गौतम चौधरी
भारतीय जनता पार्टी के लिए झारखंड बेहद महत्वपूर्ण प्रदेश रहा है। अविभाजित बिहार के समय में भी झारखंड वाले इलाके से बड़ी संख्या में भाजपा विधायक जीतकर आते थे। यही नहीं इस क्षेत्र से कई सांसद भी भाजपा की टिकट पर जीतते थे। धनबाद, जमशेदपुर, चाईबासा, रांची, हजारीबाग, पलामू और चतरा संसदीय क्षेत्र में या तो भाजपा जीतती थी या फिर दूसरे स्थान पर रहती थी। राज्य विभाजन के बाद यहां भाजपा की सरकार बनती रही है। 2015 से लेकर 2020 तक भाजपा की ही सरकार थी और उसके मुखिया रघुवर दास थे। झारखंड में भाजपा का संगठन भी बेहद मजबूत माना जाता है। यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी व्यापक आधार है। वनवासी क्षेत्रों में काम करने वाली संघ की कई संस्थाएं यहां बड़े पैमाने पर अपना विस्तार कर रखी है, बावजूद इसके भाजपा फिलहाल यहां बेहद कठिन दौर से गुजर रही है।
2020 विधानसभा चुनाव हारने के बाद भाजपा झारखंड में होने वाले तीन उपचुनाव हार चुकी है। यही नहीं कई मामलों को लेकर भाजपा नेतृत्व ने हेमंत सरकार के खिलाफ आन्दोलन करने की कोशिश तो की लेकिन सफलता प्राप्त नहीं कर पा रही है। समाचार माध्यमों की खबरों के अनुसार बालू, खदान, पर्यावरण, भ्रष्टाचार के मामलों में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली सरकार जबरदस्त तरीके से बदनाम हो रही है। विकास के मानकों पर झारखंड लगातार पिछड़ती जा रही है। कोविड काल में भी सरकार की बदइंतजामी के कारण हजारों लोगों की जाने गयी है लेकिन मुख्य प्रतिपक्ष होने के बाद भी भाजपा सरकार को घेरने में नाकाम साबित हुई।
इस दौर में दो ऐसे मामले आए हैं, जिसमें सरकार ने भाजपा के दो नेताओं को नीचा दिखाया और भाजपा बैकफुट पर पड़ी रही। पहला मौका प्रतिपक्ष के नेता की मान्यता का है। इस मामले में भाजपा ने झारखंड विकास मोर्चा से भाजपा में शामिल हुई बाबूलाल मरांडी को अपने विधायक दल का नेता चुना लेकिन उन्हें प्रतिपक्ष के नेता की मान्यता नहीं मिली। मामला अभी भी कानूनी दाव-पेंच फंसा है। इस मामले में निस्संदेह रूप से भाजपा के अंदर शीर्ष नेताओं के बीच अहम और व्यक्तित्व की टकराहट मुख्य कारण है। चूंकि रघुवर दास अभी हाल ही में मुख्यमंत्री पद से हटे हैं और वे आने वाले समय में भी खुद की अहमियत बनाए रखना चाहते हैं। यदि बाबूलाल प्रतिपक्ष के नेता हो जाते हैं तो भाजपा में मुख्यमंत्री के दावेदार वही होंगे। यह न तो रघुवर दास को पसंद होगा और न ही अर्जुन मुंडा को। यही कारण है कि प्रतिपक्ष के नेता को लेकर भाजपा अपनी पूरी ताकत के साथ सत्ता पक्ष के खिलाफ मोर्चा खोलने में असहज महसूस कर रही है।
दूसरा मौका अभी-अभी सामने आया। हेमंत के नेतृत्व वाली सरकार ने राज्यसभा चुनाव के दौरान विधायकों के कथित खरीद-फरोख्त के मामले में जांच की गति तेज कर दी है। यही नहीं पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास और उनके कई पूर्व सहयोगियों पर जांच की तलवार लटक रही है। इस मामले को लेकर प्रदेश भाजपा ने सरकार की आलोचना तो की लेकिन जिस प्रकार का आन्दोलन खड़ा होना चाहिए वह नहीं कर पा रही है। उलट सत्ता पक्ष विभिन्न माध्यमों से यह प्रचारित कर रही है कि इस मामले के प्रथम सूचक खुद भाजपा नेता बाबूलाल मरांडी ही हैं। यदि बाबूलाल मरांडी कंप्लेन वापस ले लेते हैं तो सरकार भी इस मामले को लेकर विचार करेगी।
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपनी दो शातिराना चाल के माध्यम से भाजपा के दो वरिष्ट नेताओं को आमने-सामने लाकर खड़ा कर दिया है। अब भाजपा खुद यह तय नहीं कर पा रही है की इस मामले से कैसे निवटा जाए। इधर जब से दीपक प्रकाश अध्यक्ष की भूमिका में आए हैं तब से लगातार प्रेस ब्रिफिंग के माध्यम से मीडिया में तो बने हैं लेकिन सांगठन धीरे-धीरे कमजोर हो रही है। इसका जीता-जागता उदाहरण प्रदेश में हुए तीन विधानसभा का उपचुनाव है। हालांकि तीनों विधानसभा की सीटें सत्ता पक्ष के द्वारा ही खाली की गयी थी लेकिन भाजपा को पूरी उम्मीद थी कि तीनों में से कम से कम एक पर विजय वह प्राप्त कर लेगी लेकिन उम्मीद पूरी नहीं हो पायी। बड़ी चालाकी से हेमंत अपने समर्थकों एवं मतदाताओं को यह समझाने में कामयाब हो गए कि भाजपा को एक आदिवासी मुख्यमंत्री पसंद नहीं है और वह चुनी हुई सरकार को गैरकानूनी तरीके से अपदस्त करना चाहती है।
हालांकि प्रदेश के संगठन महामंत्री धर्मपाल सिंह झारखंड भाजपा के अंतरकलह को दूर कर, पार्टी को फिर से मजबूत आधार प्रदान करने में लगे हैं लेकिन इनके किए कराए पर अध्यक्ष दीपक प्रकाश का बडबोलापन ज्यादा प्रभावशाली साबित हो रहा है। झारखंड भाजपा को पिछड़ी जाति की राजनीति से भी बहुत घाटा हो रहा है। इसके कारण उच्च वर्ग के वोटरों में भाजपा के प्रति अविश्वास का भाव पनपने लगा है। प्रदेश नेतृत्व ने चुन-चुन कर अपर कास्ट के नेताओं को किनारा कर दिया है। सांसद सुनिल सिंह, पूर्व सांसद रविन्द्र पांडेय, यदुनाथ पांडेय, सरयू राय, रविन्द्र राय, यशवंत सिंहा, जयंत सिंहा, अनंत ओझा, गणेश मिश्रा, पशुपति सिंह आदि उच्च वर्ग के नेताओं को प्रदेश भाजपा ने हाशिए पर तो ढ़केल दिया लेकिन इन नेताओं के स्थान पर किसी को खड़ा करने में नाकाम रही है। इसके कारण झारखंड में ब्राहमण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ भाजपा से कटे तो नहीं है लेकिन ससंकित जरूर हैं। शहरी मतदाताओं में व्यापारियों की संख्या ज्यादा है। व्यापारियों में भी भाजपा के प्रति नाराजगी दिखने लगी है। दूसरी ओर पिछड़ी जाति का वोट बैंक तो झारखंड में है लेकिन जिस गति से ये जातियां भाजपा के प्रति आकर्षित होनी चाहिए वह नहीं हो पा रही है।
आदिवासी मतदाता पिछले विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को अपना मंतव्य बता चुकी है। चुनाव में कुल 28 जनजातीय आरक्षित सीटों में से भाजपा को मात्र दो सीटें मिली। इधर झारखंड मुक्ति मोर्चा संथाल क्षेत्र से बाहर निकल कर पूरे प्रदेश में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगी है। उत्तरी छोटानागपुर, दक्षिणी छोटानागपुर, पलामू एवं कोल्हान में झामुमो का कोई वजूद नहीं था लेकिन इस बार हेमंत के नेतृत्व में पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया है। संथाल के साथ ही साथ अब उरांव, मुंडा, हो आदि जनजातियों में भी हेमंत सोरेन की स्वीकार्यता बढ़ रही है। यदि यही गति रही तो हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झामुमो झारखंड की बड़ी क्षेत्रीय पार्टी के रूप में उभरेगी और तब भाजपा पर भारी पड़ेगी।
फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि भाजपा लाख कोशिश के बाद भी हेमंत की सरकार को नहीं घेर पा रही है। इसके लिए पार्टी के अंदर जो अहम की टकराहट है वह जिम्मेदार है। साथ ही पार्टी नेताओं के बीच जो शीत युद्ध चल रहा है उसके कारण भी झारखंड भाजपा को हानि हो रही है। इसे जितनी जल्द हो सके ठीक किया जाना चाहिए अन्यथा देर होने पर कई बातें हाथ से फिसल जाएगी तब संभलने का मौका भी नहीं मिल पाएगा।