हसन जमालपुरी
फिलहाल फिलिस्तीन को लचीला रवैया अपनाना चाहिए था। सच पूछिए तो दुनिया भार के मुस्लिम देश फिलिस्तीन के मुद्दे पर एक मत नहीं हैं। ऐसे देशों की संख्या ज्यादा है जो यह मान कर चल रहे हैं कि फिलिस्तीन-इजरायल समस्या का समाधान दो राष्ट्र के सिद्धांत से ही संभव है। इसलिए फिलिस्तीन की कूटनीतिक जीत यही होगी कि इजरायल भी यह मान ले कि फिलिस्तीन एक स्वतंत्र राष्ट्र है।
इधर फिलिस्तीन की तरफदारी के लिए लड़ रहा हमास किसी कीमत पर फिलिस्तीन की रहनुमाई नहीं करता है। उलट इस लड़ाई के कारण फिलिस्तीनियों को भारी संकट का सामना करना पड़ रहा है। हाल की लड़ाई में लगभग 25 हजार की संख्या में फिलिस्तीनी मारे गए हैं। लाखों की संख्या में घायल हुए हैं और कई लाख फिलिस्तीनियों को हमवतन छोड़ना पड़ा है। ऐसा क्यों हुआ, तो इसके पीछे का एक मात्र कारण हमास द्वारा इजरायल पर आतंकी आक्रमण है। फिलिस्तीन ही नहीं, फिलिस्तीन के प्रति सहानुभूति रखने वाले उन तमाम देशों को हमास के चंगुल से फिलिस्तीन को निकालने का प्रयास करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो फिलिस्तीन का और नुकशान होगा।
इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। एक व्यक्ति जिसके पास ताकत तो है लेकिन वह आवश्यकता पड़ने पर लचीलापन नहीं अपनाता, निस्संदेह हारेगा। दूसरी ओर, यदि वह शक्ति और लचीलापन शीघ्रता से लागू करते हैं, तो वे अपने प्रतिद्वंद्वी को जमीन पर पटक सकता है। इसकी वैकल्पिक व्याख्या, वीरतापूर्ण लचीलापन हो सकती है। जिसमें इमाम हसन की शांति संधि सबसे शानदार ऐतिहासिक चित्रण है। इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष लंबे समय से मध्य-पूर्व में तनाव और अशांति का कारण रहा है, जिसने दुनिया भर का ध्यान आकर्षित किया है। भारत ने हमेशा फिलिस्तीनी मुद्दे के लिए समर्थन दिखाया है। भारत एक सांस्कृतिक विविधता का वाला देश है लेकिन यह समर्थन इस सवाल को जन्म देता है कि मुसलमानों को गाजा पट्टी के प्रभारी समूह हमास के बारे में कैसा महसूस करना चाहिए? केरल में यूथ सॉलिडेरिटी मूवमेंट द्वारा आयोजित एक रैली में हमास नेता के वीडियो संबोधन को देखते हुए इस सवाल को और अधिक प्रमुखता मिल गई है।
फिलिस्तीन के लिए भारत का समर्थन फिलिस्तीन की जनता के लिए है। वहां जो इजरायली सैनिकों के द्वारा मानवाधिकारों का हनन किया जा रहा है उसको लेकर भारत फिलिस्तीनी जनता के साथ है। भारत फिलिस्तीन में न्याय, आत्मनिर्णय और दो-राज्य समाधान के सिद्धांतों के प्रति संकल्पित है। भारत ने सबसे पहले फिलिस्तीन को मान्यता प्रदान की थी। ऐसा 1988 से जारी है। भारत दुनिया के विभिन्न मंचों पर फिलिस्तीन को लेकर चिंता जताता रहा है। यही नहीं फिलिस्तीन से संबंधित प्रस्ताव का समर्थन करता रहा है। साथ ही समय-समय पर मानवी सहायता भी पहुंचाता रहा है।
अभी हाल में भी भारत ने फिलिस्तीन की जनता को मानवीय सहायता पहुंचाई है। यह सहायता फिलिस्तीन शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र राहत और कार्य एजेंसी (यूएनआरडब्ल्यूए) के द्वारा पहुंचाई गयी। भारत दुनिया के उन कुछ देशों में से है जो फिलिस्तीनी छात्रों के लिए छात्रवृत्ति और विकास पहलों को प्रतिबद्धता से संचालित कर रहा है।
गाजा में हमास के शासन को राजनीतिक विभाजन और फिलिस्तीनी प्राधिकरण के साथ संघर्ष द्वारा चिह्नित किया गया है, जिससे फिलिस्तीनियों के बीच एकता हासिल करना चुनौतीपूर्ण हो गया है। यह किसी भी सफल शांति वार्ता का महत्वपूर्ण पहलू है। लोकतांत्रिक वैधता से रहित गुट का समर्थन करना लोकतंत्र और स्वशासन के बुनियादी सिद्धांतों को नष्ट कर देता है। कई शांति पहलों को अस्वीकार करने के अलावा, हमास ने इजराइल के अस्तित्व के अधिकार को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है। ऐसे में शांति पहल को विफल करने वाले हमास जैसे संगठन का समर्थन करने से क्षेत्र में स्थायी शांति प्राप्त करना कतई संभव नहीं है।
हमास को प्रोत्साहित करने से क्षेत्रीय अस्थिरता बिगड़ सकती है और हिंसा की संभावना बढ़ेगी। जब हमास जैसे गैर-राज्य तत्व किसी संघर्ष क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो हमेशा नागरिक ही पीड़ित होते हैं। हमास जैसे संगठनों को यह समझना चाहिए कि यह दो गुटों के बीच संघर्ष के बजाय मानवाधिकारों की लड़ाई है। यह जरूरी है कि मुसलमानों और वैश्विक समुदाय को फिलिस्तीनी जनता के साथ खड़ा होना चाहिए और हमास का विरोध करना चाहिए। यह जरूरी है। भारत सरकार फिलिस्तीनी लोगों की स्थिति के प्रति सहानुभूति रखती है, भारतीयों, विशेषकर मुसलमानों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम संयुक्त राष्ट्र द्वारा आतंकवादी संगठन के रूप में नामित मिलिशिया हमास के साथ जुड़ने के बजाय राजनयिक और शांतिपूर्ण समाधान को बढ़ावा दें। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि एकमात्र समाधान फिलिस्तीनी नेताओं द्वारा समर्थित शांतिपूर्ण बातचीत है।
(आलेख में व्यक्त लेखक के विचार निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)