हसन जमालपुरी
वहीद-उद-दीन खान को कौन नहीं जानता है। खान साहब महान भारतीय मुस्लिम चिंतक थे, जिन्होंने 200 से अधिक पुस्तकों की रचना की है। उनकी किताबों को दुनिया भर में सराहा जाता है। इस्लाम के शांतिपूर्ण और सह अस्तित्ववादी दृष्टिकोण के हिमायती खान साहब केवल भारत के ही नहीं अपितु पूरे इस्लामिक दुनिया के अग्रणी विद्वानों में से एक थे लेकिन उन्हीं के खानदान में नफरत के सिपहसालार पैदा होंगे, यह किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। खान साहब हमेशा समाज की भलाई के लिए काम किया। भारत में शांति और सद्भाव के दूत के रूप में उन्हें देखा जाता है। अपनी तकरीर, स्टेटमेंट और किताबों के लिए वे पहले से विख्यात थे लेकिन पहली बार तब सुर्खियों में आए जब उन्होंने विवादित बाबरी मस्जिद स्थल पर मुस्लिम समुदाय के दावों को त्यागने के लिए मुसलमानों का आह्वान किया। उन्होंने गांधीवादी सिद्धांतों को अपनाया और शांति के लिए जीवन भर अहिंसा के मार्ग पर चलते रहे। उन्हें देश में शांति और सद्भाव बनाए रखने में अपूर्व योगदान के लिए भारत सरकार ने पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया।
खान साहब के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। उन्होंने बहु-जातीय समाज में इस्लाम, भविष्य के ज्ञान, आध्यात्मिकता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर कई किताबें लिखी है। उन्होंने सदा शांति का समर्थन किया और दहशतगर्दी का विरोध किया। खान साहब ने न केवल राष्ट्रीय अपितु अंतर्राष्ट्रीय एकता को महत्व दिया। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जब पूरे देश में खूनी सांप्रदायिक दंगे हुए तो खान साहब सामने आए। उन्होंने देश में शांति और एकता की स्थापना के लिए मुंबई से नागपुर तक की शांति यात्रा आयोजित की और बड़े-बड़े सभाओं को संबोधित किया। उस दौरान मुंबई से नागपुर के बीच खान साहब कुल 35 सभाओं को संबोधित किया, जिसमें अलग-अलग समुदायों के लोगों ने हिस्सा लिया। इन सभाओं से उन्होंने शोहरत कमाई और गंगा-जमुनी तहजीब के सच्चे पहरूए के रूप में उभरकर सामने आए। उन्होंने विभिन्न सामाजिक मुद्दों के समाधान के शांतिपूर्ण साधनों का प्रचार करके इस्लाम को एक शांतिपूर्ण धर्म के रूप में पेश किया। खान साहब ने बहुत नाम कमाया लेकिन उनके चिंतन को खुद उनका बेटा, जफरुल इस्लाम खान ही ठेंगा दिखाने लगा है। जफरुल साहब अपने स्थान पर सही हो सकते हैं क्योंकि हर व्यक्ति अपने किए अच्छे बुरे कामों के लिए कोई न कोई तर्क ढुंढ ही लेता है लेकिन मौलाना वहीदुद्दीन साहब ने जिन मूल्यों के साथ जिया और जिन मूल्यों के लिए जीवन भर कट्टरपंथियों के निशाने पर रहे आज उन्हीं का बेटा मौकापरस्तों की गोद में जाकर बैठ गया है। ये सही नहीं है।
जफरुल इस्लाम खान साहब के कारनामों के बारे में भी जानना चाहिए। मसलन उन्होंने फेसबुक पर नफरत फैलाने वाले अभियान लॉन्च किए हैं। उन्होंने जिन शब्दों का प्रयोग सोशल मीडिया पर किया है उसकी चर्चा हम यहां नहीं कर सकते हैं। जफरुल साहब के पोस्टों से न केवल समुदायों के बीच नफरत बढ़ेगी बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को छवि धूमिल हो रही है। भारत में उपलब्ध उचित चैनल का उपयोग करने के बजाय, खान साहब ने भारतीय मुसलमानों के समर्थन के लिए कुवैत को धन्यवाद दिया और भारतीय मुसलमानों के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से समर्थन मांगने की धमकी भी दी है। इस कृत्य पर उनके खिलाफ दिल्ली पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धारा 124 के तहत देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया है।
मेरी दृष्टि में यह भी उचित नहीं है। जफरुल इस्लाम खान साहब हमारे हैं और इसी देश के हैं। उन्हें सही चैनल से समझाया जाना चाहिए था लेकिन सरकार तो सरकार होती है। उनके विचार उनके पिता से भिन्न हैं। अब उन्हें भारत में मुस्लिम जीवन के विभिन्न पहलुओं के बारे में कठोर राय रखने वाले कट्टरपंथी मुसलमान के रूप में माना जाने लगा है। अपने पिता की शिक्षाओं के विपरीत, जफरुल इस्लाम खान साहब ने घृणा फैलाने और समुदायों के बीच दुश्मनी पैदा करने वाले बयान देकर मौलाना वहीदुद्दीन खान साहब की आत्मा को ठेस पहुंचाई है। मौलाना वहीदुद्दीन खान शांतिपूर्ण दृष्टिकोण और संवाद में विश्वास करते है जबकि जफरुल इस्लाम खान कट्टरपंथी दृष्टिकोण को पसंद करते है।
मौलाना वहीदुद्दीन खान और उनके बेटे जफरुल इस्लाम खान की कहानी जीवन के एक बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू पर प्रकाश डालती है। चुनांचे एक व्यक्ति भले ही असाधारण समृद्ध अतीत वाले व्यक्ति की संतान क्यों न हो लेकिन अगर वह शांतिपूर्ण तरीके को त्याग कट्टरपंथी मानसिकता की पैरवी करने लगता है तो समझ लीजिए वह केवल अपना अहित ही नहीं कर रहा है अपितु अपने समुदाय का भी अहित कर रहा है। साथ ही अपने पूर्वजों के अपमान का वह उत्तरदायी है। जफरुल इस्लाम खान साहब खासकर आपको इस तरह पेश नहीं आना चाहिए। कम से कम आप अपना अतीत तो देख लिए होते।