गौतम चौधरी
इस साल नवंबर के महीने में नई दिल्ली में भारत और इंडोनेशिया के प्रमुख उलेमाओं की एक बैठक हुई। इस बैठक में मुस्लिम समाज में उग्रवाद और आतंकवाद से लड़ने के तरीकों पर चर्चा भी की गयी लेकिन, दोनों मुल्कों के उलेमाओं ने दुनियाभर में हो रहे हालिया गैर-इस्लामिक आतंकवादी हमले की न तो निंदा की और न ही ऐसे कोई बयान जारी किए जिससे इस्लाम के नाम पर आतंक फलाने वाले मौकापरस्थ हतोतसाहित हो पाएं। वर्तमान समय में आईएसआईएस और अलकायदा आदि बड़े आतंकवादी संगठनों के द्वारा कोई बड़ा आक्रमण तो नहीं हो रहा है लेकिन आतंकवादियों के हौसले बुलंद हैं। तथ्य से स्पष्ट है कि इस साल नवंबर और दिसंबर के महीने में इंडोनेशिया, अफगानिस्तान, यमन, सोमालिया आदि कई इस्लामिक देशों में कई बम विस्फोट किए गए और आत्मघाती हमले किए गए। इन हमलों में कई निर्दोष छात्र, श्रमिक, महिला, बच्चे आदि मारे गए। इन सभी घटनाओं से पता चलता है कि इस्लामिक देशों में आत्मघाती बम विस्फोट और बम विस्फोट आम बात हो गई है। अधिकांश आतंकवादी हमले लावारिस होते हैं क्योंकि आतंकवादी जानते हैं कि उनका कृत्य गैर-इस्लामिक और अमानवीय है।
इस प्रकार की गैर-इस्लामिक कृत्यों के बावजूद भी हिंसा और आतंकवाद की ऐसी घटनाओं की निंदा करने के लिए सामूहिक मुस्लिम धार्मिक नेतृत्व की ओर से निंदा का कोई बयान जारी नहीं किया गया। जबकि इस्लामी देशों के लिए इस प्रकार की गैर-मानवीय घटना बेहद खतरनाक होती जा रही है। इसके कारण ज्यादातर मुसलमान ही मारे जाते हैं। गैर-मुसलमानों की संख्या बहुत कम होती है बावजूद इसके उलेमा इस बात को लेकर चर्चा करने से कतराते हैं कि इस्लाम के नाम पर जो आतंकवाद खड़ा किया गया है उसे खत्म कर देनी चाहिए, चुनांचे यह इस्लाम की मूल भावना को हानि पहुंचा रहा है।
आतंकवाद के मामले में वैश्विक मुस्लिम मुफ्ती और उलेमा एक साथ आने में विफल रहे हैं क्योंकि धार्मिक अतिवाद और आतंकवाद पर उनके विचार अलग अलग हैं। वास्तव में, आईएसआईएस को शियाओं के दुश्मन के रूप में देखा जाता है। सुन्नी उलेमाओं का एक समूह इसका समर्थन करता है और सुन्नी मुसलमान युवकों को इसके साथ जुड़ने का आह्वान भी करते हैं। यह कहीं-कहीं प्रत्यक्ष होता है तो कहीं-कहीं परोक्ष होता है। यानी सुन्नी उलेमाओं के एक समूह का आईएसआईएस को समर्थन प्राप्त है। विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित सुन्नी विद्वानों के एक समूह ने वर्ष 2014 में खुले तौर पर आईएसआईएस का समर्थन कर दिया था। शियाओं और अहमदियों को कई सुन्नी उलेमाओं ने काफिर घोषित कर रखा है और उनके खिलाफ सार्वजनिक नरसंहार का फतवा जारी कर दिया है। मस्जिदों और मदरसों पर हमले सांप्रदायिक टकराव के कारण किए जाते हैं और ऐसे हमलों के पीछे उलेमा द्वारा जारी कुफ्र के फतवे ही होते हैं। यही कारण है कि उलेमा तब चुप रहते हैं जब किसी मस्जिद या मदरसे पर हमला किया जाता है और बच्चों सहित बड़े पैमाने पर निर्दोष मुसलमान मारे जाते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि आज मुस्लिम समाजों में हिंसा के अधिकांश मामलों के मूल में सांप्रदायिक और उग्रवादी वह विचारधारा है जिसका इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है लेकिन वह सब इस्लाम के नाम पर हो रहा है।
मस्जिदों, मदरसों, सार्वजनिक स्थानों और थानों में आत्मघाती हमले और बम विस्फोटों पर उलेमा की चुप्पी उनकी वैचारिक दुविधा को प्रकट करती है। यदि वे हिंसा की इन घटनाओं को हराम घोषित करते हैं, तो वे अपने शिक्षकों के फतवों और विचारों को नकार देंगे। उन्हें इस बात का भी डर है कि अगर वे इस मुद्दे पर लीक से हटकर बयान देते हैं तो उनके साथी संप्रदाय के उलेमा नाराज हो जाएंगे। यह एक विडंबना है कि पवित्र कुरान मुसलमानों को ऐसे आतंकवादियों और चरमपंथियों से लड़ने और दंडित करने के लिए कहता है, लेकिन मुसलमानों द्वारा सांप्रदायिक आधार पर मदरसों में बच्चों की हत्या पर पूरा मुस्लिम नेतृत्व खामोश रहता है। यह तबका तब हाइबरनेशन से बाहर आता है, जब कोई गैर-मुस्लिम पैगंबर या कुरान के खिलाफ टिप्पणी करता है, निंदा के बयान जारी करता है और यहां तक कि मुसलमानों को इस्लाम के दुश्मन के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए उकसाता है। हालांकि कुरान उन्हें ऐसी बातों को नजरअंदाज करने के लिए कहता है, बावजूद इसके वे अपने चरमपंथ पर डटे हुए होते हैं।
उलेमा और मुस्लिम बुद्धिजीवियों/विद्वानों/मौलवियों सहित सभी मुस्लिम नेतृत्व को अपने वैचारिक या सांप्रदायिक मतभेदों से खुद को दूर रखते हुए उग्रवाद, हिंसा और आतंकवाद के खिलाफ एक एकजुट रुख अपनाने की जरूरत है। इसके अलावा आत्मघाती हमलों और बम विस्फोटों को हराम और गैर-इस्लामी करार देने की जरूरत है। अगर ये विद्वान आज भी चुप रहे तो इस्लाम को हानि होगी। मैं समझता हूं कि केवल इस्लाम को ही नहीं पूरी मानवता की हानि होगी क्योंकि इस्लाम केवल मुसलमानों का ही नहीं है। यह चिंतन पूरी मानव जाति को निर्देशित और संरक्षित करने का चिंतन है। इसलिए इसे बचाना और इसकी प्रतिष्ठा बढ़ाना उन उलेमाओं के हाथ में हैं जो अपने आप को खुदा के नेक बंदे कहलाने में फक्र करते हैं।