चकरा जाए। वह शपथ ऐसी होती है- ‘ईश्वर की शपथ लेता हूँ ध् सत्य निष्ठापूर्वक प्रतिज्ञान करता हूँ कि मैं विधि द्वारा यथा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा और मैं भारत की संप्रभुता और अखण्डता को अक्षुण्ण रखूँगा।’
राजस्थान की विधानसभा में एक विधायक ने अपने इष्ट के नाम पर शपथ ली तो माननीय स्पीकर महोदय ने उसे रोक दिया और कहा ईश्वर ही बोले जबकि उसका इष्ट कोई अन्य था। कई लोग तो अपने पति या अपनी पत्नियों को ही अपना इष्ट मानते हैं, कई अपने माता पिता को इष्ट बना चुके हैं। सभी के इष्ट अलग अलग हैं।
पहले तो यह शपथ लेने वाले एक दम फर्जी है। जरा शपथ के शब्द पढ़िए- ष्संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठाष् जबकि शपथ लेने वाला अपने वोटर्स से यह शपथ लेकर आया है कि निश्चिंत रहिए, मैं संविधान बदलूंगा। इस शपथ को लेने वाला कोई भी आदमी शायद ही इंसानों को इंसान समझता हो। ऐसे ऐसे इस शपथ को लेते हैं जो आंखों से काजल निकाल ले जाए और कानों कान खबर न होने दे। मेरे देखें एक ऐसे बदमाश ने चुनाव जीता था जिसने अपने घर लगे अमरूद के पेड़ से अमरूद चोरी करते बच्चें को पेड़ हिलाकर नीचे गिरा दिया था। ऐसे ऐसे जो पड़ोसी का बैल अपने यहाँ बांध लें और पड़ोसी जब मांगने जाए तो लठ लेकर लड़ने लगे।
इस शपथ के दूसरे शब्द हैं- संप्रभुता और अखंडता। हालांकि देश को तो हर व्यक्ति संप्रभु रखना चाहता है और अखंडता को भी। देश संप्रभु और अखंड रहेगा तब ही तो यह नेताजी हो पाएंगे लेकिन संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा वाली बात कोरी लफ्फाजी है, जाति पाति के सारे दांव खेलकर आदमी वहां पहुंचता है, दंगा दबोची करके नेता वहां पहुंचता है फिर आदर्शों की शपथ लेता है। पहुंचने के बाद भी कोई कोई सुधरता नहीं है. वहां पहुंच कर तो अच्छे अच्छे मदहोश हो जाते हैं , जैसे प्रेमचंद कहते हैं कि नशा मदिरा में नहीं होता अपितु नशा तो मदिरालय के माहौल में होता है. वहां कोई झूमता है, कोई नाचता है, कोई गाता है और कोई गिरता है इसलिए आदमी मदिरालय में पहुंच कर ही मदहोश हो जाता है। मदहोशी के लिए शराब पीने की आवश्यकता नहीं है। अच्छे अच्छे क्रांति कर विधानमण्डल में पहुंचते हैं और पहुंचते से मदहोश हो जाते हैं, विधानमण्डल के वातावरण में अच्छे अच्छे पत्थरों के रंग बदल जाते हैं, वहां कई क्रांतियां चूल्हे की भाड़ में जाती है इसलिए कहा जाता है नेताओं के भरोसे कोई क्रांति मत करना. अब नेताओं के भरोसे क्रांति नहीं आती।
बहरहाल, फिर हर शपथ में रटा हुआ पर्चा है, हर आदमी को ईश्वर बोलना है, अब कोई ईश्वर पर भरोसा नहीं रखे तो भी उसे ईश्वर बोलना है। पता नहीं जावेद अख्तर ने कौन से ईश्वर की शपथ ली होगी। इतिहास साक्षी है हर झूठे आदमी ने कसम खाई है। यह तमाशा बरसों से होता आ रहा है और बरसों होता रहेगा।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)