गौतम चौधरी
चुनावी मौसम चल रहा है। एक जून को अंतिम चरण का चुनाव होना है। देश के कई हिस्सों में अधिकतर स्थानों पर चुनाव हो भी चुके हैं। 2024 का संसदीय आम चुनाव अपने में कई विशेषता को समेटे हुए है। ऐसे में मुसलमानों को भी अपनी चुनौतियों को लेकर चुनाव से संबंधित एजेंडा तय करना चाहिए, जो पूरे चुनाव देखने को नहीं मिला। इस चुनाव में अधिकतर मुसलमान एक खास पार्टी के खिलाफ अपना एजेंडा सेट करते रहे हैं। इससे तो यही लगता है कि भारत के मुसलमान चुनाव को लेकर उतने संवेदनशील नहीं है, जितने अन्य समुदाय के लोग हैं।
राजनीतिक दल चुनावी अभियानों में मतदाताओं के व्यवहार और विचार को प्रभावित करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। सतही तौर पर देखें तो पिछले कई अन्य चुनाव की तरह इस चुनाव में भी भारतीय राजनीति अक्सर बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक बहस से प्रभावित है। चुनाव प्रचार का रंग भी सांप्रदायिक हो रखा है। इसमें गौर करने वाली बात यह है कि नफरत से प्रेरित लोग अक्सर इन विभाजनकारी आख्यानों में फंस जाते हैं लेकिन समझदार हमेशा ऐसी खोखली बयानबाजी के पीछे की मूर्खताओं को जानते हैं। इसलिए ऐसे मौकों पर अपनी चुनौतियों का सामना करने के लिए अपना एजेंडा तय करना चाहिए न कि नाहक के बहस में अपना समय खराब करना चाहिए।
राजनीतिक दलों से आश्वासन लेना और समाज की जरूरतों पर उनके साथ मोलभाव करना महत्वपूर्ण है, जिसके लिए चुनाव के समय प्रभावी अभिव्यक्ति और एजेंडा निर्धारण की आवश्यकता होती है। सच तो यह है कि किसी भी लोकतांत्रिक समाज का विकास तभी संभव होता है जब वह अपने आप को जागरूकता की कसौटी पर कसता है। इसके लिए उस समाज को चुनावी प्रक्रिया में तो भाग लेना ही चाहिए साथ ही अपने समुदाय के उन्नयन के लिए वास्तविक मुद्दों पर मतदान करने का अभियान भी चलाना चाहिए।
भारत के अल्पसंख्यक समुदाय के एक प्रमुख घटक मुसलमानों के लिए प्रमुख चिंताओं में से एक व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों स्तरों पर हाशिए पर रहने के साथ उनका पिछड़ापन है। इसे चुनाव अभियानों में एक मुद्दा बनाया जा सकता था लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है। उदाहरण के लिए, चुनावी मौसम के दौरान, मुस्लिम समुदाय उम्मीदवारों से अल्पसंख्यक समूहों की भलाई के उद्देश्य से स्पष्ट नीतियों और पहलों को स्पष्ट करने के लिए कह सकते हैं। मुस्लिम समुदाय को आर्थिक विकास और रोजगार के क्षेत्र में राजनीतिक नेताओं का समर्थन लेना चाहिए। शिक्षा और कौशल विकास, मुस्लिम समुदायों के लिए आर्थिक सशक्तिकरण के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है। शिक्षा के लिए संसाधनों का समर्पण, जैसे छात्रवृत्ति योजनाओं का प्रभावी और न्यायसंगत कार्यान्वयन और प्रशिक्षण पहल के लिए धन का आवंटन, अल्पसंख्यक केंद्रित संस्थानों की स्थापना, नौकरियों में आरक्षण या पसमांदा के लिए आरक्षण का विस्तार मुस्लिम समुदाय और राजनीतिक दलों के बीच सौदेबाजी का मसौदा हो सकता है। इस पूरे चुनाव ये तमाम मुद्दे गौन रहे।
इससे नियोक्ताओं की आवश्यकताओं और मुस्लिम समुदायों के भीतर नौकरी चाहने वालों की क्षमताओं के बीच अंतर को पाटने में मदद मिलती। आवश्यक योग्यता और अनुभव की कमी के कारण, कई मुसलमानों को अक्सर सुरक्षित, अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी नहीं मिल पाती है। इससे समुदाय के भीतर आर्थिक असुरक्षा और असमानता पैदा होती है। ऐसी नीतियों और पहलों की मांग बढ़ रही है, जो इन विसंगतियों से निपटें और मुसलमानों को नौकरी बाजार में उत्कृष्टता प्राप्त करने में मदद पहुंचा सकता है। शिक्षा और कौशल विकास में निवेश मुस्लिम समुदायों को आर्थिक सफलता और स्थिरता प्राप्त करने के लिए सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह उनकी रोजगार क्षमता में सुधार करने और बेहतर आर्थिक स्थिति में ले जाने में मदद करेगा। मुस्लिम उद्यमी और व्यवसाय के मालिक भी अपने व्यवसाय को स्थापित करने और विस्तारित करने के लिए संसाधन और धन प्राप्त करने में सहायता की तलाश में रहते हैं, जिससे समग्र आर्थिक प्रगति और कल्याण में योगदान मिलता है। राजनीतिक नेताओं के सहयोग से मुस्लिम समुदाय उन नीतियों की वकालत कर सकते हैं, जो आर्थिक विकास को बढ़ावा देने में उपयोगी होगा लेकिन इस प्रकार की बातें कहीं सुनने देखने को नहीं मिल रही है। मुस्लिम समाज का एक मात्र एजेंडा होता है भाजपा हराओ। इससे मुसलमानों का कल्याण होना नहीं है। इससे अन्य पार्टियां केवल मुसलमानों से फायदा उठाती है उन्हें कुछ भी देने से हिचकती है।
समुदायों के भीतर प्राकृतिक रूप से नेताओं का उभरना और इन मुद्दों से निपटने के लिए राजनीतिक दलों के साथ सहयोग करना और एक अधिक समावेशी समाज के लिए प्रयास करना महत्वपूर्ण है। यह भारतीय मुसलमानों के बीच प्रचलित राष्ट्रवादी उत्साह को एक नयी पहचान देगा। जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होने के बावजूद, मुसलमान अक्सर खुद को हाशिए पर पाते हैं और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनका प्रतिनिधित्व अपर्याप्त होता है। इस मुद्दे को हल करने के लिए, राजनीतिक दलों को भी सकारात्मक पहल करते हुए मुस्लिम नेताओं और प्रतिनिधियों के साथ सक्रिय रूप से जुड़ना चाहिए और उनके अंदर निर्णय की क्षमता का विकास करना चाहिए। केवल यह सुनिश्चित करके कि निर्णय लेने में भारतीय मुसलमानों की सार्थक भूमिका हो, हम वास्तव में अधिक समावेशी और प्रतिनिधि लोकतंत्र का निर्माण कर सकते हैं। यह याद रखने की जरूरत है कि विभाजनकारी और अलग-थलग करने वाले कृत्य न तो देश के लिए अच्छा है और न मुसलमानों के लिए बढ़िया है। इससे किसी का भला होना नहीं है। साथ ही किसी पार्टी के प्रति नकारात्मका रवैया भी ठीक नहीं है। मुसलमानों को इस पर विचार जरूर करना चाहिए।