गौतम चौधरी
आज से लगभग दो सदी पहले की बात है। उन दिनों पहाड़ में किसी प्रकार का कोई राजनीतिक प्रतिबंध नहीं लगा था। न ही वहां किसी प्रकार का कोई राजनीतिक व प्रशासनिक सीमांकण हो पाया था। उन दिनों भारत पर कंपनी राज था, यानी इस्ट इंडिया कंपनी का भारत पर प्रशासनिक और राजनीतिक नियंत्रण था। उसी कंपनी का एक अंग्रेज अधिकारी पिथौरागढ़ की सुदूर पूर्व दारमा घाटी में अपने तमाम लाव लस्कर के साथ भ्रमण कर रहा था। वह अधिकारी धारचूला से लगभग 10 मिल की यात्रा पूरी कर पहले तवाघाट पहुंचा। फिर अंग्रेज अधिकारी का सरकारी काफिला दारमा घाटी के अंतिम तीन गांव में सबसे पहले दांतू पहुंचा, वहां उन्होंने देखा कि न्योला नदी और धौलीगंगा के संगम पर कई बोरों में रूपया पैसा भर कर रखा हुआ है। नदी किनारे एक स्थानीय अभिजात्य महिला अपने पुरोहितों के साथ पूजा अनुष्ठानों में व्यस्त है। पूजा अनुष्ठान समाप्त होते ही वो महिला रूपयों से भरे बोरे नदी में ड़ेलने लगी। ये देखकर उस अंग्रेज अधिकारी के होश उड़ गये। यह उसके जीवनी की पहली ऐसी घटना थी। उसने अपने मातहतों को आदेश दिया कि उस महिला के पास जाओ और इस हद तक के पागलपन का कारण पूछो। अंग्रेज अधिकारी के कुछ कर्मचारी महिला के पास पहुंचे और इस प्रकार के कृत्य का कारण पूछा। पता चला कि महिला अपने मृत पति के अंतिम संस्कार के बाद नदी में रूपया संपदा बहाकर परोपकार के वो तमाम धार्मिक अनुष्ठान कर रही है, जिसको करने से उसके मृत पति की आत्मा को शांति मिलेगी। जब उस अंग्रेज अधिकारी को उस महिला के बारे में पता चला तो वह एक बार फिर आश्चर्य में पड़ गया।
वो अंग्रेज अधिकारी तुरंत उस महिला के पास पहुंचा और बड़े सम्मान के साथ अपना सिर झुकाया। उसने उस अभिजात्य स्थानीय महिला को समझाया कि अगर उसे दान करना ही है तो वो क्यों नहीं किसी निर्धन या जरूरतमंद को ये सब दान कर पुण्य कमाए। पहले तो उस अनपढ़ महिला को कुछ समझ नहीं आया और जब आया तो फिर उसने कालांतर में वो काम किया, जिसके लिये उसका नाम इतिहास में दर्ज हो गया। इतिहास में ये महिला कुमाऊं की सबसे दानवीर महिला की उपाधि से सम्मानित है। उस महान महिला का ना है जसुली देवी, जिसे इतिहास में दानवीर जसुली शौक्याणी के नाम से जाना जाता है।
जसुली देवी की शान शौकत और दानवीर होने की कहानी तब मुकम्मल तरीके से समझ आयेगी, जब आप ‘रं’ जनजाति के बारे में विस्तार से जानेंगे। पिथौरागढ़ के सबसे पूर्व में ऐसी घाटियां हैं, जहां के लोग सैकड़ों सालों से तिब्बत के साथ व्यापार करते आ रहे हैं। आजकल यह व्यापार बंद है। दारमा, व्यास, चौंदास और जौहार घाटी कभी इसी अंतर्राष्टीय व्यापार के चलते बहुत समृद्ध हुआ करती थी। ऐसी ही एक घाटी है दारमा, जिसके सबसे आखिरी गांव में मौजूद है गांव दांतू। जसुला देवी इसी गांव की रहने वाली थी। दरअसल, जसुली देवी, रं जनजाती से तालुख रखती थी। उत्तराखंड के ऐतिहासिक किताबों के अनुसार, जसुली देवी की अनुमानित जन्मतिथि 19 वीं सदी के पहले दशक की मानी जाती है।
जसुली अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान थी। जसुली देवी का विवाह व्यापारी जम्बू सिंह के साथ हुआ था। उनका एक बेटा बछुआ हुआ, जो जन्म से ही बोल पाने में असमर्थ था और जन्म के कुछ समय बाद ही उसकी मौत हो गई। बेटे की मौत के कुछ समय बाद पति जम्बू सिंह दताल भी चल बसे। उन दिनों जसुली देवी के परिवार की आर्थिक हालात पूरे इलाके में सबसे अच्छी थी। उधर, पति जम्बू सिंह मरने से पहले जसुली को उस धन दौलत के बारे में भी बता गये, जो उन्होंने खेतों में दबा कर रखी हुई थी। अनुमान है कि खेतों में ही दबी दौलत करोड़ों रूपयों के बराबर थी। धनी परिवार से होने की वजह से उनका सम्पूर्ण क्षेत्र में बड़ा रूतबा भी था।
जिस दिन जम्बू सिंह का अंतिम संस्कार होना था। उस दिन जसूली देवी ने अपने नौकर-चाकरों को आदेश दिया और कहा कि दांतू गांव से न्योला नदी के किनारे तक निगाल की एक चटाई बिछाई जाए। असल में ये वो वक्त था जब अमीर लोग गंगा में दान करने को पुण्य का काम मानते थे। लेकिन ये दान भी कुछ सिक्कों को नदी में बहा देने भर से होता था। क्योंकि लोगों के पास इससे ज्यादा दान करने के लिये होता भी नहीं था लेकिन जसुली देवी की बात कुछ और थी। उनके पास धन संपदा की कोई कमी नहीं थी और न ही उन्हें अब पति और बेटे की मौत के बाद कोई मोह रह गया था।
बहरहाल, जसुली देवी के आदेश के बाद नौकर तैयारियों में जुट गए। इसी दिन दारमां घाटी में कुछ अंग्रेज अधिकारियों का दौरा भी सुनिश्चित था जिनमें तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर हैनरी रैमजे भी शामिल थे। आसपास के गांव वालों को मालूम था कि जसुली देवी पति की मौत के बाद बचे हुए सारे धन को नदी में प्रवाहित करने वाली हैं। ज़ाहिर तौर पर जो अंग्रेज अधिकारी वहां पहुंचे उन्हें भी ये बात मालूम हो गई और ये सब सुनकर हैरत में पड़ गए। ऐसे में अंग्रेज अधिकारियों ने जसुली देवी से मिलने की इच्छा जा़हिर की।
जसुली देवी इस वक्त तक नदी के किनारे पहुंच चुकी थी और सोने-चांदी के सिक्के बहाने लगी थी। कुछ बोरों में भरे सिक्के नदी के प्रवाह में बह भी चुके थे। अंग्रेज अधिकारी तुरन्त वहां पहुंचे और जसुली देवी को आग्रह के साथ रोक लिया। अंग्रेज अधिकारी, जसुली देवी से मिले तो उन्होंने जसुली को समझाया कि इस तरह इतने सारे धन को नदी में बहा देना व्यर्थ है। ये कोई दान नहीं है। असल दान तब होगा जब आप इस धन को बहाने की बजाय आसपास के क्षेत्र में धर्मशालाएं, सड़क, विद्यालय या अस्पताल बनवाएं, जो जनता के काम भी आएगा और जिससे आने वाली पीढ़ी आपको याद रखेगी। जसुली देवी, अंग्रेज अधिकारियों की बात ध्यान से सुन रही थी। वो उनकी बात से सहमत भी थी। जसूली देवी के पास मौजूद इतनी संपत्ति को देख अंग्रेज आश्चर्य में थे।
कालान्तर में जसुली देवी ने बचे हुए धन का उपयोग धर्मशालाएं बनाने में किया। नेपाल के डोटी और आवछाम में, साथ ही तिब्बत की कुछ मुख्य जगहों पर जसुली ने कम से कम 250 धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। कुछ लेखों के अनुसार जसुली देवी ने धारचूला से लेकर हल्द्वानी तक करीब 300 धर्मशालाएं बनवाईं। जसुली देवी ने नेपाल, तिब्बत और कुमाऊं क्षेत्र में कुल मिलाकर 500 से ज्यादा धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। इसके बाद भी जो कुछ धनराशि बच गई, उसे जसुली ने अल्मोड़ा बैंक में जमा कर दिया। कहा जाता है कि ये धनराशि अब भी बैंक में ही जमा है।
इस तरह से सैकड़ों धर्मशालाओं के निर्माण के बाद जसूली देवी, दानवीर जसुली देवी शौक्याणी के नाम से जानी जाने लगी। जसुली द्वारा निर्मित धर्मशालाएं कई स्थानों पर आज भी देखने को मिल जाते हैं। जसुली देवी द्वारा अधिकतर धर्मशालाएं उन मार्गों पर बनाई गई थीं जो भोटिया व्यापारियों की यात्रा का प्रमुख पड़ाव हुआ करता था।
जसुली देवी ने कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग पर भी कुछ धर्मशालाएं बनवाई थीं। इन धर्मशालाओं के बनने के करीब डेढ़ सौ साल बाद तक भी लोग इनका उपयोग करते रहे। वर्ष 1970 तक जब सड़कों की पहुंच गांव-गांव तक हो गई तब इनमें से अधिकतर धर्मशालाएं उपेक्षित हो गई।
बहरहाल, पिथौरागढ़ से धारचूला के बीच मौजूद एक जगह सतगढ़ में जसुली देवी द्वारा बनाई गई धर्मशालाएं अपने खंडहर रूप में अब भी दिखा जा सकता है। हालांकि कुछ जगहों जसुला देवी द्वारा बनवाए गए धर्मशालाओं की स्थिति को सुधारा गया है। अभी हाल ही में नैनीताल के सुयालबाड़ी क्षेत्र में जसुली देवी द्वारा बनाए गए धर्मशालाओं को नया स्वरूप दिया गया है। काकड़ी घाट में मौजूद धर्मशाला का भी जीर्णाेद्धार किया गया है।
जसुली देवी के गांव दांतु में उनका एक मंदिर भी बनाया गया है। रं कल्याण समिति लम्बे अरसे से इन धर्मशालाओं को पुरातत्व धरोहर घोषित करने की मांग करता रहा है। प्रदेश सरकार को भी ये सुनिश्चित करना चाहिए कि पहाड़ की ऐसी विरासतों को सहेज़ कर रखा जाए, ताकि भावी पीढ़ी अपने इतिहास और ऐतिहासिक शख्सियतों के बारे में जान सके।