राकेश सैन
यह स्वागतयोग्य है कि ‘आदिपुरुष’ फिल्म के लेखक मनोज मुंतशिर व निर्देशक ओम राऊत ने विवादित संवाद हटाने की बात कही है। इन संवादों से पूरी फिल्म आलोचना के केन्द्र में आई और धार्मिक-राजनीतिक मंचों से लेकर सोशल मीडिया पर भी इसकी खूब निन्दा हुई। भगवान श्रीराम के जीवन पर बनी एक फिल्म को संवादों के कारण विवाद का सामना करना पड़ा यह दुखद है, परन्तु भूल सुधार के बाद आशा है कि अब बवंडर थम जाना चाहिए। वैसे इस विवाद से न केवल फिल्म निर्माताओं बल्कि लेखन व मंच से जुड़े हर व्यक्ति को बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। कला व लेखन में नवाचार सराहनीय है, पर इसका अर्थ ये नहीं कि किसी महापुरुष, देवी-देवता या ग्रन्थ से जुड़े तथ्यों व मर्यादा का उल्लंघन हो। दुनिया में श्रीराम व रामायण की लोकप्रियता का आधार केवल उस समय के नैतिक जीवन मूल्य ही नहीं, बल्कि भगवान वाल्मीकि जी व तुलसीदास जी द्वारा अपनी रचनाओं में प्रयुक्त शब्दों का माधुर्य, सौम्य शैली, शालीन संवादकला, देश, काल और वातावरण की गहन समझ भी बहुत बड़े कारण हैं। वाल्मीकिकृत रामायण हो या तुलसीदास जी की रामचरितमानस, कोई एक बार पढऩा शुरू करे तो पाठक न केवल उस युग में पहुंच जाता है बल्कि आत्मिक आनन्द के सरोवर में उतर जाता है।
एतिहासिक व पौराणिक विषयों पर लेखन कैसा हो इसको लेकर एक घटना बीआर चोपड़ा द्वारा निर्मित महाभारत धारावाहिक से जुड़ी है जो लेखकों के लिए प्रकाशस्तम्भ बन सकती है। जब चोपड़ा जी ने घोषणा कर दी कि महाभारत की पटकथा और संवाद राही मासूम रजा लिखेंगे तो उनके पास पत्रों का ढेर लग गया कि हिन्दू सारे मर गए हैं क्या, जो एक मुसलमान से लिखवा रहे हो? चोपड़ा जी ने ये बात रजा जी को बताई परन्तु उन्होंने इस बात को नजरंदाज कर अपना काम जारी रखा। आज 35 साल हो गए हैं, लेकिन क्या कोई ये कह सकता है कि रजा जी जैसे मुसलमान के लिखे संवादों में कोई कमी पेशी रह गई हो? महाभारत के संवाद लिखते समय लगता था कि मां सरस्वती स्वयं उनकी कलम पर विराजमान हो जाती रही होंगी। पात्रों के संवाद लिखते हुए रजा साहब घण्टे छोडिय़े कई-कई दिनों के लिये स्वयं को कमरे में बन्द कर लेते थे और अपना मन महाभारतकाल में ले जाते। भगवान श्रीकृष्ण के गुरु संदीपनि ऋषि के आश्रम वाले दृश्य लिखने के लिये वे सच में उज्जैन चले गए। उन्होंने महाभारत युद्ध के संवाद कुरुक्षेत्र के मन्दिरों में बैठकर लिखे, तब जाकर महाभारत एतिहासिक धारावाहिक बन पाया। कहने का भाव है कि इतिहास लिखने से पहले उस युग को जीना पड़ता है। शब्दों में माधुर्य, शैली में शालीनता लानी पड़ती है, जनभावनाओं को सामने रख कर कलमयज्ञ करना पड़ता है और तभी जाकर आप इतिहास व पौराणिक लेखन से न्याय कर पाते हैं।
अतीत में भगवान श्रीराम के नाम पर अनेकों फिल्में व धारावाहिक बने और सभी ने सफलता के शिखरों को छुआ। कोरोनाकाल में दूरदर्शन पर दोबारा से रामानन्द सागर कृत रामायण धारावाहिक दिखाया गया तो उसने एक बार फिर लोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित कर दिए। अब एक लम्बे अन्तराल के बाद भगवान श्रीराम पर आई आदिपुरुष से भी उम्मीद थी कि चलो किसी ने फिर रामायण को फिल्म का विषय बनाया परन्तु छोटी सी चूक ने किरकिरी करवा दी। लोगों को इस कथनाक पर आधारित फिल्म की कितनी प्रतीक्षा थी इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि फिल्म ने पहले ही दिन 140 करोड़ का व्यवसाय किया परन्तु विवाद के बाद उन्हीं लोगों को निराशा हाथ लगी। फिल्म को देख कर ऐसा लगता है कि लेखक ने रामायण क्या है, उसके अर्थ क्या हैं, वो युग कैसा था, अयोध्या कैसी थी, शायद ये सब सोचना भी जरूरी नही समझा।
लेकिन पूरे प्रकरण से एक अच्छी बात सामने आई है कि हिन्दू समाज आस्थावान तो है मगर ऐसा धर्मान्धा नहीं कि धर्म के नाम पर हर चीज व हर बात को मान ले। आदिपुरुष के संवाद लेखक शायद भूल गए कि लोग चाहे रावण को खलनायक मानते हैं परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि उसके लिए गाली गलौच वाली भाषा का प्रयोग किया जाए और वह भी हनुमान जी के श्रीमुख से। सुन्दरकाण्ड में रावण के सामने हनुमान जी ने जिस कूटनयन योग्यता व व शालीन भाषा का प्रयोग किया वह आज भी विदेश नीति के विद्यार्थी के शोध का विषय बन सकती है। फिल्म के संवाद केवल भाषागत अशिष्टता का विषय नहीं बल्कि खतरनाक बात यह है कि कुछ समय बाद यही तथ्यहीन बातें आगे जा कर प्रमाणिक मानी जाने लगती हैं। हिन्दू विरोधी व धर्म को अफीम कहने वाले तो वैसे भी ऐसे अवसरों की प्रतीक्षा में रहते हैं, इससे उन्हें हिन्दू आस्था पर आघात करने का नया अवसर मिलता है।
लेकिन अब जब इन विवादित संवादों को वापिस लेने की घोषणा की जा चुकी है तो इसका स्वागत होना चाहिए। कुछ संवाद विवादित होने का अर्थ ये नहीं कि फिल्मकारों का पुरुषार्थ ही गलत है या उनकी भावनाओं में खोट है। मनोज मुंतशिर ने ट्विटर पर ठीक ही लिखा है कि ‘आदिपुरुष में 4000 से भी ज़्यादा पंक्तियों के संवाद मैंने लिखे, 5 पंक्तियों पर लोगों की भावनाएँ आहत हुईं उन सैकड़ों पंक्तियों में जहां श्रीराम का यशगान किया, माँ सीता के सतीत्व का वर्णन किया, उनके लिए प्रशंसा भी मिलनी थी, जो पता नहीं क्यों मिली नहीं।’
देखने में आरहा है कि फिल्म का विरोध करने वाले दो तरह के लोग हैं। आस्थावानों के विरोध का स्वागत है परंतु कुछ लिबरल वामपंथी शक्तियां इसलिए अधिक ऊंची आवाज में चिल्ला रहे हैं ताकि भविष्य में कोई फिल्मकार या लेखक हिन्दू मानबिन्दुओं पर लिखने से बचे। ज्ञात रहे कि रामानन्द सागर और बीआर चोपड़ा को भी इन वामपंथी शक्तियों ने तरह-तरह के तर्कों-कुतर्कों से घेरने का प्रयास किया था। जेएनयू से लेकर विदेशी विश्वविद्यालयों में कई सच्चे झूठे शोध करवा कर लोगों को बताने का प्रयास किया कि राम व रामायण काल्पनिक हैं, लेकिन जन आस्था के सामने ये सारे प्रयास धाराशाई हो गए। अब आदिपुरुष को लेकर यही शक्तियां आस्थावान लोगों की आड़ में अपना हिन्दू विरोधी एजेण्डा आगे बढ़ा रही हैं। आदिपुरुष फिल्म के निर्देशक ओम राऊत इससे पहले तानाजी मालुसरे नामक फिल्म बना कर एक ऐसे मराठा योद्धा को प्रखाश में ला चुके हैं जिसने मुगल सल्तनत की ईंट से ईंट बजा कर रख दी थी। देश के छद्मधर्मनिरपेक्षता की अलंबरदार लिबरल ताकतें ओम राऊत से पहले ही खिझी हुई थीं, अब आदिपुरुष फिल्म में हुई त्रुटि से इन वाममार्गियों को भी अपनी खुन्नस निकालने का मौका मिल गया है। फिल्म का विरोध कर रहे आस्थावान लोगों को अपनी आंख, कान व नाक खुले रख कर इन षड्यंत्रकारी लिबरलों से बच कर रहना होगा।
(आलेख के लेखक पंजाब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जागरण पत्रिका पथिक संदेश के संपादक हैं। आलेख में व्यक्ति विचार आपके निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)