कमलेश पांडेय
पहले मतदाताओं को श्रिश्वतश् जैसी चुनावी गारंटी देने और फिर चुनाव जीत लेने के बाद उसे लागू नहीं करने की वादाखिलाफी एक ऐसा सुलगता हुआ सवाल है, जिसका जवाब लाभुक मांगते हैं, पर वह मिलती नहीं! जबकि ऐसा करके सत्ता में आने वाली सरकारों को शासन से बेदखल कर देना चाहिए और उनकी पार्टी की मान्यता रद्द कर देना चाहिए। ऐसा स्पष्ट प्रावधान यदि नहीं है तो कीजिए। क्योंकि यह विषय सियासत का नहीं, बल्कि मतदाताओं से सीधी धोखाधड़ी का है और ऐसे नेताओं के खिलाफ श्420श् (परिवर्तित धारा 318) वाला मुकदमा भी चलाया जाना चाहिए।
इस मामले में सत्ता पक्ष व विपक्ष की सांठगांठ के खिलाफ सिविल सोसाइटी, प्रशासन, न्यायपालिका और मीडिया को आगे आना चाहिए। क्योंकि ऐसी वायदाखिलाफी की सियासत पर उठते सवालों का जवाब आखिर कौन देगा, भुक्तभोगी लोग सबसे पूछ रहे हैं। कभी कांग्रेस के दफ्तरों पर पहुंचकर, तो कभी मीडियाकर्मियों के मिलने पर। कभी विभिन्न विचार गोष्ठियों में तो कभी सड़कों पर। इस मामले का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि अब खुद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपनी पार्टी के नेताओं को सिर्फ वही चुनावी गारंटी देने के वायदे करने की नसीहत दी है, जिन्हें सत्ता में आने के बाद पूरा किया जा सके।
ऐसा इसलिए कि चुनावी गारंटी पूरे करने के मामले में तेलंगाना, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की कांग्रेसी सरकारें फिसड्डी साबित हुई हैं। इससे कांग्रेस के जनाधार पर भी असर पड़ना स्वाभाविक है। समझा जाता है कि छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान की कांग्रेसी सरकारों के पतन के पीछे कुछ ऐसी ही वादाखिलाफी का हाथ है। यही वजह है कि भाजपा ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के ही बयान को आधार बनाकर अब कांग्रेस और राहुल गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।
आपको पता होगा कि आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल की मुफ्त बिजली-पानी की सियासत और जनसहुलियत भरी शिक्षा-चिकित्सा व्यवस्था की राजनीति जब दिल्ली से लेकर पंजाब तक हावी होती चली गई तो अपनी सरकारें गंवाने के बाद राहुल गांधी-प्रियंका गांधी ने कांग्रेस की गारंटी के नाम पर लोगों से धड़ाधड़ वायदे किए और खटाखट धन देने की गारंटी दी, लेकिन उनकी राज्य सरकारें उसे पूरी नहीं कर सकीं।
इससे पार्टी की बढ़ती अलोकप्रियता और हरियाणा विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार को महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनावों में डैमेज कंट्रोल के लिए ही कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपनी पार्टी के नेताओं को जो कुछ समीचीन सुझाव दिए, अब उसे ही भाजपा ने चुनावी हथियार बना लिए। क्योंकि लोगों को चुनावी लॉलीपॉप गारंटी देने की विरोधी रही भाजपा ने भले ही आप और कांग्रेस के दबाव में अपनी सत्ता प्राप्ति के लिए मोदी की गारंटी शुरू की और विभिन्न कांग्रेसी व विपक्षी दल शासित राज्यों में शानदार वापसी की, लेकिन अब वह मल्लिकार्जुन खड़गे के बयान को लेकर जिस तरह से कांग्रेस पर हमलावर है, उसका फलसफा यही है कि अनुकूल मौका मिलते ही भाजपा मोदी की गारंटी वापस ले लेगी। बशर्ते कि पहले वह इसी के सहारे कांग्रेस व आप का सफाया कर ले।
उल्लेखनीय है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कर्नाटक में आर्थिक संकट की खबरों के बीच नेताओं को वही वादे करने की नसीहत दी है, जिन्हें पूरा किया जा सके। उन्होंने साफ कहा कि उतनी ही गारंटी का वादा करें, जितना दे सकें, नहीं तो सरकार दिवालियापन की कगार पर पहुंच जाएगी। यही वजह है कि कांग्रेस अध्यक्ष के इस बयान पर अब सियासी घमासान मच गया है। केंद्र की सत्ता पर काबिज राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की अगुवाई कर रही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने खड़गे के बयान को ही आधार बनाकर कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।
पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बाजाप्ता प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि मल्लिकार्जुन खड़गे ने कई चीजों को स्वीकार कर लिया है। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने जो बोला है, वो राहुल गांधी को बताया है क्या? कई चुनाव से खट-खटाखट चल रही घोषणाओं का क्या होगा? जो बोला है, बजट में उसका प्रावधान है कि नहीं? उन्होंने हिमाचल प्रदेश सरकार का जिक्र करते हुए कहा कि वहां कांग्रेस ने कई वादे किए थे कि ये कर देंगे, वो कर देंगे, पर अब वहां के सीएम कह रहे हैं कि वेतन बाद में ले लेना। वहीं, टॉयलेट पर टैक्स की चर्चा करते हुए कांग्रेस पर घोषणाएं करके जनता को मूर्ख बनाने और किसी योजना को अमल में नहीं लाने का आरोप लगाया।
भाजपा ने कहा कि कर्नाटक में पांच गारंटी की घोषणा की गई थी लेकिन हुआ क्या? हो क्या रहा है वहां? कर्नाटक में अब फ्री बस को रिव्यू करने की बात कही जा रही है! हालांकि भाजपा पर भी कांग्रेस आरोप लगाती आई है कि मोदी ने 2014 में 15 लाख रुपये खाते में आने के सपने दिखाए थे जो लगभग 11 साल बाद भी नहीं आए। दो करोड़ नौकरियों का वायदा भी सिफर ही रहा। कोरोना के बाद उन्होंने युवाओं को पकौड़े बेचने लायक भी नहीं छोड़ा जबकि भाजपा का दावा है कि अगर हमने 11 करोड़ किसानों को 6-6 हजार रुपये देने का वादा दिया था तो उसे पूरा किया हमने। बीजेपी जो कहती है, उसे जमीन पर उतारती भी है।
भाजपा नेता कहते हैं कि हम जमीनी हालात देखकर वादे करते हैं और जो वादे करते हैं, उसे डिलीवर भी करते हैं जबकि खड़गे साहब को जो ज्ञान आया है वह और जल्दी आना चाहिए था। आप राहुल गांधी को वो पाठ पढ़ाएं। भाजपा ने कहा कि झारखंड में जनता की आंखों में धूल झोंकने की बात कही जा रही है जबकि कांग्रेस पार्टी ने अपने अध्यक्ष के माध्यम से पहली बार हकीकत स्वीकार किया है। लिहाजा मल्लिकार्जुन खड़गे को इस वक्तव्य के बाद देश से माफी मांगनी चाहिए क्योंकि कांग्रेस ने तेलंगाना और कर्नाटक की जनता की आंखों में धूल झोंका। कांग्रेस की सच्चाई सामने आई है।
वहीं, भाजपा ने आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल को भी निशाने पर लिया और कहा कि अरविंद केजरीवाल को समझना चाहिए कि दिल्ली की हालत क्या है? वहीं, रविशंकर प्रसाद ने वक्फ के मुद्दे पर भी अपनी बात रखी और कर्नाटक के विजयपुरा का जिक्र करते हुए आरोप लगाया कि वक्फ के नाम पर किसानों की संपत्ति लूटी जा रही है। कुछ माफिया इसमें शामिल थे। पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा कि ये मामला संसदीय कमेटी के सामने है। बात सिर्फ कांग्रेस, आप और भाजपा की नहीं है, बल्कि उत्तर से दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक एनडीए गठबंधन, इंडिया गठबंधन और अन्य क्षेत्रीय दलों के द्वारा चुनावी वायदाखिलाफी की जा रही है जिसके खिलाफ सभ्य समाज को आगे आना चाहिए।
ऐसे में सीधा सवाल यही है कि जब राजनीतिक दल खुद से अपने लिए नियम-कानून बनाएंगे और स्वयं को बचाते रहने के लिए विभिन्न कानूनी कमियां छोड़ते रहेंगे, तो फिर उनके खिलाफ कार्रवाई कैसे होगी? इस गम्भीर मुद्दे पर प्रशासनिक और न्यायिक गूंगेपन पर भी सवाल उठना लाजिमी है लेकिन ऐसा कभी हुआ क्या, यक्ष प्रश्न है। भारत की प्रशासनिक व बाजारू अराजकता समकालीन जनहित के लिए चिंतन का विषय है और इसे दूर करने के लिए सिविल सोसाइटी को आगे आना चाहिए।
ऐसा इसलिए कि किसी भी लोकतंत्र में सियासतदान/नेता तो महज 5-5 वर्षों के लिए श्आया राम, गया रामश् की तरह होते हैं, बामुश्किल किसी को 2 या 3 टर्म मिलता है। कुछ सौभाग्यशाली हैं जो 4-5 टर्म रहे लेकिन प्रशासनिक और न्यायिक सुव्यवस्था चिरस्थायी बनाई जाती है ताकि जनहित सधता रहे. पक्ष व विपक्ष की राजनीति में कभी जनता नहीं पिसे लेकिन आज देश में अनियंत्रित बाजारवाद हावी है और भ्रष्ट प्रशासन उसे नियंत्रित करने में विफल प्रतीत हो है। इससे जनता हर तरह से पिस रही है। सत्ता पक्ष व विपक्ष के लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं है। धनपशुओं की मीडिया इन मुद्दों पर गूंगी बन चुकी है।
इस नजरिए से भारत की राजनीति अपवाद है। यहां के नियम-कानूनों में इतनी बड़ी-बड़ी कमियां हैं कि जनता बर्बाद हो जाती है पर नेता-अधिकारी आबाद होते रहते हैं! वो न खेती करते, न किसानी, न सीमा की पहरेदारी करते, न कोई मेहनतकश व्यवसाय, फिर भी उनकी घोषित संपत्ति दिन दूना, रात चौगुनी बढ़ती है। कोई चेक एन्ड बैलेंस नहीं. इस स्थिति को बदलने की संवेदनशीलता कई नेताओं ने दिखाई, लेकिन सत्ता मिलते ही हमाम में नंगे हो गए।
लोग महसूस करते हैं कि उनके कथित नौकर यानी देश की नौकरशाही और न्यायपालिका, उद्योगपतियों के साथ मिलकर राष्ट्रीय कोष से श्गुलछर्रेश् उड़ाती रहती है और इस राह में कोई समझदार नेता या पत्रकार बाधक नहीं बने, इसलिए राजनीति व पत्रकारिता को मूर्खों, स्वार्थी व अराजक तत्वों और यहां तक कि अपराधियों का जमावड़ा बना दिया गया है। इन दोनों पेशों में श्धनपशुश् सब पर भारी पड़ते हैं। ऐसा इसलिए है कि राजनीतिज्ञों और पत्रकारों की योग्यता के कोई ठोस मानक निर्धारित नहीं किये गए हैं, ताकि कोई गम्भीर बदलाव नहीं लाया जा सके।
वैसे तो मान्यता प्राप्त पत्रकारिता में कुछ नियमन हैं जिसकी अनदेखी होती आई है, लेकिन सियासत में चुनाव जीतो और सारे पाप धुल जाएंगे, कि जो शर्मनाक परम्परा है, वह अक्सर सवालों के घेरे में रही है। राजनीतिक वंशवाद, सम्पर्कवाद और धनवाद पर कोई अंकुश रखा ही नहीं गया है। देश में कितने दल हों, विभिन्न पेशों में कितनी कम्पनियां हों जो गुणवत्तापूर्ण सेवाएं सुनिश्चित कर सकें, इस बात की चिंता किसी को नहीं है। बस, भारतीय संविधान और नियम-कानून की आड़ में एक ऐसी प्रशासनिक और न्यायिक अराजकता थोपी जा चुकी है, जिस पर सवाल उठाने वाले समझदार व जिम्मेदार नेता भी गूलर के फूल बन चुके हैं।
सवाल है कि जब राजनीति से ही राष्ट्र का भविष्य तय होता है, तो फिर इसे जिम्मेदार बनाने में किसको दिक्कत है, प्रशासनिक और न्यायिक जवाबदेही तय करने में किनको दिक्कत है, विभिन्न प्रोफेशनल मानक और जिम्मेदारी तय करने में किसको दिक्कत है? और यदि दिक्कत है तो उन्हें छूट देकर मेहनतकश अवाम के सामने जो कई अप्रत्याशित मुसीबतें पैदा कर दी जाती हैं, उसका सर्वाेत्तम समाधान क्या है? अनौपचारिक शिष्टाचार की शक्ल लेते जा रहे भ्रष्टाचार का हल क्या है? इसलिए नेताओं व राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए स्पष्ट योग्यता मानक और वेतन-भत्ते का प्रावधान होना चाहिए अन्यथा प्रशासनिक वसूली नहीं थमेगी। जनहित कदापि नहीं सधेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं। आपके विचार स्वतंत्र हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)