सार्थक
आज मेहनतकश जनता के सामने पर्यावरणीय विनाश और जलवायु संकट एक ऐसा मुद्दा बन चुका है जिससे हम मुँह नहीं मोड़ सकते। चाहे गर्मियों के महीनों में भयंकर लू हो, नवम्बर के महीने की दमघोंटू हवा हो, दिसम्बर-जनवरी में हड्डियों को चुभने वाली शीतलहर या हर साल ज्यादा तीव्र और नियमित होती जा रही बाढ़ या सूखे की आपदा हो। ’पर्यावरणीय विनाश से पैदा हुई इन आपदाओं की मार सबसे ज्यादा मेहनतकश जनता को ही झेलनी पड़ती है। वातानुकूलित घरों, ऑफिसों और गाड़ियों में बैठने वाले अमीरों को लू और शीतलहर का पता भी नहीं चलता लेकिन मेहनतकश आबादी के लिए, जो 12-12 घण्टे फैक्ट्रियों में अपनी हड्डियाँ गलाते हैं, झुग्गियों में रहते हैं और ठसाठस भरी बसों और जनरल बोगियों में सफर करते हैं, लू और शीतलहर जानलेवा होते हैं।
हम भूले नहीं हैं किस तरह इस साल के जून महीने में पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार में सैकड़ों लोग लू लगने के कारण मारे गये थे। दुनिया के 100 सबसे प्रदूषित शहरों में 90 शहर हमारे देश में ही हैं। उत्तरी भारत में प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण एक औसत इंसान की जीवन प्रत्याशा 8 साल काम हो गयी है। सर्दियों के शुरुआती दिनों में जब वायु प्रदूषण अपने चरम पर पहुँच जाता है तब दिल्ली, मुम्बई जैसे बड़े शहरों में सरकारें निर्माण गतिविधियों पर रोक लगा देती हैं जिससे निर्माण कार्य में लगे दिहाड़ी मजदूरों के पेट पर सीधे लात पड़ती है।
तेजी से बढ़ते पृथ्वी के तापमान के कारण अनाज और फल सब्जियों की पैदावार में गिरावट आती है और तात्कालिक तौर पर इनकी बाजार कीमतें बढ़ जाती हैं। पिछले साल अत्यधिक गर्मी के कारण वैश्विक स्तर पर गेहूँ और धान उत्पादन में क्रमशः 0.9 प्रतिशत और 0.3 प्रतिशत की गिरावट देखी गयी। इस साल जुलाई अगस्त में टमाटर की कीमतों ने जिस तरह आसमान छुए थे, उसका एक कारण था टमाटर उत्पादक राज्यों में हुई बेमौसम बारिश और बाढ़। हम देख सकते हैं कि जलवायु संकट आज न केवल धरती पर इंसानियत के अस्तित्व को खतरे में डाल रहा है, बल्कि मुनाफाखोर पूँजीवादी व्यवस्था में पहले से बेरोजगारी और कमरतोड़ महँगाई का दंश झेल रही मेहनतकश जनता की स्थिति को ज्यादा विकट बना रहा है, इसे गरीबी और भुखमरी के अंधेरे कुएं में ज्यादा गहराइयों में धकेल रहा है। लेकिन क्या यह जलवायु संकट और पर्यावरणीय विनाश महज प्राकृतिक आपदाएँ हैं जिनपर हमारा कोई वश नहीं है? नहीं! असामान्य रूप से बढ़ती लू, शीतलहर, बाढ़, सूखा आदि महज कोई प्राकृतिक आपदाएँ नहीं हैं बल्कि इस पूँजीवादी व्यवस्था की देन हैं। मुनाफे की हवस में अँधा पूँजीपति वर्ग आज प्रकृति का अन्धाधुन्ध दोहन कर रहा है जिसके घातक नतीजे हमें झेलने पड़ रहे हैं।
पिछले महीने ऑक्सफैम द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट ने यह दिखलाया है कि दुनिया के 1 प्रतिशत सबसे अमीर लोग 16 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के लिए और 10 प्रतिशत सबसे अमीर लोग 50 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। दुनिया के सबसे गरीब 66 प्रतिशत लोग, जिसमें हम और आप भी शामिल हैं, जितना कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करते हैं, उससे ज्यादा प्रदूषण दुनिया के 1 प्रतिशत लोग करते हैं। 2022 में 125 अरबपतियों ने अपने उद्योगों में औसतन 30 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन किया जबकि दुनिया की सबसे गरीब 90 प्रतिशत आबादी इस साल औसतन महज 3 टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। ग्रीनपीस फाउण्डेशन के अनुसार पिछले तीन सालों में यूरोप के अमीरों ने अपने निजी हवाई जहाजों से 53 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन किया है। भारत में भी ऐसे कई हजार अमीर आज मौजूद हैं, जो अपने निजी हवाई जहाजों से चलते हैं। जिन 1 प्रतिशत अमीरों ने पिछले दो साल में दुनिया में पैदा हुए कुल नये धन, यानी नये मूल्य, का दो-तिहाई हिस्सा हथिया लिया वही पूँजीपति प्रदूषण के लिए भी सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। यानी जो मेहनत की लूट के लिए जिम्मेदार हैं, वही कुदरत की तबाही के लिए भी जिम्मेदार हैं रू यानी, दुनिया के अमीरजादे, धन्नासेठ, कारख़ानादृमालिक, ठेकेदार, कुलक व धनी फार्मर, बिचैलिये, दलाल, ठेकेदार, सट्टेबाज। कुल मिलाकर कहें, तो पूँजीपति वर्ग।
1988 से अब तक हुए कुल औद्योगिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का 70 प्रतिशत दुनिया की केवल 100 सबसे बड़ी तेल, गैस और कोयला कम्पनियों ने किया है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार यह प्रदूषण जो अमीरजादे, पूँजीपति, धनी किसान और नेता-मंत्री अपने मुनाफे की दर और अय्याशी भरी जीवनशैली को बनाये रखने के लिए करते हैं, उसके कारण पृथ्वी के तापमान में होने वाली वृद्धि 13 लाख अतिरिक्त मौतों के लिए जिम्मेदार है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि ऐसे देश जहाँ आर्थिक असमानता ज्यादा है, वहाँ तुलनात्मक तौर पर बेहतर आर्थिक समानता वाले देशों के मुकाबले 7 गुना ज्यादा लोग बाढ़ से मरते हैं।
ऑक्सफैम की इस रिपोर्ट ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि पर्यावरणीय विनाश और जलवायु संकट महज कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है और न ही इसके लिए आम जनता जिम्मेदार है। मुट्ठीभर पूँजीपतियों ने मुनाफे की होड़ में जलवायु संकट को इतने भयानक स्तर पर पहुँचा दिया है कि पूँजीवादी दाता एजेंसियों के टुकड़ों पर पलने वाले ऑक्सफैम जैसे एनजीओ को भी आज यह लिखना पड़ रहा है, “करोड़पतियों की लूट और प्रदूषण ने धरती को विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। समूची इंसानियत आज अत्यधिक गर्मी, बाढ़ और सूखे से दम तोड़ रही है।” इस रिपोर्ट ने एक बार फिर यह दिखा दिया है कि पर्यावरण को बचाने का हमारा संघर्ष समाज में चल रहे आम वर्ग संघर्ष का ही एक हिस्सा है। पर्यावरण के क्षेत्र में चल रहे इस वर्ग संघर्ष में भी हम मजदूर वर्ग को ही नेतृत्वकारी भूमिका निभानी होगी।
जलवायु संकट और पर्यावरणीय विनाश का आमूलचूल समाधान इस पूँजीवादी व्यवस्था की चैहद्दियों में नामुमकिन है। इस धरती और इंसानियत को पूरी तरह तभी बचाया जा सकता है जब एक ऐसी व्यवस्था क़ायम होगी जो मुनाफे पर टिकी न हो बल्कि इंसानी जरूरतों को केन्द्र में रखती हो। लेकिन इस लम्बी लड़ाई के लिए कमर कसने के साथ साथ जलवायु संकट से कुछ तत्कालिक राहत पाने के लिए हमें सरकारों के सामने कुछ ठोस माँगें भी रखनी होंगी। अपनी लागत को कम रखकर मुनाफे की दर को बढ़ाने के लिए पूँजीपति उन उपकरणों को नहीं ख़रीदते जिनसे फैक्ट्रियों से निकलने वाला दूषित जल और हवा को या तो कम किया जा सकता है या उन्हें परिष्कृत किया जा सकता है। प्रदूषण नियंत्रण की आधुनिकतम तकनीक उपयोग में लाना उद्योगों के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए। जो नियम का पालन न करे उस पर जुर्माना होना चाहिए और दो चेतावनी के बाद कारखाना सरकार को अपने क़ब्जे में ले लेना चाहिए।
जब पूँजीपति और अभिजात्य वर्ग बेलगाम कार्बन उत्सर्जन के जरिये गृथ्वी का तापमान बढ़ाने के लिए सीधे जिम्मेदार है तो कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए जो खर्च होगा उसकी भरपाई भी सीधे पूँजीपति वर्ग को ही करनी चाहिए। जितने भी कल-कारखाने और ए.सी. लगे बड़े-बड़े मॉल, दफ्तर हैं उनपर भारी टैक्स लगाना चाहिए। अन्तरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के एक आकलन के अनुसार दुनिया को जीवाश्म ईंधन (यानी पेट्रोल, डीजल, आदि) से हरित ऊर्जा (ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत जो कम प्रदूषण करते हैं) में संक्रमण के लिए सालाना लगभग 25 खरब डॉलर अतिरिक्त खर्च करना होगा। ऑक्सफैम की ही एक अलग रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सबसे अमीर 36 लाख करोड़पतियों और अरबपतियों पर 2 से 5 प्रतिशत का प्रगतिशील सम्पत्ति कर लगाकर सालाना यह 25 खरब डॉलर वसूला जा सकता है।
भारत में जीवाश्म ईंधन से हरित ऊर्जा में संक्रमण के लिए जो खर्च होगा उसे सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोगों पर 2 प्रतिशत सम्पत्ति कर लगाकर 10 साल के भीतर हासिल किया जा सकता है। जनता के दबाव में तमाम देशों की सरकारें अगर अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाती भी हैं तो इसके लिए जो खर्च होता है वो जनता से अप्रत्यक्ष कर बढ़ाकर वसूला जाता है। मेहनतकश जनता की जेब पर डाका डालकर पूँजीपतियों को सौर ऊर्जा प्लाण्ट और पवन चक्की लगाने के लिए हजारों करोड़ रुपये सब्सिडी और कौड़ी के भाव जमीन दी जाती है। इसी साल अम्बानी और टाटा ने नये सौर ऊर्जा प्लाण्ट के लिए 1950 करोड़ रुपये सरकारी सब्सिडी के लिए टेंडर भरा है। एक ओर ये कम्पनियाँ तेल और कोयला का व्यापार करके पर्यावरण का विनाश करते हैं, वहीं दूसरी ओर पर्यावरण को बचाने के नाम पर हरित ऊर्जा में निवेश करते हैं और उससे भी ताबड़तोड़ मुनाफा कमाते हैं। इसलिए पूँजीपतियों पर प्रगतिशील सम्पत्ति कर लगाकर जीवाश्म ईंधन से हरित ऊर्जा में जल्द से जल्द संक्रमण के लिए सरकार पर दबाव बनाना होगा। इसके अलावा कार्यस्थल पर गर्मी से बचने के लिए उपयुक्त वर्दी, दस्ताने, जूते, ठण्डा पानी, अच्छे हवादार कमरे, नियमित अन्तराल में ब्रेक, आराम करने की जगह और लू के दिनों में वेतन के साथ छुट्टी हमारी जायज माँग है। यह पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर उठायी जाने वाली वे जनवादी माँगें हैं, जो मौजूदा लुटेरी व्यवस्था को उसके असंभाव्यता बिन्दु पर ला सकती हैं। निश्चय ही, पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी की भूमिका निभाने वाली पूँजीवादी सरकारें ये जायज माँगें मानें इसकी गुंजाइश कम है। ऐसे में, मौजूदा व्यवस्था बेनकाब होगी, व्यापक जनता के सामने उसकी असलियत सामने आयेगी और उसका राजनीतिक संकट गहरायेगा।
आये दिन दुनियाभर के वैज्ञानिक और पर्यावरण विशेषज्ञ ठोस आँकड़ों के आधार पर यह चेतावनी दे रहे हैं कि दुनिया को विनाश से बचाने का समय निकलता जा रहा है। लेकिन इस महीने एक बार फिर सभी देशों के हुक्मरान दुबई में इकट्ठा हुए सीओपी-28 के मंच से जलवायु संकट पर छाती पीटने और घड़ियाली आँसू बहाने के लिए। पर्यावरण विनाश को रोकने के लिए कौनसा देश कितना आर्थिक योगदान करेगा, इस मुद्दे पर सम्मेलन में हुक्मरानों के बीच कुत्ताघसीटी चल रही है। दूसरी ओर 2023 आधिकारिक तौर पर इतिहास का सबसे गर्म वर्ष घोषित हो गया है। समय हमारे पास वाकई कम है। सवाल यह है कि क्या हम हाथ पर हाथ धरे धरती को विनाश की ओर बढ़ते देखते रहें? या आने वाली नस्लों को रहने योग्य धरती सौंपें और इसके लिए व्यापक जन समुदायों को जलवायु संकट और पर्यावरण विनाश के मुद्दे पर संगठित करें! हमें जनता की युगान्तरकारी और अजेय शक्ति पर भरोसा रखना चाहिए, व्यापक जनसमुदायों के बीच इस मसले पर वर्गीय दृष्टि से प्रचार करते हुए बताना चाहिए कि मौजूदा जलवायु संकट व पर्यावरणीय विनाश कोई स्वतरूस्फूर्त हुई या प्राकृतिक चीज नहीं है, बल्कि मौजूदा मुनाफाखोर पूँजीवादी व्यवस्था की पैदावार है। इसे नष्ट करके ही मेहनत और कुदरत दोनों की लूट का खात्मा हो सकता है।
(आलेख मजदूर बिगुल के जनवरी 2024 अंक से लिया गया है। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)