गौतम चौधरी
नई पीढ़ी ‘तिखुर’ के नाम से लगभग अपरिचित है। औसतन 40 वर्ष से बड़े उम्र के लोग तिखुर को अवश्य जानते होंगे। इसका उपयोग अमूमन दूध को गाढ़ा बनाने के लिए किया जाता था। यह एक प्रकार का खाद्य पदार्थ है। इसे कई प्रकार से उपयोग में लाया जाता है। पानी को गर्म कर तिखुर आवश्यकता के अनुसार मिलाया जाता था। यह पेस्ट की तरह बन जाता था। फिर इस मीठे खाद्य को ग्रहण किया जाता था। पूर्व काल में बिहार पर राज करने वाले पाल और सेन की सेना में भी यह नियमित तौर पर परोसा जाता था। इतिहासकारों का मानना है कि राजा विजय सेन इसे स्वयं ग्रहण करते थे।
आजकल बस्तर के आदिवासी इसका ज्यादा उपयोग करते देखे जाते हैं। तिखुर हल्दी जाति का एक पौधा है। तिखुर अधिकतर दक्षिण भारत में उगता है और बस्तर में भी बहुतायत में होता है। गर्मी के मौसम में तिखुर की डिमांड बढ़ जाती है। बस्तर के हाट-बाजारों में स्थानीय ग्रामीण तिखुर बेचते हुये दिखाई पड़ते हैं। बस्तर में तीखुर को बाथरी के नाम से भी जाना जाता है।
विगत दिनों जब कांकेर और नारायणपुर के प्रवास में था तो दशरथ नेताम ने बताया कि तिखुर हल्दी जाती का एक छोटा सा पौधा है। जड़ों में हल्दी अदरक जैसे कंद लगते हैं। कंद को ग्रामीण निकालकर पानी से धोकर साफ करते हैं, फिर खुरदरे पत्थर से घिस घिस कर पाउडर का रूप दिया जाता है। पाउडर सफेद रंग के छोटे छोटे दानों में तिखुर के तौर पर बाजार में बिकता है। सफेद तिखुर पाउडर को पानी में शक्कर मिलाकर शरबत बनाया जाता है। तिखुर ठंडई लिये होता है। गर्मी के दिनों में तिखुर का ठंडा शरबत सेहत के लिए काफी फायदेमंद होता है। तीखुर से स्वादिष्ट हलवा भी बनाया जाता है।
बस्तर के हाट बाजारों में 200-250 रुपए प्रति किलो यह मिलता हैं। ग्रामीणों का मानना है कि तिखुर खाने से पाचन क्रिया ठीकठाक रहती है और गर्मियों में तीखुर से बने शरबत पीने के क्या कहने। इसलिए खासकर गर्मी के दिनों में तिखुर की डिमांड बढ़ जाती है और बस्तर के हर एक ग्रामीण और अब शहरवासी भी तिखुर का सेवन करते हैं। गर्मी के मौसम में बस्तर के हाट बाजारों में तिखुर आसानी से मिल जाता है। इसकी कीमत लगभग 200 से 250 रुपये प्रति किलो तक होती है। हाट बाजारों में ग्रामीण महिलाएं तिखुर की मिठाइयां बनाकर बेचती हैं और काफी स्वादिष्ट होती है। इसे तिखुर की बर्फी कहा जाता है।
प्राचीन काल में बिहार के भागलपुर में तिखुर का उत्पादक होता था। कहलगांव इसका बड़ा केन्द्र माना जाता था। फ्रेंच यात्री मनूकी (मनूची) ने भी इसे संकरीगली-तेलियागढ़ी के बीच एक कैम्प में पहली बार चखा था।
जॉन फॉब्स रॉयल (1839) भी अपनी डायरी में लिखते हैं कि मैंने इसे बंगाल, बेहार (बिहार), उत्तर प्रदेश के बहुत इलाकों में चखा। आश्चर्य है कि अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में इसके स्वाद थोड़े अलग हो जाते हैं। हरेक जगह इस तिखुर की मूल वानस्पतिक प्रजाति अलग-अलग है। वे बताते हैं कि रुभागलपुर क्षेत्र में इसे ठवजंजंे मकनसपे से बनाया जाता है। यह अपेक्षाकृत अधिक शर्करायुक्त स्टार्च है।
जॉर्ज क्रिस्टोफर मॉलेसवर्थ बर्डवुड (1865) कहते हैं कि भागलपुर में तिखुर तैयार कर पटना, बनारस, चटगांव और दक्षिण भारत के त्रावणकोर के बड़े बाजारों तक पहुंचाया जाता है। यहां के लोग इसे बड़े चाव से खाते हैं। वैसे, तिखुर को आयुर्वेद में महत्वपूर्ण स्थान मिला है। तिखुर, मूत्ररोग नाशक, धातुवर्धक, पित्तशामक, रक्तशोधक जैसे गुणधर्म वाला है।
जानकारों का मानना है कि इलाके में श्वेत शकरकंद से तिखुर बनाया जाता था। इसे प्राचीन काल में यवज कहते थे। अनवरत यात्रा में रहने वाले पथिक इसे अपने साथ अवश्य रखते थे। सार्थवाहों की टोली इसे लेकर चलती थी। इसे देवताओं और यक्षों को भी समर्पित किया जाता था।
प्राचीन अंग क्षेत्र के अब छिन्न-भिन्न इलाके में आज भी जब सत्यनारायण प्रभु की कथा सुनी जाती है तो यवज के अभाव में आटा़ दूध़ नारियल के टुकड़े़ शक्कऱ घी़ गोलमिर्च मिलाकर रुशाकल (सकल उत्पाद का एक मानक रूप) तैयार कर आवश्यक रूप से समर्पित करने की परंपरा है। आप इसे देवघर समाज में भी देख सकते हैं।
इसे निर्मित करने की प्रक्रिया भी बहुत रोचक है। कंद को मिट्टी से निकालकर पहले पानी से साफ किया जाता था। इसकी जड़ें और छिलके हटा दिए जाते थे। फिर इसे साफ पानी में डाला जाता था। तदुपरांत इसके टुकड़े कर इसे बड़े सिल बट्टे में पीसा जाता था। पेस्ट बन जाने पर इसे कपड़े से छाना जाता था फिर हल्की आंच वाली आग पर या धूप में सुखाया जाता था। सूखने के बाद इसे कूटकर चने के बराबर के छोटे-छोटे टुकड़ों में कर लिया जाता था। अब यह तिखुर के रूप में तैयार हो जाता था।
इसका उपयोग व्रत वगैरह में अधिक किया जाता था। गर्म दूध में डालकर भी पकाने की इसकी कई विधियां थी। सुपाच्य होने के कारण बुखार से ग्रसित या घायल व्यक्तियों को भी यह दिया जाता था। सख्त दही बनाने में इसका प्रयोग किया जाता था।
अब बिहार या फिर भागलपुर आदि बाजारों में तिखुर सामान्य तौर पर नहीं मिलता है। इसके लिए जद्दोजहद करनी होती है। जो भागलपुर क्षेत्र इसका इतना बड़ा उत्पादक था वहां भी अब तिखुर ढुंढने पर मिलता है।
समय के साथ-साथ गिरती मांग के कारण लोगों ने इसकी किसानी छोड़ दी। अब तिखुर या यवज इतिहासिक उपन्यासों में, या फिर आयुर्वेदिक उपचारों में, या दादी-नानी की कथा-कहानियों में उपलब्ध है। इसके अलावे तिरहुत क्षेत्र में जब कभी कोई शौकीन परिवार सकरौरी बनवाता है या सत्यनारायण भगवान की कथा करवाता है तो तो उस प्रसाद में इसका उपयोग देखने को मिलता है।