गौतम चौधरी
अफगानिस्तान से नाटो सैनिकों की वापसी और तालिबानी प्रभाव में विस्तार को लेकर भारत खासा चिंतित दिख रहा है। दिन व दिन अफगानिस्तान की स्थिति खराब होती जा रही है। समाचार माध्यमों में आ रही खबरों से यही लग रहा है कि अफगानिस्तान में सुरक्षा की स्थिति बेहद खराब होते जा रहे हैं। कुल 421 जिलों में से 150 जिलों में अफगानिस्तानी सैनिकों के साथ तालिबानी लड़ाके जूझ रहे हैं। रिपोर्ट के मुततबिक तालिबान अफगानी सैनिकों पर भाड़ी पड़ रहे हैं और वे आगे गढ़ रहे हें। बहुत सारे जिले तालिबानियों के कब्जे में चले गए हैंै। पिछले कुछ ही दिनों पांच हजार से ज्यादा लोगों की जानें जा चुकी है। देश के अंदर ही दो लाख से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं।
ऐसे में भारत को अब यह डर सताने लगा है कि उसके द्वारा किए गए निवेश का क्या होगा? हाल ही में भारत ने अफगानिस्तान में अपने वाणिज्यिक दूतावास से अपने राजनयिकों और स्टाफ को वापस बुला लिया है। तालिबान के खात्मे के बाद पिछले करीब 20 सालों से अफगानिस्तान और भारत के रिश्ते बेहद मजबूत हो गए थे। बता दें कि अफगानिस्तान इस क्षेत्र में भारत के सामरिक हितों के लिए महत्वपूर्ण है। ये शायद एकमात्र सार्क राष्ट्र भी है, जिसके लोगों को भारत से खासा लगाव है। पिछले 20 सालों में भारत ने अफगानिस्तान में बड़ा निवेश किया है। भारत ने यहां महत्वपूर्ण सड़कों, बांधों, बिजली लाइनों और सबस्टेशनों, स्कूलों और अस्पतालों का निर्माण किया है। भारत की विकास सहायता 3 बिलियन डॉलर से अधिक होने का अनुमान है।
साल 2011 के भारत-अफगानिस्तान रणनीतिक साझेदारी समझौते ने यहां बुनियादी ढांचे और संस्थानों के पुनर्निर्माण में मदद करने के लिए सिफारिश की थी। लिहाजा कई क्षेत्रों में अफगानिस्तान में निवेश को बढ़ावा दिया गया। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार अब एक अरब डॉलर का है। नवंबर 2020 में जिनेवा में अफगानिस्तान सम्मेलन में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि अफगानिस्तान का कोई भी हिस्सा आज भारत के प्रोजेक्ट से अछूता नहीं है। उन्होंने कहा था कि यहां के 34 प्रांतों में 400 से अधिक प्रोजेक्ट्स हैं लेकिन अब इन सारे प्रोजेक्ट का भविष्य अधर में लटक गया है।
हालांकि अफगानिस्तान में आज जिस परिस्थिति का सामना भारत को करना पड़ रहा है वह कोई अप्रत्याशित नहीं है। आज नहीं तो कल नाटो सैनिकों की वापसी तय थी। अमेरिका व्यापारिक मनोवृति का देश है। जहां उसके आर्थिक हित नहीं सधते वहां वह रूक ही नहीं सकता है। विश्व व्यापार केंद्र पर हमले के बाद अमेरिका ने इस्लामिक दुनिया के दो ठिकानों पर हमला किया। पहला इराक और दूसरा अफगानिस्तान। इराकी हमले के बाद सद्दाम हुसैन का खात्मा हुआ और उसकी परिणति अल बगदादी एवं उसके संगठन आईएसआईएस के रूप में हुई। अंत में यह लड़ाई सीरिया पहुंच गयी और रूसी सैन्य हस्तक्षेप के बाद अमेरिका को वहां से पीछे हटना पड़ा।
अमेरिका का दूसरा मोर्चा, अफगानिस्तान में था। अब बियतनाम की तरह अमेरिका को यहां से भी वापस जाना पड़ रहा है। जिस तालिबान को अमेरिका, पाकिस्तान और सउदी अरब ने मिलकर खड़ा किया था वही तालिबान इन तीनों देशों के लिए खतरा उत्पन्न किया और आज भी इन तीनों के लिए तालिबान खतरनाक साबित हो रहा है।
अफगानिस्तान में भारत की भूमिका थोड़ी भिन्न है। अफगानिस्तान में भारत सदा से सैन्य हस्तक्षेप से बचता रहा है। भारत, अफगानिस्तान में सौफ्ट डिप्लोमेसी को ही अपना हथियार बनाया है। अंततोगत्वा इसका लाभ भारत को मिलना चाहिए। अफगानिस्तान में यदि भारत की स्थिति थोड़ी कमजोर हुई है तो उसके लिए भारत की आंतरिक राजनीति जिम्मेदार है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली हार्डकोर हिन्दुवादी सोच की सरकार का असर अफगानिस्तान में भी देखने को मिल रहा है। वर्तमान तालिबानी कमांडरों में से ऐसे कई कमांडर ऐसे हैं, जिसकी धार्मिक और भौतिक, दोनों प्रकार की शिक्षा भारत में हुई है। उन कमांडरों को अपने पक्ष में किया जा सकता था लेकिन संभवतः वर्तमान सरकार ने उस दिशा में कदम नहीं बढ़ाया और उसका प्रतिफल हमारे सामने है।
दूसरा अंतर्विरोध अमेरिका को लेकर है। स्वतंत्रता प्राप्त के बाद से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार तक भारत महाशक्तियों के गुटों से अपने आप को अलग दिखाता रहा है। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने इस विदेश नीति में संशोधन कर दिया और अमेरिका के प्रति अपना झुकाव सार्वजनिक कर दिया। वर्तमान विश्व का अधिकतर इस्लामिक देश अमेरिका के खिलाफ है। तालिबान भी अमेरिका के खिलाफ है। ऐसे समय में अमेरिकी खेमा में जाना, भारत की कूटनीतिक अदूरदर्शिता को परिलक्षित करता है। इसके कारण भारत को कई स्थानों पर समस्या का सामना करना पड़ रहा है। आने वाले समय मे और परेशानी होने वाली है। अफगानिस्तान में भारत के प्रति जो तालिबान का आक्रोश दिख रहा है उसके लिए अमेरिका परस्ती भी एक बड़ा कारण है।
अब अफगानिस्तान में भारत को क्या करना चाहिए? अफगानिस्तान में भारत को अपने आर्थिक और सामरिक हितों की रक्षा करनी है, तो विकासात्मक कार्य के साथ ही साथ सैन्य हस्तक्षेप से बचना होगा। रूस के साथ अपने संबंध को सुधारने होंगे और पाकिस्तान के साथ लचीला रवैया अपनाना होगा। हालांकी अफगानिस्तान में अब तुर्की भी एक बड़ा खिलाड़ी बनकर उभर रहा है लेकिन भारत को उस ओर ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत नहीं है। अफगानिस्तान के लिए भारत की सौफ्ट पाॅलीसी ही सबसे अधिक कारगर साबित होगा, लेकिन उसके साथ ही साथ अन्य प्रभावशाली ताकतों को भी अपने पक्ष में करना भारत के लिए हितकर साबित होगा। खैर अभी अफगानिस्तान के हालात पूर्ण रूप से अनियंत्रित नहीं हुए हैं और बहुत खेल होना वहां बाकी है लेकिन भारत को अपनी आंतरिक राजनीति में भी थोड़े परिवर्तन की जरूरत है, जो इस्लामिक दुनिया में हमारी स्थिति को कमजोर कर रहा है। साथ ही अमेरिका परस्ती पर भी हमारे रणनीतिकारों को समीक्षा करनी चाहिए।