सामोहिक शक्ति का जागरण चाहती है तो सांस्कृतिक नहीं समावेशी राष्ट्रवाद के चिंतन को आत्मसात करे भाजपा

सामोहिक शक्ति का जागरण चाहती है तो सांस्कृतिक नहीं समावेशी राष्ट्रवाद के चिंतन को आत्मसात करे भाजपा

हर विधानसभा स्तर पर मानदेय युक्त यानी वेतनभोगी पूर्णकालिक कार्यकर्ता। पन्ना प्रमुख स्तर तक सांगठनिक नेटवर्क। राष्ट्रीय से लेकर मंडल स्तर तक कार्यसमिति का विस्तार। प्रत्येक प्रांतों में जीवनदानी पूर्णकालिक संगठनमंत्रियों की बड़ी फौज। संगठन में प्रत्येक वर्ष योग्य कार्यकर्ता निर्माण के लिए कार्यशाला, प्रशिक्षण आदि का आयोजन। धर्म, संस्कृति, पहचान और राष्ट्रवाद के आधार पर ध्रुवीकरण के लिए सोशल मीडिया व आईटी विशेषज्ञों की बड़ी टीम। दैनदिन की आरएसएस वाली शाखा। कॉलेज विद्यार्थियों के बीच पैठ बनाने के लिए देश नहीं दुनिया का सबसे बड़ा छात्र संगठन। मजदूर और किसानों को लुभाने के लिए अलग से संगठन आदि के बाद भी यदि भारतीय जनता पार्टी 2024 का लोकसभा हार जाती है, या सीटें घट जाती है तो यह शोध का विषय होना चाहिए। यही नहीं, शोध का विषय तो यह भी होना चाहिए कि इतना सब होने के बाद यदि भारतीय जनता पार्टी को सीटें कम आती है तो इस देश में प्रगतिशील व साम्यवादी जमात इतना कमजोर क्यों है? आने वाले समय में इन दोनों विषयों पर पड़ताल की जरूरत पड़ेगी।

लोकसभा आम चुनाव 2019 से बिल्कुल भिन्न स्तर पर 2024 का चुनाव लड़ा जा रहा है। इस चुनाव में कई बातें नयी दिख रही है। उदाहरण के तौर पर भाजपा की अक्रामकता 2019 वाली नहीं है। इस चुनाव भाजपा ने एक नया नैरेटिव सेट किया है कि कार्यालय पर कार्यकर्ताओं की भीड़ अच्छी बात नहीं है। कार्यकर्ताओं को क्षेत्र में अधिक से अधिक अपना समय देना चाहिए। इसलिए इस बार भाजपा कार्यालयों पर इस बार सीमित भीड़ देखने को मिल रही है। इस बार प्रचार सामग्री भी बहुत कम मात्रा में वितरित किए जा रहे हैं। प्रचार सामग्री कार्यकर्ताओं के द्वारा वितरित नहीं किया जा रहा है। उसके लिए नयी व्यवस्था खड़ी की गयी है। सभी बड़ी पार्टियों का प्रचार सोशल मीडिया और डिजिटल माध्यमों पर केन्द्रित हो गया है। इस चुनाव में जहां एक ओर महाबली भारतीय जनता पार्टी और उनके साथी हैं, तो दूसरी ओर जरजर कांग्रेस और उनके सहयोगी दल। संगठन, तंत्र, व्यवस्था और संसाधन की दृष्टि से भाजपा के सामने इंडिया गठबंधन बेहद कमजोर दिख रही है, बावजूद इसके पूरे देश में भाजपा का टक्कर कांग्रेस और उनके साथियों के साथ ही हो रहा है। अनुमान के अनुसार इस बार उत्तर के हिन्दी पट्टी में उत्तर प्रदेश को छोड़ कर शेष अन्य राज्यों में भाजपा पूर्व की तुलना में कमजोर पड़ रही है। इस बार पश्चिम बंगाल और असम में भी भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं बतायी जा रही है।

असम के मुख्यमंत्री डॉ. हेमंत विश्व सरमा के बड़बोलेपन ने असम में भाजपा का सत्यानाश कर रखा है। बिहार में भाजपा ने जो अपने संगठन में सामाजिक अभियंत्रण किया उसका नकारात्मक प्रभाव दिख रहा है। छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश और राजस्थान में आलाकमान के द्वारा मनमाने तरीके से मुख्यमंत्री का चयन भी भाजपा को परेशान कर रहा है। गुजरात में पुरुषोत्तम रूपाला जैसे डफोड़संखी नेताओं ने भाजपा की किड़किड़ी कर दी है। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में पहाड़ीवाद को भाजपा साध नहीं पा रही है। झारखंड में ऐन वक्त, पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को जेल भेज भाजपा आफत मोल ले ली। इधर बाबूलाल मरांडी को प्रदेश अध्यक्ष बना भाजपा नयी समस्या मोल ले ली। झारखंड में तो अब यह जुमला चल पड़ा है कि बाबूलाल मरांडी की पूर्व पार्टी जेवीएम का भाजपा में नहीं, भाजपा का जेवीएम में विलय हो गया है। बाबूलाल अपने साथ लाए नेता और कार्यकर्ताओं पर ही ध्यान केन्द्रित किए हुए हैं, बांकी की पूरी पार्टी ठगा महसूस कर रही है।

महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, बिहार, झारखंड, असम, छत्तीसगढ़ गुजरात, राजस्थान, उत्तराखंड आदि राज्यों में भाजपा की सीट कम होने के आसार दिख रहे हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश में सीट बढ़ सकती है। दक्षिण भारत में तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश, तामिलनाडु सीट बढ़ेगी। प्रेक्षकों का तो यहां तक कहना है कि इस दफा भाजपा केरल में भी अपना खाता खोलने जा रही है। कर्नाटक में भी भाजपा की सीट घट सकती है लेकिन कुल मिलाकर दक्षिण इस बार भाजपा के लिए शुभसंकेत लेकर आ सकता है।

जिस प्रकार की संभावना व्यक्त की जा रही है, अगर ऐसा ही प्रतिफल हुआ तो भाजपा को एक बार नहीं कई बार सोचना चाहिए। भाजपा के रणनीतिकारों को भी अपनी रणनीति में बदलाव लाना चाहिए। भाजपा अपने संसाधन का लगभत आधा से अधिक खर्च संघ परिवार वाले संगठन पर करती है। इस चुनाव यदि प्रतिफल सकारात्मक नहीं आए तो फिर ऐसे संगठनों पर संसाधन के बड़े हिस्से का निवेश तो फिजूलखर्ची ही कहाएगी। भाजपा को इस मामले में तसल्ली से सोचना होगा।

दूसरी बात यह है कि इस चुनाव राम और राम मंदिर का मुद्दा बेहद कमजोर पड़ता दिख रहा है। यदि आक्रामक हिन्दुत्व के मुद्दे पर भाजपा वोट नहीं प्राप्त करती है तो पार्टी को अन्य मुद्दे पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। मुसलमानों ने अच्छे संकेत दिए हैं। इधर ईसाई समुदाय के लोगों ने भी भाजपा के प्रति अपने रवैये में लचीलापन दिखाया है। छत्तीसगढ के विधानसभा चुनाव में ईसाइयों ने कांग्रेस की तुलना में भाजपा को ज्यादा वोट दिए। इसके कई उदाहरण सामने आ चुके हैं। केरल में यदि भाजपा का खाता खुलता है तो वह ईसाइयों के कारण ही संभव हो पाएगा। पूर्वोत्तर के ईसाई भाजपा के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाए हुए हैं। ऐसे में भाजपा को अन्य अल्पसंख्यक समुदायों पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के स्थान पर समावेशी राष्ट्रवाद का नारा देना चाहिए। इससे भाजपा का तो भला होगा ही, साथ ही देश में सामोहिक शक्ति का उदय होगा, जिसके आधार पर भारत आसन्न चुनौतियों का सामना करने में सफल हो पाएगा।

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