अमृत काल में लैंगिक समानता पर विमर्श जरूरी

अमृत काल में लैंगिक समानता पर विमर्श जरूरी

डॉ. वेदप्रकाश

देश आजादी के अमृत काल में प्रवेश कर चुका है, ऐसे में लैंगिक समता चिंता और चिंतन का विषय होना चाहिए। हाल ही में विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) द्वारा जिनेवा में वार्षिक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट 2022 जारी की गई है। कुल 146 देशों के सूचकांक में लैंगिक समता में भारत विश्व में 135 वें स्थान पर है। विभिन्न बिंदुओं पर तैयार की गई यह रिपोर्ट चिंताजनक है। भारतवर्ष के गौरवशाली अतीत पर दृष्टि डालते हैं तो हम पाते हैं कि यहाँ लैंगिक समता थी। विद्या की देवी सरस्वती,धन की देवी लक्ष्मी और शक्ति की देवी दुर्गा लैंगिक समता के शीर्ष उदाहरण कहे जा सकते हैं। भारतवर्ष ने- यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता का अनुगमन किया है।

भारतीय चिंतन में गृह स्वामी और गृह स्वामिनी शब्द लैंगिक समता के ही परिचायक कहे जा सकते हैं। भारतवर्ष के अतीत की चर्चा करते हुए मैथिलीशरण गुप्त ने भारत भारती नामक रचना में लिखा है –

‘‘केवल पुरुष ही थे न वे,
जिनका जगत को गर्व था,
गृह देवियाँ भी थीं हमारी,
देवियाँ ही सर्वथा।’’

निःसंदेह गुलामी के बड़े कालखंड में लैंगिक समता का मुद्दा भी भिन्न-भिन्न रूपों में प्रभावित हुआ। स्त्रियों की शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा हाशिए पर जाती रही, किंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी स्थिति में परिवर्तन क्यों नहीं हुआ? भारतवर्ष का संविधान समानता के बारे में स्पष्ट उल्लेख करता है कि- भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार प्रदान किया है। कानून के सामने सब बराबर हैं और धर्म, नस्ल,जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। संविधान के अनुच्छेद 14-18 समानता का अधिकार देते हैं, लेकिन क्या संविधान सम्मत यह अधिकार सबको सही रूप में प्रात हैं? आज भी लिंग,जाति, संप्रदाय एवं प्रादेशिकता के कारण भिन्न-भिन्न रूपों में असमानता देखी जा सकती है।

आज भी समाज लड़का-लड़की, स्त्री-पुरुष की संकीर्णता से उबरा नहीं है। मेरे सपनों का भारत नामक पुस्तक में गांधी जी ने लिखा है-जिस रूढ़ि और कानून के बनाने में स्त्री का कोई हाथ नहीं था और जिसके लिए सिर्फ पुरुष ही जिम्मेदार है, उस कानून और रूढ़ि के जुल्मों ने स्त्री को लगातार कुचला है… जैसा अधिकार पुरुष को अपने भविष्य की रचना का है, उतना और वैसा ही अधिकार स्त्री को भी अपना भविष्य तय करने का है…स्त्री को अपना मित्र या साथी मानने के बदले पुरुष ने अपने को उसका स्वामी माना है…कानून की रचना ज्यादातर पुरुषों के द्वारा हुई है और इस काम को करने में, जिसे करने का जिम्मा मनुष्य ने अपने ऊपर खुद ही उठा लिया है, उसने हमेशा न्याय और विवेक का पालन नहीं किया है। क्या गांधी जी द्वारा उठाए गए प्रश्न आज भी यथावत् नहीं खड़े हैं?

क्या स्त्री की शारीरिक अथवा बौद्धिक क्षमताएं पुरुष की क्षमताओं से किसी तरह भी कम है? आज भी कई बार समाचार छपते हैं कि समान काम के लिए स्त्री और पुरुषों में वेतन की असमानता है, कार्य स्थलों पर उनके साथ भेदभाव होता है, उनका शोषण होता है। अच्छा जीवन, शिक्षा, सहशिक्षा, रोजगार, स्वरोजगार, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ आज भी लैंगिक समता नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया है कि श्रम बल में लैंगिक अंतराल बढ़ने से लैंगिक अंतराल को पाटने में अभी 132 साल और लगेंगे, क्या यह चिंताजनक नहीं है? भारत के विषय में रिपोर्ट में कहा गया है कि- इसका लैंगिक अंतराल अंक पिछले 16 वर्षों में इसके सातवें सर्वोच्च स्तर पर दर्ज किया गया है लेकिन यह विभिन्न मानदंडों पर सर्वाधिक खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में शामिल है। पिछले साल से भारत में आर्थिक साझेदारी और अवसर पर अपने प्रदर्शन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं सकारात्मक बदलाव दर्ज किया है लेकिन श्रम बल भागीदारी 2021 से पुरुषों और महिलाओं दोनों की कम हो गई है।

महिला सांसदों, विधायकों, वरिष्ठ अधिकारियों और प्रबंधकों की हिस्सेदारी 14.6 फीसद से बढ़कर 17.6 फीसद हो गई है, इसी प्रकार पेशेवर एवं तकनीकी श्रमिकों के रूप में महिलाओं की हिस्सेदारी 29.2 फीसद से बढ़कर 32.9 फीसद हो गई है। अनुमानित अर्जित आय के मामले में लैंगिक समता अंक बेहतर हुआ है, किंतु क्या बहुत थोड़ी सी बेहतरी और गति पर्याप्त है? भारत में लैंगिक समता की स्थिति पर विचार करते हुए आज हमें ट्रांसजेंडर अथवा थर्ड जेंडर पर भी गंभीरता से विचार करना होगा। इनमें से अधिकांश बदहाली एवं घृणा का जीवन जीने को मजबूर हैं। अभी तक भी इनकी समुचित शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार एवं आवास आदि की व्यवस्था नहीं हो पाई है।

आज भी आधी आबादी कहकर संबोधित की जाने वाली स्त्री शक्ति जन्म, पालन-पोषण, शिक्षा, रोजगार,विवाह,पर्दा, दहेज, पुनर्विवाह, तलाक, वेश्यावृत्ति आदि विभिन्न रूपों में शोषण एवं असुरक्षा जैसी अनेक ऐसी समस्याओं से जूझ रही है जो लैंगिक समता की दृष्टि से चिंताजनक हैं। हाल ही में महिला एवं बाल विकास मंत्री द्वारा लोकसभा में जानकारी दी गई कि- मंत्रालय ने वर्ष 2014 से 2022 के बीच प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी परियोजना -ुनवजयबेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ-ुनवजय के प्रचार प्रसार के लिए कुल 401 करोड़ रुपए आवंटित किए और वर्ष 2014 से 2022 तक इस योजना पर कुल 740.18 करोड़ खर्च हुआ। यद्यपि इस परियोजना से शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं रोजगार आदि लैंगिक समता के विभिन्न आयामों में परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं, किंतु स्थिति अभी भी चिंताजनक है। आज आजादी के 75 वर्ष बाद नए,समर्थ और आत्मनिर्भर भारत के लिए लैंगिक समता तो आवश्यक है ही, इसके साथ-साथ सुरक्षा, सम्मान व सहभागिता बढ़ाने की भी आवश्यकता है।

(युवराज)

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)

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