अपने आप में अद्भुत है धर्म के प्रति सत्ता का भारतीय दृष्टिकोण

अपने आप में अद्भुत है धर्म के प्रति सत्ता का भारतीय दृष्टिकोण

भारत, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। वैसे दुनिया के अधिकतर देश लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात किए हुए है लेकिन भारत उन तमाम मुल्कों से भिन्न है। यहां के लोकतंत्र की सराहना दुनियाभर में होती है। यदि दुनिया के प्रभावशाली लोकतांत्रिक देशों की बात करें तो संयुक्त राज्य अमेरिका का नाम सबसे उपर है। अमेरिका के संविधान की प्रस्तावना में ही यह कहा गया है कि वह दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए कृतसंकल्पित है। बावजूद इसके अमेरिका में आबतक ईसाई छोड़ कोई दूसरे धर्म का व्यक्ति राष्ट्रपति नहीं चुना गया। दुनिया के तमाम ईसाई बाहुल्य देशों में ऐसी ही व्यवस्था है। वहां किसी गैर ईसाई को राजनीतिक या प्रशासनिक शीर्ष पर पहुंचना आज भी नामुमकिन है। यदि किसी विशेष परिस्थिति में वह वहां पहुंच भी गया तो उसका टिकना आसान नहीं है। इसके कई उदाहरण हैं। उसी प्रकार मुस्लिम देशों में भी गैर-इस्लामिक व्यक्ति को सत्ता के शीर्ष पर नहीं पहुंचने दिया जाता है। अधिकतर मुस्लिम बाहुल्य देशों के संविधान में यह बात दर्ज है। दुनिया के एक मात्र देश भारत ही है, जहां सत्ता धर्म की परीधि से बाहर है। यह सत्ता पर धर्म का प्रभाव नाम मात्र का है। हालांकि कई बार ऐसा लगता है कि सत्ता पर धर्म हावी हो गया है लेकिन बार-बार भारत का लोकतांत्रिक मूल्य इस महान लड़ाई को जीतता आ रहा है।

धर्मनिरपेक्षता के के मामले में भारत का दृष्टिकोण दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों से अलग है, जो इसकी समृद्ध सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता को दर्शाता है। भारत में एक विविध धार्मिक परिदृश्य साफ तौर पर दिखाई देता है। यह भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से दिखता है। भारत का संविधान धर्म और राजसत्ता को अलग-अलग करके परिभाषित करता है। भारत की सत्ता में धर्म का कोई हस्तक्षेप नहीं है। हालांकि कुछ ऐसे मामले हैं, जिसमें समाज के परंपरा का आदर अरना स्वाभाविक हो जाता है। संविधान में एक जगह यह भी कहा गया है कि ‘‘परंपरा विधि का बल है’’, इस दृष्टि से समय-समय पर परंपरा के हित को लेकर बाते उठती रहती है और इसके लिए कभी-कभी सत्ता को परंपरा के सामने झुकना पड़ता है लेकिन अमूमन सत्ता और धर्म आपस में तालमेल बिठाकर ही काम करते हैं। पाकिस्तान या किसी अन्य पड़ोसी देश की तरह भारत में सत्ता पर धर्म हावी नहीं है।

भारत की धर्मनिरपेक्षता उसके ऐतिहासिक संदर्भ में निहित है। जहां धार्मिक बहुलवाद लंबे समय से राष्ट्र की एक परिभाषित विशेषता रही है। यह देश हिंदू सहित विभिन्न प्रकार के धार्मिक समुदायों का घर है। मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन और कई अन्य मान्यता के लोग यहां निवास करते हैं। इस बहुलवाद ने एक अलग तरह की धर्मनिरपेक्षता की आवश्यकता पैदा कर दी है, जो धर्म और राज्य के बीच कठोर अलगाव पर जोर नहीं देती है, बल्कि सभी धर्मों के लिए समान सम्मान और व्यवहार का लक्ष्य रखती है। संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत, जो गैर-स्थापना के सिद्धांत का पालन करता है, भारत में धर्म और राज्य के बीच अलगाव की दीवार नहीं है। इसके बजाय, राज्य सभी धर्मों के प्रति तटस्थता और समान व्यवहार का भाव रखता है। धर्मनिरपेक्षता के इस मॉडल की अक्सर प्रशंसा की गई है क्योंकि यह सार्वजनिक क्षेत्र में सभी धार्मिक समुदायों को शामिल करने की अनुमति देता है। यह मॉडल, विभिन्न समूहों के बीच अपनेपन की भावना को बढ़ावा देता है।

भारतीय संविधान धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी देता है और धार्मिक आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। यह धार्मिक मामलों में एक निश्चित स्तर के राज्य के हस्तक्षेप की भी अनुमति देता है। यह कई प्रावधानों में राज्य को सार्वजनिक व्यवस्था के हित में कुछ कालवाह्य धार्मिक प्रथाओं को विनियमित या प्रतिबंधित करने की भी अनुमति देता है। संविधान का अनुच्छेद 25 धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता की गारंटी देता है लेकिन राज्य और जन के हित में कुछ अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने की भी अनुमति देता है। इसके अलावा, भारतीय राज्य धार्मिक संस्थानों के प्रशासन में सक्रिय भूमिका निभाता है। धार्मिक बंदोबस्ती, मंदिरों और तीर्थस्थलों को नियंत्रित करने वाले कानूनों में अक्सर राज्य की निगरानी के प्रावधान शामिल होते हैं। उदाहरण के लिए, केरल और तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में हिंदू मंदिरों का प्रबंधन राजसत्ता के हाथ में है। यही नहीं अब तो कई राज्यों में इस मामले को लेकर सहकारी समितियां, धार्मिक न्यास या फिर बोर्ड निगम भी बना दी गयी है। यह दृष्टिकोण सामाजिक सुधार और सार्वजनिक कल्याण की आवश्यकता के साथ धार्मिक स्वतंत्रता को संतुलित करने के भारत के प्रयास को दर्शाता है।

धर्मनिरपेक्ष भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों को प्राप्त अधिकारों की तुलना पड़ोसी धर्म-आधारित राज्यों के साथ करने पर, स्पष्ट भेद दिखता है। भारत, अपनी चुनौतियों के बावजूद, धार्मिक स्वतंत्रता और कानून के तहत समान व्यवहार की संवैधानिक गारंटी प्रदान करता है। भारत में मुस्लिम, ईसाई, सिख और अन्य जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने स्वयं के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन करने, अपने पूजा स्थलों का प्रबंधन करने और अपने धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करने का अधिकार है। इसपर राज्य का नियंत्रण नाममात्र को होता है। ऐसे मामलों में सरकार सहयोगी की भूमिका निभाती है। इसके विपरीत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देश, जो मुख्य रूप से मुस्लिम हैं और वहां का यह राज्य धर्म है, अक्सर अल्पसंख्यकों की धार्मिक प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाते हैं। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान में हिंदू, ईसाई और अहमदी जैसे धार्मिक अल्पसंख्यक कानूनी और सामाजिक भेदभाव का लगातार शिकार हो रहे हैं। पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए इस्तेमाल में लाया जा रहा है। जिसके तहत इस्लामी मान्यताओं को ठेस पहुंचाने के आरोपियों को मौत सहित गंभीर दंड का प्रावधान है।

विशेष रूप से अहमदियों को संवैधानिक रूप से गैर-मुस्लिम घोषित किया गया है और उन्हें खुद को मुस्लिम कहने या खुले तौर पर अपने विश्वास का पालन करने से प्रतिबंधित किया गया है। इसी तरह, बांग्लादेश में भी अल्पसंख्यकों निशाना बनाया जा रहा है, जबकि संविधान ने शुरू में धर्मनिरपेक्षता की घोषणा की गयी थी। बाद में इस्लाम को राज्य धर्म घोषित किया गया। हालाँकि हिंदू और ईसाई जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों को कुछ संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त है, फिर भी उन्हें अक्सर सामाजिक भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, निहित संपत्ति अधिनियम का उपयोग ऐतिहासिक रूप से हिंदू स्वामित्व वाली संपत्ति को जब्त करने के लिए किया जाता है। इस कानून के कारण बांग्लादेशी हिन्दू आर्थिक दृष्टि से हाशिए पर ढ़केले जा रहे हैं। इस ममले में भारत का मॉडल बेहतर है। हालांकि इस मॉडल में भी थोड़ी खामी है लेकिन अन्य की अपेक्षा तो यह बेहतर है। भारत, अपने पड़ोसियों के साथ विरोधाभास चिंतन के मध्य अपने क्षेत्र में धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाए रखने की चुनौतियों और जटिलताओं का सामना कर रहा है। उन देशों में धर्म अक्सर राष्ट्रीय पहचान में केंद्रीय भूमिका निभाता है, जबकि भारत में ऐसी कोई बात नहीं है।

भारत के इस सफर में यहां की न्यायपालिका ने भी बड़ी भूमिका निभाई है। भारत की न्यायपालिका ने धर्म और राज्य के बीच जटिल संबंधों को सुलझाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। ऐतिहासिक एसआर बोम्मैव वाले मामले में वर्ष 1994 में सर्वाेच्च न्यायालय ने भारतीय राज्य की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति की पुष्टि करते हुए फैसला सुनाया कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है और इसे संसदीय संशोधनों द्वारा नहीं बदला जा सकता है।’’ न्यायपालिका ने भारतीय धर्मनिरपेक्षता की अनूठी प्रकृति को भी मान्यता दी है, जो धर्म को सार्वजनिक क्षेत्र से पूरी तरह से बाहर नहीं करती है।

धर्मनिरपेक्षता के प्रति भारत का दृष्टिकोण धार्मिक विविधता का सम्मान करना, एक तटस्थ व गैर-धार्मिक राज्य बनाए रखने के लिए संतुलन बनाना है। जैसे-जैसे भारत एक लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है, धर्म और राज्य के बीच उचित संबंध पर बहस जारी है। धर्मनिरपेक्षता का भारतीय मॉडल, हालांकि अपूर्ण है, लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर अपनी विशाल धार्मिक विविधता के प्रबंधन के लिए देश की प्रतिबद्धता प्रमाण बना हुआ है। भारत की धर्मनिरपेक्षता का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि वह इन जटिल गतिशीलता से कैसे निपटता है, यह सुनिश्चित करता है कि लोकतंत्र और न्याय के सिद्धांतों को बनाए रखते हुए सभी धर्मों के साथ समान सम्मान के साथ व्यवहार किया जाए।

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