पुष्पिंदर
‘‘18अब मैं अपनी पत्नी नगमा को क्या जवाब दूँगा, वह यह सुनकर टूट जाएगी, मेरे बच्चे की मौत की जिम्मेदार सरकार है।”
ये शब्द अजीम खान के हैं, जो अपने तीन दिन के नवजात बच्चे को नांदेड़ अस्पताल लेकर आया था, लेकिन डॉक्टरों ने उसे बताया कि सीजेरियन ऑपरेशन के दौरान बच्चे ने गंदा पानी पी लिया और उसकी हालत नाजुक हो गई और अब उसे वेंटिलेटर की जरूरत है। लेकिन डॉक्टरों की लापरवाही, दवाइयों और स्वास्थ्य मुलाजमों की कमी के कारण उसके नवजात बच्चे की मौत हो गई। उसने बताया कि वह परभणी जिले से 80 किलोमीटर का सफर करके अपने बच्चे की जिंदगी के लिए नांदेड़ आया था। लेकिन इस अस्पताल ने उसके बच्चे की जिंदगी छीन ली।
नांदेड का अस्पताल 1 अक्टूबर से चर्चा का विषय बना रहा, जहाँ 48 घंटों में 45 लोगों की मौत हो गई, जिसमें 31 बड़े और 14 नवजात बच्चे शामिल थे। 600 बिस्तरों वाला यह अस्पताल महाराष्ट्र के मराठवाड़ा और विदर्भ के क्षेत्रों के साथ-साथ तेलंगाना के सरहदी जिलों के लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएँ मुहैय्या करवाता है। इस अस्पताल की खस्ता हालत और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के बारे में प्रशासन को पहले भी रिपोर्ट की जा चुकी थी, लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, प्रशासन के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। सिर्फ यहाँ ही नहीं, औरंगाबाद के एक सरकारी अस्पताल में भी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण 14 लोगों की मौत हो गई।
इन ख़बरों के आने के बाद महाराष्ट्र सरकार में हड़कंप मच गया। शिंदे सरकार ने प्रेस बयान जारी करते हुए कहा कि वह जल्दी ही एक उच्च-स्तरीय कमेटी बनाकर इसकी जाँच करवाएँगे और दोषियों को सख़्त से सख़्त सजा दी जाएगी। लेकिन यह बयान भी सिर्फ मसले को रफा-दफा करने के लिए ही दिया गया। असल में इन मौतों के लिए यह खस्ताहाल सरकारी स्वास्थ्यगत ढाँचा और इसे खस्ताहाल बनाने वाली सारी पूँजीवादी सरकारें ही सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं।
12 करोड़ की आबादी वाले महाराष्ट्र राज्य में सिर्फ 70 बड़े अस्पताल और 2640 प्राइमरी स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (डिस्पेंसरियाँ) हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 1000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए, लेकिन यहाँ 10,000 लोगों पर भी एक डॉक्टर नहीं है। कुछ अंतरराष्ट्रीय पैमानों के अनुसार अच्छा स्वास्थ्यगत ढाँचा उसे माना जाता है, जहाँ सरकार अपनी सकल घरेलू पैदावार का 5 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर ख़र्च करे। लेकिन पिछले 15 साल से महाराष्ट्र में किसी भी सरकार ने 1 फीसदी से ज्यादा हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर नहीं ख़र्चा, बल्कि लगातार स्वास्थ्य बजट में कटौती की जा रही है। महाराष्ट्र का स्वास्थ्य बजट जो साल 2021-22 में 15,860 करोड़ रुपए था, वह वित्तीय साल 2023-24 में घटकर 14,726 करोड़ रह गया। इसलिए इन सारी ही मौतों के लिए सरकारी व्यवस्था पूरी तरह जिम्मेदार है।
पूरे देश में स्वास्थ्यगत ढाँचा के हालात महाराष्ट्र के हालातों से कोई भिन्न नहीं हैं! संयुक्त राष्ट्र विकास प्रोग्राम की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 10,000 लोगों पर सिर्फ एक डॉक्टर और पाँच बेड आते हैं, जो कि भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र की भयानक हालत को दर्शाते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ 167 देशों की सूची में भारत का 155वाँ नंबर है। देश में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी है। 1947 से लेकर अब तक किसी भी सरकार ने सकल घरेलू पैदावार का 5 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर कभी नहीं ख़र्चा, बल्कि लगातार इसमें कटौती ही की है। एक ओर तो चंदों की कमी के कारण सरकारी स्वास्थ्यगत ढाँचा ख़ुद वेंटिलेटर पर पड़ा है, वहीं यूनियन और राज्य सरकारें निजी अस्पतालों, दवाई कंपनियों पर मेहरबान होती हुईं लगातार इन्हें सुविधाएँ दे रही हैं। आज भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र पर निजी संस्थान हावी हो चुके हैं। इसी प्रकार मोदी सरकार लगातार सार्वजनिक सुविधाओं में कटौती करती जा रही है। इसने पिछले 8 सालों में ऊपर के 150 पूँजीपतियों का 12.08 लाख करोड़ का क़र्ज माफ किया है। लेकिन दूसरी ओर जनता इलाज महँगा होने के कारण मर रही है।
आज जनता को यह समझ लेना चाहिए कि ये मौतें कोई क़ुदरती नहीं, बल्कि इस व्यवस्था के द्वारा किए जा रहे क़त्ल हैं और मौजूदा पूँजीवादी सरकारें इस सबके लिए जिम्मेदार हैं, जो हमारी मेहनत की कमाई को टैक्स के रूप में इकट्ठा करती हैं और इससे पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरती हैं। आज जनता को संगठित होकर सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के अधिकार के लिए सरकारों पर दबाव डालने की जरूरत है।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)