नवजोत नवी
इस वर्ष अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार (रिक्सबैंक पुरस्कार) जोइल मोकिर, फ़िलिप ऐगिऑन और पीटर होविट को दिया गया है। नोबल समिति के अनुसार, यह पुरस्कार उन्हें इस बात की व्याख्या करने के लिए दिया गया है कि तकनीकी बदलाव कैसे लगातार आर्थिक विकास को आगे बढ़ा सकता है। इन अर्थशास्त्रियों के तकनीकी बदलाव संबंधी सिद्धांतों और खोजों पर चर्चा करने से पहले कुछ बातें उस पृष्ठभूमि की करते हैं, जिसके कारण तकनीक, तकनीकी बदलाव पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बने हुए हैं।
पहला, पश्चिमी साम्राज्यवादी गुट, यानी संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो गुट के सदस्यों के लिए दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखने के लिए तकनीक का ज़्यादा से ज़्यादा विकास करना बेहद ज़रूरी होता जा रहा है। विरोधी चीन ने तकनीक के मामले में अमेरिका के अलावा नाटो गुट के अन्य देशों को कई क्षेत्रों में पीछे छोड़ दिया है और अमेरिका से भी कुछ क्षेत्रों में तकनीक के मामले में आगे निकल चुका है। यह स्वाभाविक है कि किसी देश का दूसरे देश से आगे निकलना मूल रूप से तकनीक पर निर्भर करता है। चीन के इस क्षेत्र में तीव्र गति से विकास ने पश्चिमी साम्राज्यवादियों के लिए काफ़ी समस्या खड़ी कर दी है, जिसके कारण तकनीक और तकनीकी विकास पश्चिमी शासकों के लिए काफ़ी अहम मामला बना हुआ है।
दूसरा बड़ा मामला हाल ही में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (ए.आई.) से संबंधित रहा है। किसी भी नई विकसित तकनीक की तरह, इसने मानवता के विकास को आगे बढ़ाया है, लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था (जहाँ उत्पादन का मुख्य उद्देश्य मुनाफ़ा होता है) के तहत, इस तकनीक द्वारा बेरोज़गार किए गए श्रमिकों (नई तकनीक जहाँ कुल मिलाकर रोज़गार बढ़ाती है, वहीं कुछ क्षेत्रों में श्रमिकों को बेरोज़गार भी करती है) को काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इसका कारण ए.आई. नहीं, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था है, जिसके अंतर्गत इन लोगों के लिए तत्काल विकल्प पैदा करना ज़रूरी नहीं है, बल्कि पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े को सुरक्षित करना ज़रूरी है। ए.आई. ने काफ़ी हद तक जिन कार्यों को प्रभावित किया है, वे तथाकथित बौद्धिक श्रमिकों के काम हैं दृ उदाहरण के लिए, अनुवाद, शिक्षा संबंधी सेवाएँ, कंप्यूटर से संबंधित कार्यों की गणनात्मक सीमा, विभिन्न प्रकार के संपादन कार्य, फ़िल्में, सीरीज़ आदि में सामान्य स्क्रिप्ट लेखन आदि। इसके कारण, समाज के बौद्धिक वर्ग का इस घटना पर काफ़ी ध्यान गया है और ए.आई. को एक डर के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
इसीलिए तकनीक और तकनीकी विकास इतने चर्चित विषय बने हुए हैं। अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार भी इस वर्ष इसीलिए इस विषय पर शोध करने वाले तीन अर्थशास्त्रियों को दिया गया है। आगे, तकनीकी विकास और तकनीक से संबंधित उनके विचारों की संक्षेप में चर्चा और समीक्षा करेंगे।
नोबल समिति के अनुसार, जोइल मोकिर को यह पुरस्कार इसलिए दिया गया है, क्योंकि उसने सतत आर्थिक विकास की बुनियादी शर्तों की पहचान की। मोकिर के अनुसार, औद्योगिक क्रांति तक दुनिया में आर्थिक विकास बहुत धीमी गति से होता रहा था और लंबे समय तक आर्थिक स्थिरता जैसी स्थितियाँ बनी रहती थीं। 18वीं सदी के उत्तरार्ध में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद ही यह संभव हो सका कि दुनिया ने तीव्र गति से आर्थिक विकास के दौर देखे। उसके अनुसार, आर्थिक विकास के स्रोत दो प्रकार के ज्ञान हैं दृ पहला, जो प्राकृतिक परिघटनाओं के पीछे के कारणों और कारकों को समझता है और उनकी व्याख्या करता है, और दूसरी क़िस्म उन चीज़ों से संबंधित है जो किसी वस्तु, उपकरण, मशीन आदि को कार्यात्मक और प्रभावी बनाने के लिए, लागू करने के लिए ज़रूरी हैं। मोकिर के अनुसार, विज्ञान और सैद्धांतिक ज्ञान का तीव्र गति से विकास औद्योगिक क्रांति के आस-पास ही हुआ और इसकी मुख्य वजह नए विचारों के प्रति सहनशीलता है। इन निष्कर्षों के आधार पर मोकिर कहता है कि आर्थिक विकास को बनाए रखने के लिए यह ज़रूरी है किरू
घटनाओं की वैज्ञानिक समझ हासिल की जाए।
समाज नए विचारों के प्रति सहनशील हो।
ऐगिऑन और होविट को उनके संयुक्त शोध कार्यों के लिए नोबल पुरस्कार दिया गया। नोबल समिति के अनुसार, उन्होंने अपने ‘रचनात्मक विनाश’ के सिद्धांत द्वारा तकनीक के विकास की प्रक्रिया की व्याख्या की है और साथ ही यह भी बताया है कि आर्थिक विकास को कैसे बनाए रखा जा सकता है। उनके अनुसार, नई तकनीक लाज़िमी रूप से पुरानी तकनीक को समाप्त करके अपना स्थान बनाती है, जिससे पुरानी तकनीक से जुड़े रोज़गार को झटका लगता है, हालाँकि नई तकनीक समग्र रूप से समाज को आगे ले जाती है। उनके अनुसार, श्रमिकों के लिए पुख़्ता प्रबंध करना सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है। रचनात्मक विनाश के साथ तकनीक की प्रेरक शक्ति बाज़ार में पारस्परिक प्रतिस्पर्धा है। इन दोनों अर्थशास्त्रियों के अनुसार, आर्थिक उछाल और स्थिरता अटल प्रक्रिया हैं, लेकिन यही तकनीकी विकास को आगे बढ़ाने में भी मदद करती हैं।
आर्थिक और तकनीकी विकास से संबंधित कुछ तथ्यों और परिघटनाओं की सही समझ देने के बावजूद, इन तीनों मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों का समग्र विश्लेषण सतही है और घटनाओं की सतह के नीचे देखने में असमर्थ है। मोकिर से शुरुआत करते हैं। उसका कहना है कि औद्योगिक क्रांति के बाद तेज़ रफ़्तार तकनीकी विकास के पीछे वैज्ञानिक ज्ञान में वृद्धि और लोगों द्वारा इन विचारों के प्रति सहनशील होना मुख्य कारण हैं। यदि एक बार मोकिर के विश्लेषण को ही मान लें, तो वह इस बात की कोई व्याख्या नहीं करता कि लोगों की इन विचारों के प्रति सहनशीलता कैसे बढ़ी? वैज्ञानिक ज्ञान और बढ़ी हुई सहनशीलता की अभिव्यक्ति कहाँ हुई? इसके कारणों के संबंध स्थापित करने में मोकिर की कोई रुचि नहीं है। दरअसल, पश्चिमी यूरोप के मध्य युग (सामंतवाद) से पूँजीवाद (आधुनिक समाज) में परिवर्तन चार मुख्य आंदोलनों दृ पुनर्जागरण, धर्म सुधार, ज्ञान प्रसार और फ़्रांसिसी क्रांति से होकर गुज़रा है, जिसका आधार आर्थिक विकास के कारण उत्पन्न हुए नए वर्ग दृ पूँजीपति वर्ग (जो यहाँ के दस्तकारों से पैदा हुआ) और पुराने शासक वर्ग सामंतों के बीच संघर्ष था। इस नए पूँजीपति वर्ग, जिसके हाथों में पहले ज़्यादा से ज़्यादा समाज का आर्थिक नियंत्रण आता गया, की आर्थिक ज़रूरत से ही औद्योगिक विकास, विज्ञान का तीव्र विकास और जनता में लोकतंत्र, स्वतंत्रता आदि के विचार तेज़ी से फैले। यदि तकनीकी विकास तक ही सीमित रहें, तो मज़दूर वर्ग की ज़्यादा से ज़्यादा लूट करके अपने प्रतिस्पर्धियों को बाज़ार में पीछे छोड़ने के लिए ही नई से नई तकनीक की ज़रूरत पड़ती है।
जिस पूँजीपति के पास ज़्यादा विकसित तकनीक होगी, उसकी उत्पादन लागत घटती है और इस तरह वह प्रतिस्पर्धियों से सस्ता माल बेचकर कुल मुनाफ़े का ज़्यादा हिस्सा हासिल करके न सिर्फ़ बाज़ार में प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम होता है, बल्कि उन्हें पीछे भी छोड़ता है। इस प्रतिस्पर्धा में जीतने के लिए, पूँजीपति, सामंतों के विपरीत, अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा व्यक्तिगत विलासिता (इसका मतलब यह नहीं कि पूँजीपति विलासिता नहीं करते) पर नहीं, बल्कि उत्पादन में पुनःनिवेश करने के लिए मजबूर होते हैं। मुनाफ़े की लालसा में प्रतिस्पर्धियों को पीछे छोड़ने की ज़रूरत ही वह कारक है, जो पूँजीवाद के तहत तकनीकी विकास का कारण बनती है। दस्तकारी से एक प्रक्रिया में औद्योगिक पूँजीवाद के स्थापित होने के कारण ही औद्योगिक क्रांति के आस-पास के समय में विज्ञान और तकनीक में तेज़ रफ़्तार विकास संभव हुआ।
यहाँ ऐगिऑन और होविट के विश्लेषण पर आते हैं। उनके अनुसार, बाज़ार में प्रतिस्पर्धा नई तकनीक के उत्पन्न होने की प्रेरक शक्ति है, लेकिन वे इस पहलू को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि प्रतिस्पर्धा किसके लिए होती है? इस प्रतिस्पर्धा में दाँव किस पर लगा होता है? मुख्यधारा के अर्थशास्त्री इसी बात पर सबसे ज़्यादा पर्दा डालते हैं। दरअसल, यह प्रतिस्पर्धा मुनाफ़े का ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा हड़पने के लिए होती है। जिसके पास ज़्यादा विकसित तकनीक होती है, वह मुनाफ़े का ज़्यादा हिस्सा हासिल करने में सफल हो जाता है। मुनाफ़े का स्रोत और कुछ नहीं, बल्कि उत्पादन में मज़दूरों की लूट ही होती है। मज़दूर श्रम करके जितना उत्पादन करते हैं, उसके बदले उन्हें थोड़ा ही भुगतान किया जाता है, ज़्यादा हिस्सा मालिक हड़प जाते हैं, यही मुनाफ़े का स्रोत बनता है। ऐगिऑन और होविट कहते हैं कि तकनीकी विकास के रास्ते में आर्थिक उछाल और गिरावट या गतिहीनता आना अटल है। यह परिघटना उनके लिए ही अटल है, जो पूँजीवादी व्यवस्था को स्थायी मानते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन मुख्य रूप से मुनाफ़ा कमाने के उद्देश्य से ही किया जाता है। और इसी व्यवस्था के स्थायी नियम दृ मुनाफ़े की दर गिरते जाने के रुझान के नियम दृ के कारण इस व्यवस्था में आर्थिक उछाल के बाद आर्थिक गतिहीनता आना लाज़िमी होता है। लेकिन यह उछाल-गिरावट का चक्कर ऐसी व्यवस्था में लाज़िमी नहीं है, जहाँ उत्पादन का उद्देश्य मुनाफ़ा न हो। ऐसी व्यवस्था न सिर्फ़ संभव है, बल्कि 20वीं सदी में दुनिया के एक तिहाई हिस्से में यह व्यवस्था वास्तविकता थी। इस व्यवस्था को समाजवादी व्यवस्था कहते हैं। जहाँ उत्पादन का मुख्य उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना नहीं, बल्कि लोगों की ज़रूरतों के अनुसार उत्पादन करना होता है। जब तक रूस (1956 तक) और चीन (1976 तक) समाजवादी देश रहे, वहाँ आर्थिक मंदी, संकट जैसे लंबे दौर देखने को नहीं मिले और इन देशों में किसी भी पूँजीवादी देश की तुलना में ज़्यादा तेज़ तकनीकी विकास संभव हुआ।
इस साल फिर, अपनी विशेषता के अनुसार नोबल पुरस्कार उन्हीं को मिला है, जो अंततः इस शोषण पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था के सेवक हैं, जो समाज के बदलने की अटलता से आँखें मूँदे बैठे हैं और इस समाज की वास्तविक घटनाओं को समझने में पूरी तरह असमर्थ हैं। पूँजीवादी व्यवस्था के इन सेवकों की बौद्धिक कंगाली इस ढाँचे के अपने खोखलेपन की ही गवाही भरती है। इस जर्जर व्यवस्था ने ख़ुद ही इतिहास के मंच से नहीं उतरना है, बल्कि बल्कि मज़दूरों-मेहनतकशों को ही इस व्यवस्था को इसकी क़ब्र तक पहुँचाना होगा।
आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है। यह आलेख हिन्दी मासिक मुक्ति संग्राम से प्राप्त किया गया है।
