बांग्लादेश की प्रतिक्रांतिर : आजादी के नाम पर ये क्या हो रहा है?

बांग्लादेश की प्रतिक्रांतिर : आजादी के नाम पर ये क्या हो रहा है?

स्वतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश के निर्माता बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की प्रतिमा को जब ढाका में 6 अगस्त 2024 को बहुत ही अपमानजनक ढंग से गिराया जा रहा था तो दुनियाभर के स्वतंत्रता और लोकतंत्रकामियों को फ्रांस की क्रांति की एक प्रमुख नेता मदाम रोलां का वह अंतिम और युगान्तरकारी कथन याद आ रहा होगा जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘‘हे आजादी, तेरे नाम पर क्या अपराध हो रहे हैं’’।

स्वयं एक क्रांतिकारी रही मदाम रोलां को उन्हीं के क्रांतिकारी जिरौंदिन्स साथियों ने 8 नवम्बर 1793 को गिलोटिन पर चढ़ा कर मार डाला था। प्रतिक्रांति के उस दौर में मदाम रोलां जेसे कई क्रांतिकारियों को फ्रांस की क्रांति के उग्रपंथियों ने गिलोटिन पर चढ़ा कर मार डाला था। दुनियां का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने तथा अपनी महान संस्कृति के चलते भारत की तुलना फ्रांस और बाग्लादेश की क्रांतियों से तो हूबहू नहीं की जा सकती फिर भी वैचारिक रूप से नेहरू जैसे भारत की आजादी के दीवानों को लेकर भारत में भी वैचारिक प्रतिक्रांति ही हो रही है। आधुनिक भारत के शिल्पी को खलनायक के तौर पर प्रचारित करने का प्रयास किया जा रहा है।

देखा जाय तो बांग्लादेश में ताजा राजनीतिक घटनाक्रम, विशेष रूप से विभिन्न गुटों के बीच आंतरिक सत्ता संघर्ष और फ्रांसीसी क्रांति के बाद की घटनाओं में पूर्णतः समानतायें तो नहीं हैं मगर कुछ समानताएं अवश्य हैं। मसलन फ्रांस की क्रांति के बाद के हालात की तरह, बांग्लादेश में भी विभिन्न गुटों के बीच राजनीतिक अशांति और सत्ता संघर्ष चलता रहा है। बाग्लादेश के 1971 के मुक्ति संग्राम और उसके बाद उग्र और हिंसक नेतृत्व परिवर्तन के संघर्ष में राष्ट्र निर्माता मुजीबुर्रहमान की सपरिवार हत्या और सत्ता संघर्ष का दौर चला जो कभी-कभी फ्रांसीसी क्रांति और उसके बाद देखी गई अंदरूनी लड़ाई से मिलते जुलते हैं।

फ्रांसीसी क्रांति के बाद विचारधारा में आमूलचूल परिवर्तन और राज्य के कथित दुश्मनों के बाद के शुद्धिकरण के नाम पर दमन का दौर चला। उसी प्रकार बांग्लादेश में भी राजनीतिक नेता और दल तथा फौज कई बार सत्ता के लिए तीर्ब्र संघर्ष में लगे रहे जिसके कारण सत्ताधरियों पर भ्रष्टाचार, अधिनायकवाद और असहमति के दमन के आरोप लगे। निसंदेह आजादी के बाद बाग्लादेश में भी राजनीतिक प्रतिद्वन्दियों के दमन की प्रवृत्ति रही है। सत्ताच्युत शेख हसीना पर भी निरन्तर सत्ता के दुरुपयोग और अधिनायकवाद के आरोप लगते रहे हैं। इसीलिये आज बांग्लादेश में दूसरी आजादी का नारा गूंज रहा है लेकिन सवाल उठता है कि क्या पहली आजादी जो 1971 में मिली, वह किसी काम की नहीं थी। आज के घटनाक्रम से तो यही लगता है।

फ्रांसीसी क्रांति के बाद की अवधि की तरह बांग्लादेश में हाल की राजनीतिक घटनाओं ने भी समाज पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है जिसमें राजनीतिक ध्रुवीकरण और सामाजिक अशांति शामिल है। दोनों मामलों में, प्रारंभिक क्रांतिकारी आंदोलनों के आदर्शवादी लक्ष्य कभी-कभी सत्ता बनाए रखने की जटिलताओं और संघर्षों से प्रभावित हुए हैं। इन समानताओं के बावजूद फ्रांसीसी क्रांति एक गहन और दूरगामी उथल-पुथल थी जिसने नाटकीय रूप से फ्रांस की संपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक संरचना को नया रूप दिया और इसके व्यापक अंतर्राष्ट्रीय निहितार्थ थे जबकि बांग्लादेश में जो कुछ हुआ या अभी तक हो रहा है, वह जनक्रांति से ज्यादा भीड़ क्रांति नजर आ रही है। भीड़क्रांति इसलिये कि भीड़ का कोई चरित्र और नेता नहीं होता है, इसलिये वह अराजक होती है, जैसा कि बांग्लादेश में नजर आ रहा है। क्रांति सत्ता पलटने के लिये हुआ करती हैं न कि लूटमार करने के लिये। बांग्ला देश में प्रधानमंत्री निवास पर हुयी लूट सबने देखी। बेगुनाह हिन्दुओं को मारने और उनकी सम्पत्तियों को आग के हवाले किये जाने को आप कैसे आजादी की दूसरी लड़ाई मानेंगे?

शेख हसीना को अपनी जान बचाने के लिये उस देश से भागना पड़ा जिस देश को उनके पिता ने जन्म दिया और जिस देश पर उन्होंने इतने सालों तक एकछत्र राज किया। चलो माना कि शेख हसीना को उनके कुशासन की सजा मिली। शेख मुजीब पर भी एक पार्टी शासन और अधिनायकवाद का आरोप लगता था। शायद इसीलिये सैनिक विद्रोह में उनकी सपरिवार हत्या हो गयी लेकिन एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के निर्माता और बांग्लादेश की आजादी के इतिहास की गवाह के रूप में ढाका के तोशखाना में मुजीब की विशालकाय प्रतिमा अब तक सैन्य विद्रोह और सत्ता परिवर्तनों के बावजूद खड़ी थी। आखिर बांग्लादेश की आजादी की इस धरोहर को क्यों मिटा दिया गया? यही नहीं, आजादी का संग्रहालय भी जला दिया गया। क्या बांग्लादेश के लोग सचमुच अपनी आजादी का इतिहास भुलाना चाहते हैं? लगता नहीं कि वह राष्ट्र इतना कृतघ्न होगा जो कि पाकिस्तान के दमन, अत्याचार और शेख मुजीबुर्रहमान के आवाहन पर मुक्तिवाहिनी के स्वाधीनता संघर्ष को भूल जाय। दरअसल भूल जाने और लोगों को भूलने पर विवश करने की आदत सत्ताकामी राजनीतिज्ञों और स्वार्थी तत्वों की होती है।

जिन शेख मुजीबुर्रहमान की प्रतिमा को अपमानजनक ढंग से गिराया गया, उनका योगदान बांग्लादेश के जन्म और उसके नव निर्माण में असाधारण रहा। यह देश उन्हीं की देन है, उनके लम्बे संघर्ष का प्रतिफल है। सन् 1966 में शेख मुजीब ने छह सूत्री आंदोलन शुरू किया जिसमें पाकिस्तान के भीतर पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग की गई थी। यह योजना बंगाली राष्ट्रवादी आंदोलन की आधारशिला बन गई और स्वायत्तता के लिए समर्थन जुटाने में सहायक रही। शेख मुजीबुर रहमान को अपनी राजनीतिक सक्रियता और अपने देश की आजादी की खातिर कई बार गिरफ्तारियों और कारावास का सामना करना पड़ा। उन्हें अयूब खान के शासन में और फिर 1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सरकार द्वारा हिरासत में लिया गया था। 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान शेख मुजीब को पाकिस्तानी अधिकारियों ने कैद कर लिया था। उस समय उन्हें जुल्फिकार अली भुट्टो की तरह मारा भी जा सकता था। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में बंगाली आबादी को एकजुट करने में उनका नेतृत्व और दूरदर्शिता महत्वपूर्ण थी। उन्हें स्वतंत्रता के संघर्ष के प्रतीक और राष्ट्र के शुरुआती विकास के प्रमुख वास्तुकार के रूप में याद किया जाता है।

जनवरी 1972 में अपनी रिहाई के बाद शेख मुजीबुर्रहमान स्वतंत्र बांग्लादेश के पहले राष्ट्रपति और बाद में इसके प्रधान मंत्री बने, जिन्होंने राष्ट्र निर्माण के शुरुआती वर्षों में इस नवजात राष्ट्र का मार्गदर्शन किया, विकास के ढांचे की बुनियाद रखी और उसे संवारा। उन्होंने बांग्लादेश के पहले संविधान का मसौदा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने इसके लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों की नींव रखी। शासन और राष्ट्रीय विकास के लिए रूपरेखा स्थापित करने में उनका नेतृत्व महत्वपूर्ण था। उनकी सरकार ने युद्धग्रस्त देश के पुनर्निर्माण और भूमि सुधार और शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में सुधार के प्रयासों सहित सामाजिक सुधारों को लागू करने पर ध्यान केंद्रित किया। एक सम्प्रभु राष्ट्र के निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बंगबंन्धु की प्रतिमा को जिस अनादर और नफरत के साथ जमींदोज किया गया उसे बांग्लादेश की आने वाली पीढ़ियां शायद ही सहन कर पायेंगी।

अगस्त का महीना भारत की आजादी का महीना है। इसी महीने 9 अगस्त को गांधी जी ने ‘‘मरो या करो’’ का नारा देकर ‘‘अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन’’ की शुरुआत की थी जिसमें लाखों लोगों ने गिरफ्तारियां दीं और ब्रिटिश राज का दमन सहा। उस हुकुमत ने कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया था। आजादी के आन्दोलन में ब्रिटिश हुकूमत ने कांग्रेस को तीन बार प्रतिबंधित किया। कांग्रेसियों में गांधी जी के बाद सबसे ज्यादा जेल जवाहर लाल नेहरू को हुयी थी। नेहरू निसन्देह आधुनिक भारत के निर्माता थे। फिर भी उन्हें सबसे बड़े खलनायक के तौर पर पेश किया जा रहा है। क्या यह वैचारिक प्रतिक्रांति या हिंसा नहीं?

(आलेख में व्यक्त चिंतन लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)

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