कम्युनिस्ट आंदोलन के 100 साल/ उपलब्धियां, सीख और चुनौतियां

कम्युनिस्ट आंदोलन के 100 साल/ उपलब्धियां, सीख और चुनौतियां

भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन अब सौ साल पुराना हो चुका है. हालांकि कम्युनिस्ट पार्टी के वास्तविक स्थापना दिवस को लेकर अलग-अलग राय हैं, लेकिन सीपीआई और सीपीआई(एमएल) दोनों 26 दिसंबर 1925 को सीपीआई के औपचारिक स्थापना दिवस के रूप में मान्यता देते हैं. तथ्यों के अनुसार, 1920 का शुरुआती दशक वह समय था जब कम्युनिस्ट विचार और गतिविधियां भारत में आकार लेने लगी थीं, और इस प्रकार यह आंदोलन भारत में स्पष्ट रूप से सौ वर्षों का हो चुका है.

इस लेख का उद्देश्य हालांकि भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास को फिर से खंगालना नहीं है, बल्कि अतीत से प्रेरणा और सबक लेकर वर्तमान चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करना है. कम्युनिस्ट आंदोलन के पहले सौ वर्षों को मोटे तौर पर चार चरणों में बांटा जा सकता है – औपनिवेशिक काल, आजादी के बाद का काल जो आपातकाल और उसके बाद के समय तक जाता है, 1990 के दशक के बाद का नवउदारवादी नीतियों और हिंदुत्व के आक्रामक उभार का काल, और मौजूदा दौर का सीधा फासीवादी हमला.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस अवधि को इसी तरह के चरणों में बांटा जा सकता है. 1949 तक का दौर दुनिया भर में कम्युनिस्ट आंदोलन की उल्लेखनीय प्रगति, और इसके मजबूत होते जाने का गवाह रहा, जिसमें रूस (नवंबर 1917) और चीन (अक्टूबर 1949) में सफल क्रांतियां और द्वितीय विश्वयुद्ध में फासीवादी गठबंधन की निर्णायक राजनीतिक और सैन्य हार शामिल थीं. युद्ध के बाद का दौर क्यूबा की क्रांति (1959) और वियतनाम युद्ध (1975) में अमेरिकी साम्राज्यवाद की हार जैसे ऐतिहासिक क्षणों का गवाह रहा है.

सोवियत संघ के पतन ने शीत युद्ध युग का अंत कर दिया और दुनिया को साम्राज्यवादी हमले और कॉरपोरेट लूट के एक नए दौर में धकेल दिया. सोवियत संघ के पुराने देश और पूर्वी यूरोपीय कम्युनिस्ट देशों में कम्युनिस्ट आंदोलन अभी तक अपनी खोई हुई जमीन वापस नहीं पा सका है. हालांकि, इस दौरान इसने लैटिन अमेरिका और एशिया में अधिक अनुकूल माहौल खोजा है. दुनिया के बड़े हिस्सों में आज हम फासीवादी धुर-दक्षिणपंथ के नए उभार का सामना कर रहे हैं.

अपने शुरुआती वर्षों में भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन को प्रेरणा और ऊर्जा मुख्य रूप से रूसी क्रांति की सफलता और भारत के भीतर औपनिवेशिक शासन, सामंती उत्पीड़न और सामाजिक गुलामी से मुक्ति की गहरी चाहत से मिली. कम्युनिस्ट विचारधारा के औपचारिक दायरे से परे, रूसी क्रांति का प्रभाव भारत के उपनिवेश विरोधी जागरण और सामाजिक समानता व मुक्ति की खोज पर व्यापक रूप से पड़ा. भगत सिंह और उनके साथियों से लेकर नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर तक, और अंबेडकर से लेकर पेरियार तक, यह प्रभाव भारत के आजादी आंदोलन, सामाजिक न्याय आंदोलन, साहित्य और जन संस्कृति के अन्य पहलुओं में साफ देखा जा सकता है.

कुछ देशों में कम्युनिस्टों ने औपनिवेशिक संघर्षों के दौरान प्रमुख राजनीतिक ताकत के रूप में उभरने और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के एजेंडे को समाजवाद की ओर बढ़ने के लक्ष्य के साथ जोड़ने में सफलता पाई. भारत में, कम्युनिस्टों ने काफी प्रगति की, लेकिन प्रमुख धारा के रूप में उभरने में सफल नहीं हो सके. फिर भी, कम्युनिस्ट विचारधारा और आंदोलन का प्रेरक प्रभाव कम्युनिस्ट पार्टी की वास्तविक संगठनात्मक ताकत से कहीं अधिक था. भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े युवा प्रतीक, अमर शहीद भगत सिंह, कई मायनों में कम्युनिस्ट आंदोलन के अग्रदूत थे.

जमींदारी प्रथा के खिलाफ शक्तिशाली आंदोलनों को खड़ा करने, मजदूर वर्ग को संगठित करने, सामाजिक समानता और सांप्रदायिक सद्भाव के लिए संघर्ष में कम्युनिस्टों के नेतृत्व ने व्यापक प्रभाव डाला और स्वतंत्रता आंदोलन को एक प्रगतिशील दिशा दी.

औपनिवेशिक कब्जे से आजादी देश के बंटवारे के जख्म, अभूतपूर्व सांप्रदायिक हिंसा, और सीमापार लाखों परिवारों के विस्थापन की पीड़ा के साथ आई. इसके बावजूद, यह महत्वपूर्ण था कि भारत के संविधान, जो भारतीय इतिहास में इस दर्दनाक मोड़ के बाद लिखा और अपनाया गया था, भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के विचार को खारिज कर दिया और धार्मिक पहचान की परवाह किए बिना सभी नागरिकों के लिए समान अधिकारों के साथ नए गणराज्य के लिए एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक चरित्र का विकल्प चुना.

आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे संगठन जो हिंदू राष्ट्र चाहते थे, संविधान का कड़ा विरोध करते रहे लेकिन वे सफल नहीं हो पाए, और अलग-थलग पड़ कर कमजोर हो गए. 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 के बीच हुए पहले संसदीय चुनाव में, कम्युनिस्ट पार्टी 16 सांसदों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. आरएसपी, पीडब्ल्यूपी और फॉरवर्ड ब्लॉक के साथ मिलकर वामपंथी खेमे ने 22 सीटें जीतीं, जबकि समाजवादियों ने 12 सीटें हासिल कीं. इसके विपरीत, हिंदू महासभा और जनसंघ केवल 4 और 3 सीटें ही जीत सके थे.

भारत के चुनावी नक्शे पर कम्युनिस्टों की बढ़ती उपस्थिति ने पहली बार किसी गैर-कांग्रेसी पार्टी को राज्य सरकार का नेतृत्व करने का अवसर दिया, जब कामरेड ईएमएस नंबूदिरिपाद के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने नवगठित केरल राज्य के पहले विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की. हालांकि, इस सरकार को अपना कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया गया और यह विपक्षी सरकार गिराने के चलन का पहला शिकार बनी, जो आज मोदी युग में अभूतपूर्व स्तर तक पहुंच चुका है.

कम्युनिस्ट आंदोलन की क्रांतिकारी धारा ने तेभागा और तेलंगाना आंदोलनों की क्रांतिकारी चिंगारी को फिर से प्रज्वलित किया, और इसी तरह से मई 1967 में नक्सलबाड़ी विद्रोह का उभार हुआ, जिसके दो साल बाद सीपीआई(एमएल) का गठन हुआ. नक्सलबाड़ी का किसान आंदोलन देशभर में क्रांतिकारी राह दिखाते हुए फैल गया, और कठोर राज्य दमन के बावजूद इसकी क्रांतिकारी विरासत आज भी जिंदा है.

हालांकि यह सशस्त्र उभार 1970 के दशक को जनता की मुक्ति का दशक बनाने का अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर सका, लेकिन इसने कम्युनिस्ट आंदोलन को भारत के सबसे शोषित सामाजिक वर्गों और पिछड़े क्षेत्रों में राजनीतिक चेतना और सामाजिक जागरूकता को गहराई तक पहुंचा दिया.

चुनावी नजरिए से भी, कम्युनिस्ट प्रभाव का सबसे बड़ा विस्तार 1967 के बाद के दौर में हुआ, जब 1960 के दशक के अंत में कांग्रेस के पतन और विभाजन की शुरुआत हुई, और खासतौर से आपातकाल के बाद के दौर में. भूमि सुधार, मजदूरी संघर्ष, और स्थानीय स्वशासन के जरिए लोकतंत्र का विस्तार और जनवादीकरण ही वे प्रमुख आधार थे, जिन्होंने कम्युनिस्ट प्रभाव को मजबूत और स्थायी बनाया. इन्हीं के बल पर वामपंथी तीन राज्य सरकारों का नेतृत्व कर सके और दो दशक पहले संसद में 60 सांसदों का प्रभावशाली प्रतिनिधित्व दर्ज कर पाए.

पिछले डेढ़ दशक में भारत में वामपंथ की चुनावी ताकत में लगातार गंभीर गिरावट देखी गई है. पश्चिम बंगाल में यह गिरावट तब शुरू हुई जब कॉरपोरेट-प्रधान विकास मॉडल अपनाने की कोशिश में जन-कल्याणकारी एजेंडे की अनदेखी की गई. इसके परिणामस्वरूप राज्य में दक्षिणपंथी विचारधारा तेजी से पनपी और पूरे देश में फासीवादी ताकतों के उभार के साथ मजबूत होने लगी.

वास्तव में, भारत में फासीवाद का यह उभार न केवल कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए, बल्कि संविधान के धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक आदर्शों के लिए भी सबसे बड़ा खतरा बन गया है. ऐसे समय में, कम्युनिस्टों को लोकतंत्र के सशक्त हिमायती के रूप में अपनी भूमिका को फिर से स्थापित करना होगा और भारतीय फासीवाद के हमलों का डटकर संगठित प्रतिरोध करना होगा.

मैं ‘भारत में फासीवाद’ की बजाय ‘भारतीय फासीवाद’ शब्द का इस्तेमाल करना पसंद करता हूं ताकि आज के भारत में फासीवाद की राष्ट्रीय और ऐतिहासिक विशिष्टताओं को बेहतर तरीके से रेखांकित किया जा सके. इटली, स्पेन और जर्मनी में फासीवाद के शुरुआती दौर में, अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन ने इसे राष्ट्रीय विशिष्टताओं के साथ एक अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक प्रवृत्ति के रूप में सही ढंग से पहचाना था. आज ‘भारतीय फासीवाद’ का उभार वैश्विक स्तर पर धुर-दक्षिणपंथी ताकतों के आक्रामक उत्थान की पृष्ठभूमि में हो रहा है, लेकिन इसके विशिष्ट भारतीय पहलुओं, खास तौर से आरएसएस की ऐतिहासिक भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

बीसवीं सदी के पहले भाग में यूरोप में फासीवाद के जो रूप उभरे, उनका उत्थान और पतन अपेक्षाकृत तेज था. इसके विपरीत, ‘भारतीय फासीवाद’ का विकास धीमी और स्थिर गति से हुआ है, और विशेष रूप से 2014 में मोदी शासन के आगमन के बाद इसमें अधिक तेजी आई है. ‘भारतीय फासीवाद’ ने भारतीय समाज की श्रेणीबद्ध जाति व्यवस्था, पितृसत्तात्मक संरचनाओं और सामंती अवशेषों से भी अपनी ताकत जुटाई है, जिन्हें निर्णायक रूप से खत्म करना एक सफल जनतांत्रिक क्रांति के बिना असंभव था. इसके साथ ही, इसने संसदीय लोकतंत्र के संस्थागत ढांचे में गहरी पैठ बना ली है और भारत के क्रोनी पूंजीवाद के साथ एक मजबूत रिश्ता कायम कर लिया है.

यह अमेरिकी-इजरायली धुरी के साथ भारतीय राज्य की रणनीतिक साझेदारी, भारत के संसाधनों और बाजार के वैश्विक आकर्षण, और दुनिया भर में भारतीय मूल के लोगों के बढ़ते प्रभाव से और मजबूत हो रहा है. साथ ही, हिंदुत्व का जायोनिज्म के साथ वैचारिक मेल और दुनिया भर में धुर-दक्षिणपंथी विचारधाराओं के साथ बढ़ती साझेदारी भी इसे और ताकत दे रही है. ‘भारतीय फासीवाद’ आज दुनिया भर में उभर रहे एक नए किस्म के ‘राष्ट्रवादी संरक्षणवाद’ का हिस्सा बन चुका है, जो बेहद उग्र और धुर-दक्षिणपंथी है.

बढ़ते फासीवादी खतरे का सामना करने के लिए, कम्युनिस्ट आंदोलन को जाति उत्पीड़न और पितृसत्ता के खिलाफ अपने संघर्ष को तेज करना होगा और श्रमिक वर्ग की कॉरपोरेट-विरोधी लड़ाई को और भी मजबूत बनाना होगा. यह मानते हुए कि चुनावों के जरिए राज्य सत्ता पर काबिज फासीवादी शासन को आसानी से हटाना संभव नहीं है, फिर भी हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए कि चुनावी मोर्चे पर फासीवादी खेमे को कमजोर और अलग-थलग किया जाए, ताकि संविधान और गणराज्य को उनके चंगुल से बचाया जा सके.

इसके लिए संयुक्त मोर्चे की रणनीति को पूरी तरह अपनाना होगा. यह भी सुनिश्चित करना होगा कि फासीवादी शासन के खिलाफ सभी लोकतांत्रिक और प्रगतिशील ताकतों को व्यापक स्तर पर लामबंद किया जाए ताकि फासीवादियों के नफरत, झूठ और हिंसा के अभियान का डटकर मुकाबला किया जा सके और लोगों के अधिकारों और हितों की हिफाजत की जा सके.

भारत गणराज्य की 75वीं वर्षगांठ के करीब पहुंचते हुए, यह स्पष्ट दिख रहा है कि संविधान निर्माताओं ने हमें उन खतरों के प्रति सचेत किया था जो गणराज्य की यात्रा को बाधित या पटरी से उतार सकते हैं. संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को अपने ऐतिहासिक भाषण में चेताया था कि, ‘कोई भी संविधान, चाहे वह कितना भी उत्कृष्ट क्यों न हो, असफल हो सकता है यदि उसे चलाने वाले लोग सही न हों.’

आज हम ठीक उसी हालात का सामना कर रहे हैं. यह तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि आरएसएस, जो अपने शुरुआती वर्षों में संविधान और उसके मूलभूत विचारों का खुला विरोध करता था, आज राज्य सत्ता की बागडोर संभाल रहा है. इस विरोधाभास के परिणाम हमारे सामने हैं.

हमारे पास आज ऐसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं जो बहुसंख्यकवाद को ही कानून का रूप मानते हैं, ऐसे राज्यपाल हैं जो गैर-भाजपा सरकारों को बाधित और अस्थिर करने में खास तौर से सक्रिय रहते हैं, और ऐसे संसद सत्र हैं जो असहमति और बहस का गला घोंटने के लिए आयोजित होते हैं, ताकि संदिग्ध और असंवैधानिक कानूनों को जबरन पारित किया जा सके.

उसी संबोधन में, अंबेडकर ने राजनीति में भक्ति, यानी नायक-पूजा, को ‘पतन और अंततः तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता’ बताया था और राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र के साथ मजबूत करने की जरूरत पर बल दिया था. एक साल पहले, संविधान का मसौदा प्रस्तुत करते हुए, उन्होंने भारत में लोकतंत्र को ‘भारतीय मिट्टी पर एक ऊपरी परत के रूप में वर्णित किया था, जो मूलतः अलोकतांत्रिक है.’ उन्होंने संवैधानिक ‘ऊपरी परत’ को टिकाऊ बनाए रखने के लिए भारतीय समाज के लोकतांत्रिकरण का लक्ष्य निर्धारित किया था.

यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि संविधान ने पारंपरिक गांव समुदायों के आदर्शवादी विचार के बजाय व्यक्तिगत नागरिकों को गणराज्य के मूल घटक के रूप में मान्यता दी. साथ ही, विविधताओं से भरे ‘हम भारत के लोग’ को सामूहिक लोकतांत्रिक पहचान के रूप में प्राथमिकता दी गई, न कि इस भ्रम को बढ़ावा दिया गया कि भारत पहले से ही एक राष्ट्र बन चुका है. अंबेडकर ने स्पष्ट रूप से जाति को राष्ट्र-विरोधी सबसे बड़ी बाधा माना और स्वतंत्रता, समानता, और बंधुत्व की अविभाज्य त्रयी को सामाजिक लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता की आधारशिला के रूप में रेखांकित किया.

संविधान बहुसंख्यकवाद और अति-केंद्रित शासन के खतरों के प्रति पूरी तरह सतर्क था और इन विनाशकारी चुनौतियों के खिलाफ अल्पसंख्यकों के अधिकारों और संघीय हितों की रक्षा सुनिश्चित करने के प्रति सजग था. साथ ही, अंबेडकर की वह कड़ी चेतावनी भी याद रखना जरूरी है कि ‘हिंदू राज का हकीकत बन जाना भारत के लिए सबसे बड़ी विनाशकारी त्रासदी होगी,’ और इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए.

आज, कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने भारत को इन विनाशकारी परिस्थितियों से बाहर निकालने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी है. राज्य सत्ता के साधनों का दुरुपयोग करके रोजाना किए जा रहे विनाश का डटकर विरोध करना होगा, ताकि संकटग्रस्त गणराज्य को बचाया जा सके और लोकतंत्र की नींव को और मज़बूत किया जा सके. कम्युनिस्ट आंदोलन को इस चुनौती पर खड़ा उतरना होगा और समाज और राज्य के व्यापक लोकतंत्रिकरण के जरिए फासीवाद की निर्णायक हार सुनिश्चित करनी होगी.

भारत में कम्युनिस्टों के पास अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने खड़ी चुनौतियों का समाधान खोजने की भी जिम्मेदारी है. सोवियत संघ के पतन के बाद ऐसे कई सवाल बने हैं जो खास तौर से उन कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए प्रासंगिक हैं, जो सत्ता में हैं, चाहे वह क्रांति के बाद की स्थिति हो या अन्यथा. सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी जनता से कट गई और राज्य की प्रशासनिक प्रणाली में इतनी गहरे डूब गई कि सात दशकों में बिना किसी आंतरिक या बाहरी सैन्य हस्तक्षेप के ही पूरा ढांचा ढह गया.

आर्थिक ठहराव और विदेश नीति में विकृतियों के अलावा, अंदरूनी लोकतंत्र और गतिशीलता की कमी भी स्पष्ट रूप से थी, जिसके कारण पार्टी ने जनता का समर्थन खो दिया और यहां तक कि उसके शासन करने की वैधता भी खो गई. पार्टी और जनता के बीच संवाद का टूटना जनता, पार्टी और राज्य के बीच संतुलन को बिगाड़ता है.

सत्ता में बैठे कम्युनिस्टों को, चाहे जैसी भी परिस्थितियां हों, पूंजीवादी व्यवस्थाओं से बेहतर लोकतंत्र, पारदर्शिता और जवाबदेही प्रदान करनी होगी. यह एक महत्वपूर्ण सबक है जिसे दुनिया भर के कम्युनिस्टों को सोवियत संघ की विफलताओं से सीखना चाहिए.

समाजवादी मॉडलों ने हर जगह आय का समान वितरण, गरीबी और बेरोजगारी में कमी और श्रमिक वर्ग के जीवन और काम की परिस्थितियों में बुनियादी सुधार करने के मामले में अपनी पहचान बनाई है. लेकिन जब उत्पादन प्रक्रियाओं, मशीनों और प्रौद्योगिकी के उपयोग के साथ-साथ पर्यावरण क्षरण और मानव अलगाव पर इसके प्रतिकूल प्रभावों की बात आती है, तो मौजूदा समाजवादी मॉडल पूंजीवाद से बहुत अलग नहीं दिखाई देते.

आज, जब जलवायु संकट गहरा रहा है, पर्यावरण बिगड़ रहा है, और ऑटोमेशन के व्यापक उपयोग के कारण बेरोजगारी और छंटनी बढ़ रही है, ऐसे में समाजवादी मॉडलों को विनाशकारी पूंजीवाद से बेहतर एक नया रास्ता दिखाना होगा.

अंत में, मैं फिर से उस महत्वपूर्ण राष्ट्रीय संदर्भ पर लौटता हूं. इतिहास गवाह है कि आजादी के बाद के दशकों में भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन विभिन्न धाराओं और संगठनों में विभाजित हो गया था. आज, जब हमारा गणराज्य और संवैधानिक शासन अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है, कम्युनिस्टों को अत्यधिक जरूरी समझते हुए और अधिक एकजुट होना चाहिए. हमारी एकता जितनी मजबूत होगी, उतना ही मजबूत होगा फासीवाद विरोधी प्रतिरोध और उतना ही उज्जवल होगा भारत के लोकतंत्र का भविष्य. कम्युनिस्ट घोषणापत्र के शब्दों में कहें तो हमारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है, सिवाय फासीवाद की बेड़ियों के, जबकि स्वतंत्रता के वादे अभी भी पूरे किए जाने का इंतजार कर रहे हैं.

(यह आलेख लोकयुद्ध नामक पत्रिका से प्राप्त किया गया है। आलेख में व्यक्ति विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)

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