गौतम चौधरी
इतिहास राजाओं का होता है। मसलन, राजाओं की वीरता और शौर्य से इतिहास अटा-पटा है लेकिन साम्राज्य व सभ्यताओं में व्यापक योगदान के बाद भी महिलाओं को अतीत की दीवारों में मानों चुन दिया गया हो। यह इतिहास लेखन की परंपरा में लिंग भेद को दर्शाता है। आज हम मुगलिया सल्तनत के उस महिला की चर्चा करने जा रहे हैं, जो सल्तनत की नींव रखने वाले जहीरूद्दीन मोहम्मद बाबर की बेटी थी।
ये कहानी सन 1576 की है जब हिंदुस्तान की सरजमीं पर मुगलिया सल्तनत का परचम लहरा रहा था और दुनिया एक बड़े भूभाग पर ऑटोमन साम्राज्य कायम था। हिंदुस्तान में अकबर शहंशाह थे तो ऑटोमन साम्राज्य का ताज सुल्तान मुराद अली के सिर पर था। हालांकि अधिकतर इतिहासकार इस बात को छुपाते हैं कि बाबर को ओटोमन साम्राज्य का साथ नहीं मिला और बाबर ने अकेले दम पर हिन्दुस्तान फतह किया लेकिन यह सत्य नहीं है। बाबर जब हिन्दुस्तान की ओर रुख किया तो उसने ओटोमन साम्राज्य से सहमति प्राप्त की और ओटोमन ने बाबर को बाकायदा उस जमाने के सबसे घातक एवं अति आधुनिक हथियार, कई तोपखाने उपलब्ध कराए। उन दिनों ओटोमन के पास दुनिया के सबसे संगठित व ताकतवर सैनिक तथा आधुनिक हथियार थे। ओटोमन ने रोमन साम्राज्य के एक हिस्से, क़ुस्तुंतुनिया पर फतह तोपखाने के द्वारा किया था। उन दिनों तोपखाने ओटोमन की ताकत को बढ़ा दिया था और दुनिया का सबसे ताकतवर साम्राज्य बना दिया था। जब बाबर हिन्दुस्तान की ओर रुख किया तो वही तोपखाना ओटोमन ने उसे प्रदान की थी, जिसके बदौलत बाबर हिन्दुस्तान पर फतह कर पाया। इस एहसान के लिए मुगल लंबे समय तक ओटोमन को नजराना पेश करते रहे। कुछ मुगलिया सुल्तानों ने थोड़े दिनों के लिए इसे बंद जरूर किया लेकिन हज के दौरान मुगल बादशाह ओटोमन को एक निश्चित धार्मिक कर जरूरर अदा करते रहे। यह कभी बंद नहीं हुआ। इससे यह साबित होता है कि मुगल ओटोमन के ही एक क्षत्रप के रूप में भारत पर शासन करते रहे और जब वर्ष 1857 में मुगल बादशाह, बहादुर शाह जफर को फिरंगियों ने अपदस्थ किया तो ओटोमन खलीफा ने उसका विरोध किया। इसी कारण वर्ष 1924 में फिरंगियों ने ओटोमन यानी तुर्की में खिलाफत को समाप्त कर वहां अतातुर्क मुस्तफा कमाल पाशा को राष्ट्राध्यक्ष बना दिया।
खैर, हमारा आज का विषय बाबर की बेटी है। हम आज की चर्चा उसी वीरांगना पर केन्द्रित कर रहे हैं। बाबर की रगों में तुर्क और मंगोल दोनों महान जातियों के रक्त प्रवाहित हो रहे थे। वह जब फरगना से चला तो पहले काबुल फतह किया। वहीं वर्ष 1523 में दिलदार बेगम ने एक बच्ची को जन्म दिया, जिसका नाम गुलबदन रखा गया। दिलदार बाबर की तीसरी पत्नी थी। गुलबदन के जन्म के वक्त बाबर घर से दूर रहते हुए हिंदुस्तान पर चढ़ाई करने की योजना बना बना रहे थे। जब ये जंगें शुरू हुईं तो बाबर का घर आना कम हो गया। गुलबदन जल्द ही इसकी अभ्यस्त भी हो गयी। गुलबदन यदाकदा ही अपने पिता से मिला करती थी। बाद के दिनों में भी कुछ ऐसा ही संयोग रहा। उसके अपने सौतेले भाई हुमायंू और अकबर से भी वह कम ही मिला करती थी। लेकिन जब शाही खानदान के पुरुष साम्राज्यों को विस्तार देने के लिए जंगें लड़ रहे थे तब गुलबदन मजबूत महिलाओं के साये में बड़ी हो रही थीं। ये महिलाएं बाबर की माँ, चाची, बहनें, बेगम और उनकी बेटियां थीं। इतिहासकारों की मानें तो इन महिलाओं की दरबारी गतिविधियों में अहम भूमिका थी। वे राजाओं और राजकुमारों के विश्वासपात्रों और सलाहकारों की भूमिका निभाती थीं। गुलबदन के बचपन में भी यात्राओं की एक खास जगह थी। बाबर के आगरा तक साम्राज्य फैलाने के बाद वह छह साल की उम्र में काबुल से आगरा तक की यात्रा करने वाली पहली मुगल महिला बनी। इसके बाद उसका निकाह हो गया और वह काबुल वापस लौट गयी। जब अफगान सुल्तान, शेरशाह सूरी ने उनके परिवार को हिंदुस्तान से खदेरा तो उसे भी भारत छोड़ना पड़ा। बेहद परेशानी में वह और उसके परिवार की महिलाओं ने लंबी यात्रा कर काबुल गए। ये यात्राएं महीनों तक जारी रही थी। गुलबदन बेगम शाही परिवार की दूसरी महिलाओं के साथ पहाड़ी रास्तों से गुजरते हुए जोखमि भरी यात्राएं किया करती थी। इन यात्राओं के दौरान वह दुश्मनों के साथ-साथ तमाम दूसरी मुश्किलों का भी सामना करती थी। इतिहासकार बताते हें कि मुगलिया महिलाएं मंगोल महिलाओं की तहर खानाबदोश जीवनशैली की अभ्यस्त थी। वे युद्ध लड़ रहे अपने पुरुष संबंधियों के साथ लगातार नयी जगहों पर पलायन करने और अस्थाई शिविरों में रहने की अभ्यस्त थी।
बेगम गुलबदन देखने में जितनी सुंदर थी उतनी ही बुद्धिमान भी बताई जाती है। उसे फारसी और तुर्की की अच्छी समझ थी। बहुत छोटी उम्र में उनके पिता का देहांत हो गया था और उनकी सौतेली मां, रानी माहम बेगम ने उन्हें गोद ले लिया। माहम बेगम बादशाह हुमायूं की मां थीं और गुलबदन का बचपन बादशाह हुमायूं की ही देखरेख में गुजरा। उन्हें बचपन से पढ़ने का बहुत शौक था और वे फारसी और अपनी मातृभाषा तुर्की में कविताएं भी लिखा करती थीं। वे अपने भतीजे, राजकुमार अकबर के बहुत करीब थीं और उन्हें रोज कहानियां सुनाया करती थीं।
जब अकबर बादशाह बने, उन्होंने अपनी बुआ से गुजारिश की कि वे उनके पिता हुमायूं की जीवनी लिखें। मुगल बादशाह अक्सर लेखकों से अपनी जिंदगी की कहानी लिखवाते थे। अकबर ने खुद अपनी जीवनी ‘अकबरनामा’ अबुल फजल से लिखवाई थी और बाबर खुद ही ‘बाबरनामा’ के लेखक थे। अकबर ने गुलबदन को ‘हुमायूं नामा’ लिखने का सुझाव दिया क्योंकि उन्हें उनकी कहानियां सुनाने की शैली बहुत पसंद थी और वे अपने पिता के बारे में और जानना भी चाहते थे। अपने बुढ़ापे तक गुलबदन बेगम ने ‘हुमायूं नामा’ लिखने का काम किया। उस समय शाही परिवार के लोगों के बारे में बहुत श्रृंगार-युक्त भाषा में लिखने का चलन था। उनके बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बोलने का और उन्हें इंसान कम और किसी देवता की तरह ज्यादा चित्रित करने का भी चलन था। ऐसा हर राजा के बारे में हो जाता है। पर गुलबदन बेगम के लेखन में ऐसा कुछ नहीं था। वे बिल्कुल सीधी-सादी सरल भाषा में लिखतीं थीं और किसी तरह की अतिशयोक्ति या रस का प्रयोग नहीं करतीं थीं। बाबर ने भी ‘बाबरनामा’ इसी सीधी-सादी आम भाषा में लिखा था और गुलबदन बेगम ने शायद अपने पिता से प्रेरणा ली।
अपने बुढ़ापे तक गुलबदन बेगम ने ‘हुमायूं नामा’ लिखने का काम किया और यह 16वीं सदी का इकलौता दस्तावेज है जो शाही परिवार की किसी औरत ने लिखा है। हुमायूं नामा में गुलबदन बेगम ने सिर्फ बादशाह हुमायूं और उनके शासन के बारे में ही नहीं लिखा। एक मुगल परिवार में रोजमर्रा की जिंदगी कैसी होती है, इसका भी बखूबी चित्रण किया है। मुगल जनानखाने के अंदर के जीवन का उन्होंने विस्तार में वर्णन किया है और इस तरह मुगल साम्राज्य का इतिहास पहली बार एक औरत के नजरिए से दुनिया के सामने आया। जनानखाने की औरतों के आपसी रिश्ते, उनकी रोज की गतिविधियां और उनके दिल की बातें, सब कुछ गुलबदन बेगम ने अपनी इस कृति में बखाना है।
जहां आमतौर पर इतिहास में राजा-महाराजाओं के शौर्य और वीरता की गाथाओं से पन्ने भर दिए जाते हैं, गुलबदन बेगम ने हुमायूं और बाबर का चित्रण हिंदुस्तान के शहंशाह के तौर पर ही नहीं, साधारण इंसानों के तौर पर भी किया है। वे बड़े चाव से हुमायूं और अपनी सहेली हामिदा की प्रेम कहानी का जिक्र करती हैं। किस तरह हामिदा पहले तो शादी के लिए मंजूर नहीं थी पर बाद में हुमायूं का प्रेम प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। वे अपने पिता की मृत्यु की कहानी भी बताती हैं। वे बताती हैं कि जब हुमायूं 22 साल की उम्र में अचानक बीमार पड़ गए थे तब बाबर किस तरह अंदर से टूट चुके थे। दिन-रात बाबर अपने बेटे के बिस्तर के चारों ओर घूमते रहते और खुदा का नाम ले लेकर रोते रहते थे। इसी तरह एक दिन हुमायूं अचानक ठीक हो गए और उसके कुछ ही दिनों बाद बाबर अचानक चल बसे। हुमायूंनामा में घर की महिलाओं, कर्मचारियों आदि के जीवन पर प्रकाश डाला गया है। इसलिए इतिहास के अध्ययन के लिए ये कृति बेहद जरूरी है क्योंकि ये उन लोगों की कहानी बताती है जो समाज और शाही जिंदगी के हाशिए पर जी रहे थे। ये अफसोस की बात है कि आज हमारे पास हुमायूं नामा की एक ही प्रति उपलब्ध है। हुमायूं नामा के कुछ पन्ने ही अब उपलब्ध हैं। फटी पुरानी इस प्रति के कई पन्ने लापता हैं। जहां तक संभव हो, इन पन्नों को एकत्र किया गया है और आज ये किताब लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम में रखी है। साल 1901 में अंग्रेज इतिहासकार ऐनेट बेवरिज ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया, जो साल 2001 में भारत में उपलब्ध हुआ। साल 2006 में बंगाली में भी इसका अनुवाद किया गया। गुलबदन बेगम को इतिहास के पन्नों में वही जगह मिलनी चाहिए जो आमतौर पर उनके समकालीन पुरुषों को मिलती हैं। गुलबदन मुगल परिवार की एक वरिष्ठ सदस्य ही नहीं, एक प्रतिभाशाली इतिहासकार के रूप में भी वह स्थापित हैं। मुगल शासनकाल के अध्ययन में उनका योगदान बहुत अहम है और उन्हें बीती सदियों की श्रेष्ठ लेखिकाओं में जरूर गिना जाना चाहिए।
गुलबदन बेगम पर एक और कहानी चर्चित है। उसने एक बार अपनी सहेलियों और संबंधी महिलाओं के साथ मक्का-मदीना की भी यात्रा की। यह शायद पहली मुगल महिलाओं की मक्का यात्रा थी। उस यात्रा के किस्से भी मशहूर हैं। मुगलकालीन भारत में ये पहला मौका था जब कोई महिला पवित्र हज यात्रा पर गयी। हज को इस्लाम के पांच आधार स्तंभों में से एक माना जाता है।
ये मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर की बेटी गुलबदन बेगम की कहानी है जिन्होंने 53 साल की उम्र में फतेहपुर सीकरी की आरामदायक दुनिया छोड़कर एक ऐसी यात्रा पर जाने का फैसला किया जो अगले छह सालों तक जारी रही। गुलबदन बेगम इस यात्रा पर अकेले ही नहीं गईं बल्कि उन्होंने अपने साथ जाने वाली शाही महिलाओं के एक छोटे से समूह का नेतृत्व भी किया। लेकिन अपने आप में शानदार रही इस यात्रा से जुड़े ब्योरे रिकॉर्ड में उपलब्ध नहीं हैं। इतिहासकार मानते हैं कि शायद इसकी एक वजह ये रही हो कि दरबार के पुरुष इतिहासकारों ने महिला यात्रियों के ‘मान-सम्मान’ के नाम पर उनकी यात्रा से जुड़े तथ्यों को जाहिर नहीं किया।
गुलबदन बेगम की इस यात्रा में बहादुरी के साथ-साथ करुणा और विद्रोह से जुड़ी घटनाएं भी शामिल हैं। गुलबदन की यात्रा का ब्योरा मुगलिया इतिहास में तो उपलब्ध नहीं है लेकिन ओटोमन दस्तावेजों में इसकी चर्चा जरूर मिलती है। इतिहास के पन्नों पर यदि नजर डालें तो अकबर का सबसे बड़ा सपना मुगलिया सल्तनत का परचम फहराना था। वह जैसे-जैसे हिन्दुस्तान में आगे बढ़ रहे थे, वैसे-वैसे खुद को एक पवित्र शख्स के रूप में दिखाने की कोशिश कर रहे थे। वो पहला ऐसा मुगल बादशाह बना जिसने मुगल महिलाओं को बिल्कुल अलग-थलग कर हरम की चारदीवारी के अंदर रखने का फैसला किया। शाही हरम में बादशाह के अलावा किसी को भी जाने की इजाजत नहीं थी। इस हरम में सुंदर और कुंवारी लड़कियां रहती थीं। यह एक तरह से इस बात का सबूत था कि मुगल बादशाह की स्थिति लगभग दैवीय है। अकबर के समय जिंदगी में आए इस ठहराव ने गुलबदन को परेशान कर दिया। साल 1576 के अक्टूबर महीने में उन्होंने अकबर से कहा कि वह हज करने जाना चाहती है क्योंकि उन्होंने इसके लिए मन्नत मांगी थी। अकबर ने इस यात्रा के लिए दो आलीशान मुगल जहाजों सलीमी और इलाही को इस्तेमाल करने की इजाजत दी। इस महिला दल के साथ सोने – चांदी से भरे बक्से रखे गए जिन्हें खैरात के रूप में बांटा जाना था। इसके साथ ही हजारों रुपये कीमत की नकदी और बारह हजार सम्मान की पोशाकें भी गयीं।
बताया जाता है कि जब लाल पत्थर वाली मुगलिया राजधानी फतेहपुर सीकरी की गलियों से इन महिलाओं का काफिला गुजर रहा था तो इन्हें देखने के लिए सड़कों पर आम महिलाओं और पुरुषों की भीड़ मौजूद थी। लेकिन इस यात्रा की शुरुआत ही खतरों से हुई। मक्का जाने वाला समुद्री रास्ता पुर्तगालियों के नियंत्रण में था जो मुसलमान जहाजों को लूटने और जलाने के लिए कुख्यात थे। ईरान से होकर जाने वाला जमीनी रास्ता भी इतना ही जोखिम भरा था क्योंकि इस रूट पर चरमपंथी गुट हावी थे। ये यात्रियों पर हमला कर देते और उन्हें लूट लेते थे। ये गुट यात्रियों की हत्या भी कर देते थे। इसी वजह से गुलबदन और उनके साथ गई महिलाएं लगभग एक साल तक सूरत में फंसी रहीं ताकि वे अपनी यात्रा के दौरान पुर्तगालियां से बच सकें। इसके बाद वे अगले कुछ दिनों तक तक गर्म रेगिस्तान पर ऊंट की सवारी करके मक्का पहुंचीं।
उनकी इस यात्रा का सबसे दिलचस्प पहलू मक्का पहुंचने के बाद आया क्योंकि उन्होंने अपने साथ गयीं महिलाओं ने अगले चार सालों तक अरब दुनिया में रहने का फैसला किया। जिस तरह वे हरम छोड़ने पर एकमत थीं उसी तरह अरब में रहने पर भी वह एकमत थी। गुलबदन और उनकी साथी महिलाओं ने जब अरब में दान देना शुरू किया तो उनकी हर जगह चर्चा होने लगी। मुगलिया सल्तनत की राजकुमारी गुलबदन बेगम की ओर से किए जा रहे दयालुता से भरे इन कार्यों ने ओटोमन सुल्तान के कान खड़े कर दिए। क्योंकि उसने इसे अकबर की बढ़ती राजनीतिक शक्ति के रूप में देखा। ऐसे में ओटोमन सुल्तान ने अपने लोगों को चार शाही फरमान भेजकर गुलबदन और उनके साथ गयीं मुगलिया महिलाओं को अरब दुनिया से बेदखल करने को कहा। लेकिन गुलबदन ने हर बार ये फरमान मानने से इनकार कर दिया। एक मुगल महिला की ओर से विद्रोह की ये अभूतपूर्व घटना थी। वह अपनी आजादी को लेकर कितनी समर्पित थीं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है। इसके बाद सुल्तान ने उनकी जिद से आजिज आकर इन महिलाओं के खिलाफ तुर्की भाषा में एक ऐसे शब्द का इस्तेमाल किया जिससे अकबर नाराज हो गए। इस पांचवें फरमान के बाद 1580 में गुलबदन और उनकी साथी महिलाएं अरब से निकलकर दो साल की लंबी यात्रा के बाद 1582 में फतेहपुर सीकरी पहुंचीं। उनकी वापसी के बाद उन्हें नवाब के तौर पर मान्यता प्रदान कर दी गयी। फिर अकबर ने उन्हें अकबरनामा में योगदान देने को भी कहा। अकबरनामा में गुलबदन बेगम की इस यात्रा का विस्तार से जिक्र है। लेकिन अरब दुनिया में उनके बिताए वक्त और सुल्तान मुराद की ओर से बाहर निकालने से जुड़ी घटनाओं का जिक्र नहीं मिलता है।
(कई इतिहास की पुस्तक एवं इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्रियों का यह संपादित अंश है।)