मुकेश असीम
10 मार्च को जमाराशि के हिसाब से 16वां सबसे बड़ा अमरीकी सिलिकॉन वैली बैंक रेगुलेटर द्वारा बंद करना पड़ा क्योंकि यह अपने खाताधारकों की देनदारियां चुकाने में असमर्थ था। यह अमरीकी इतिहास में डूबने वाला दूसरा सबसे बड़ा बैंक है जिसकी बैलेंस शीट लगभग 400 अरब डॉलर की थी। इसके एक दिन पूर्व ही सिल्वरगेट नाम का एक और बैंक भी डूब चुका है।
एसवीबी के डूबने की तात्कालिक वजह उसके द्वारा मोर्टगेज बैक्ड सिक्युरिटीज में किए गए पूंजी निवेश पर ब्याज दरों के बढ़ने की वजह से हुआ भारी नुकसान है जिससे उसके सामने भारी नकदी संकट खड़ा हो गया था। बैंक ने 9 मार्च को 21 अरब डॉलर की सिक्युरिटीज को 1.8 अरब डॉलर के घाटे पर बेचकर नकदी जुटाई और 2.25 अरब डॉलर के शेअर जारी करने की भी कोशिश की। मगर बैंक के जमाकर्ताओं में अपनी जमा रकम को लेकर घबराहट फैल गई और उन्होंने एक दिन में ही 42 अरब डॉलर जमाराशि निकालने की कोशिश की। रेगुलेटरों की मदद के बावजूद बैंक के लिए इतनी नकद राशि जुटाना मुमकिन नहीं हुआ और वह दिवालिया हो गया। किंतु मोर्टगेज बैक्ड सिक्युरिटीज पर हुआ ऐसा घाटा अमरीकी बैंकिंग प्रणाली में व्यापक है। फेडरल डिपोजिट इंश्योरेंस कॉरपोरेशन के अनुसार ऐसे घाटे का 620 अरब डॉलर इकट्ठा हो चुका है जिसे बैंकों ने अभी तक अपने प्रॉफिट लॉस में बुक नहीं किया है। इसीलिए एसवीबी का घटनाक्रम इतना अहम है।
मगर बुनियादी तौर पर देखें तो बैंकों के डूबने की यह परिघटना वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के 21वीं सदी में लगभग चिरस्थाई बन गए आर्थिक संकट का ही परिणाम है जो भारत में अदाणी समूह की कंपनियों के शेअरों में संकट से लेकर विभिन्न देशों में अलग-अलग तरह से फोड़ा फूटने से बहते मवाद की तरह से सामने आता रहता है।
मुनाफे के लिए मजदूरों की श्रम शक्ति से उत्पादित सरप्लस वैल्यू को हथियाने पर निर्भर पूंजीवादी व्यवस्था दुनिया की बड़ी आबादी को कंगाल बना चुकी है और उत्पादित मालों के बिकने के संकट अर्थात अति-उत्पादन का सामना कर रही है, हालांकि अधिकांश आबादी अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में ही असमर्थ है। अतः पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादक शक्तियों के विकास अर्थात उत्पादक पूंजी निवेश की संभावनाएं अत्यंत सीमित हो चुकी हैं।
पूंजीपति वर्ग की प्रबंध समिति के तौर पर काम करने वाली सरकारों द्वारा युद्ध सामग्री के बड़े ऑर्डरों व सामाजिक आवश्यकता को नजरअंदाज कर बनाए गए बुलेट ट्रेन या सेंट्रल विस्टा जैसे बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के जरिए चंद इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के लिए बिक्री व मुनाफे के इंतजाम की कोशिशों के बावजूद अति-उत्पादन की समस्या का कोई समाधान नहीं है। दुनिया भर में पूंजीवाद के विस्तार के बाद नये बाजारों पर कब्जे के द्वारा समस्या के हल की गुंजाइश भी अत्यधिक कम बची है, हालांकि उसके लिए साम्राज्यवादी गुटबंदी व जंगखोरी पहले ही जारी है।
ऐसे में बड़े पैमाने पर संचित पूंजी के निरंतर बढ़ते हिस्से को वित्तीय सट्टेबाजी में झोंका जा रहा है। लेकिन बिना उजरती मजदूरों द्वारा उत्पादन के पूंजी पर सरप्लस वैल्यू या मुनाफा पैदा नहीं होता। अतः वित्तीय सट्टेबाजी में जो ‘कमाया’ जाता है वह पूंजीपति वर्ग की आपसी छीनाझपटी ही है और इस छीनाझपटी में हमेशा कुछ पूंजीपतियों का कमजोर पड़ कर डूबना जरूरी है। पूंजीवादी व्यवस्था का बुनियादी आर्थिक संकट आज के दौर में अक्सर वित्तीय सट्टेबाजी के इन संकटों के रूप में सामने आ रहा है।
पूंजीवादी राज्य और उसके केंद्रीय बैंक अपनी मौद्रिक विस्तार या संकुचन व ब्याज दरों को घटाने बढ़ाने के जरिए इन संकटों को मैनेज करने का प्रयास करते हैं। मगर पूंजीवाद रूपी मरीज का कैंसर का फोड़ा अब पूरे शरीर में फैल चुका है। उसे कितना भी मेनेज किया जाए, वह कहीं न कहीं फूट पड़ता है और बदबूदार मवाद बहने लगता है। अदाणी हो या अमरीकी एसवीबी दोनों ऐसी ही घटनाएं हैं।
इस दौर की जरूरत है कि इस मर्णांतक कैंसर की शिकार पूंजीवादी व्यवस्था को वित्तीय-मौद्रिक नीतियों के वेंटिलेटर पर जिंदा रखने की बजाय इसका अंतिम संस्कार कर दिया जाए क्योंकि इस फोड़े को पैदा तो जरूर पूंजीवाद ने किया है मगर इस संकट व घाटे का सारा बोझ शासक वर्ग आम लोगों पर डाल देता है और इसकी असहनीय पीड़ा दुनिया की अधिकांश मेहनतकश जनता को ही झेलनी पड़ती है।
(लेखक साम्यवादी चिंतक हैं। आलेख में व्यक्त विचार इनके निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)