जनता की वास्तविक जानकारी का एक मात्र आधार जनगणना, इसी से सामने आएगी आम लोगों की हकीकत

जनता की वास्तविक जानकारी का एक मात्र आधार जनगणना, इसी से सामने आएगी आम लोगों की हकीकत

केंद्र सरकार कहती है कि भारत में जनगणना देश के लोगों की विभिन्न विशेषताओं पर विभिन्न सांख्यिकीय जानकारी हासिल करने का सबसे बड़ा एकल स्रोत है। 130 से अधिक वर्षों से जारी यह अभ्यास ही सबसे विश्वसनीय, समय की परीक्षाओं से गुजरने वाली प्रक्रिया है जिससे हर 10 साल में हासिल आंकड़े सही मायनों में असली तस्वीर सामने लाते हैं। इसकी शुरुआत वर्ष 1872 में भारत के विभिन्न हिस्सों में गैर-समकालिक रूप से पहली जनगणना की गई थी।ष् इसके अलावा जनगणना से मिले आंकड़े ष्जनसांख्यिकी, अर्थशास्त्र, मानव शास्त्र, समाजशास्त्र, सांख्यिकी और कई अन्य विषयों में विद्वानों और शोधकर्ताओं के लिए एक बेहद काम का स्रोत रहे हैं।

भारत ने पिछली जनगणना 2011 में हुई थी, और उसके बाद से हमारे पास न सिर्फ हमारी जनसंख्या के बल्कि कई अन्य मामलों में भी कोई अच्छे या भरोसेमंद आंकड़े नहीं हैं। मसलन मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) मानव विकास के प्रमुख आयामों में औसत उपलब्धि का सारांश होता है यानी एक दीर्घ और स्वस्थ जीवन, ज्ञानवान होना और एक सभ्य जीवन स्तर होने का पैमाना होता है।

संयुक्त राष्ट्र किसी भी देश के स्वास्थ्य आयाम का आकलन वहां जन्म के समय जीवन प्रत्याशा के आधार पर करता है, शिक्षा आयाम को स्कूली शिक्षा के वर्षों और स्कूल में प्रवेश करने की आयु के बच्चों के लिए अपेक्षित स्कूली शिक्षा के वर्षों के आधार पर मापा जाता है। इसी तरह जीवन स्तर के आयाम को प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष राष्ट्रीय आय के आधार पर मापा जाता है।

संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि मानव विकास सूचकांक का इस्तेमाल राष्ट्रीय नीति विकल्पों पर सवाल उठाने के लिए किया जा सकता है कि आखिर प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय के समान स्तर वाले दो देशों के मानव विकास नतीजे अलग-अलग कैसे हो सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र यह भी कहता है कि ये विरोधाभास सरकारी नीति प्राथमिकताओं के बारे में बहस को बढ़ावा दे सकते हैं।

मानव विकास सूचकांक पर भारत का 0.644 स्कोर इसे इराक (0.673), बोत्सवाना (0.708) और बांग्लादेश (0.670) से नीचे रखता है और विश्व औसत 0.739 से तो यह काफी कम है। लेकिन केरल का 0.775 स्कोर इसे मैक्सिको (0.781), क्यूबा (0.764) और चीन (0.788) के साथ रखता है जबकि उत्तर प्रदेश (0.592) और बिहार (.551) के 30 करोड़ लोगों को जिम्बाब्वे (0.550) और पाकिस्तान (0.540) के साथ रखा जा सकता है।

अगर यह राज्य अलग-अलग स्थानों पर होते तो तमिलनाडु (0.738) बिहार से 50 से ज़्यादा पायदान ऊपर होता। हमारे देश के बाकी हिस्सों में भी यही कहानी है। पाकिस्तान के भीतर भी प्रांतों के बीच काफ़ी अंतर है। एक आंतरिक पाकिस्तानी सर्वेक्षण, हालांकि यह वैश्विक सर्वेक्षण के मुकाबले नहीं है, उसमें पंजाब के मानव विकास सूचकांक को 0.732 पर रखा, जबकि बलूचिस्तान 0.421 और ख़ैबर पख़्तूनख़्वा सिर्फ 0.216 पर है।

जुलाई 2023 में, भारत के सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने प्रति व्यक्ति आय पर राज्यवार डेटा जारी किया। इसके मुताबिक तेलंगाना, 3.08 लाख/वर्ष या 25,000 रुपये/माह पर, मध्य प्रदेश (1.4 लाख रुपये) से दोगुना था, उत्तर प्रदेश (2022 में 70,000 रुपये) से चार गुना और बिहार (2022 में 49,000 रुपये) से छह गुना था। उसी समय पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति आय 1.2 लाख रुपये (भारतीय रुपये में भी) और बांग्लादेश की 2.1 लाख रुपये थी।

इस मोर्चे पर अगर धर्म या राष्ट्रीय संस्कृति का कुछ महत्व है, तो वह इस डेटा में नहीं दिखता, वरना यूपी और बिहार पाकिस्तान से ज़्यादा गरीब नहीं होते। पंजाबियों की आबादी पाकिस्तान की कुल आबादी के आधे से ज़्यादा है। भौतिक दृष्टि से देखें तो वे अपने हमवतन लोगों की तुलना में भारतीय पंजाब (प्रति व्यक्ति आय 1.7 लाख रुपये) के ज़्यादा करीब हैं।

अपनी किताब ‘साउथ वर्सेस नॉर्थ’ में नीलकांतन आरएस ने भारतीयों के मानव विकास में अंतर को दर्ज किया है, जो पूरी तरह से इस बात पर आधारित है कि कोई व्यक्ति कहां पैदा हुआ है। हमारे यहां डेढ़ दशक से जनगणना नहीं हुई है, लेकिन उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर, उन्होंने बताया कि मध्य प्रदेश में पैदा होने वाला व्यक्ति उत्तराखंड में पैदा होने वाले व्यक्ति की तुलना में आठ साल कम जीने की उम्मीद कर सकता है, यानी मध्य प्रदेश के व्यक्ति की औसत उम्र 64 साल जबकि उत्तराखंड में पैदा होने वाले व्यक्ति की औसत उम्र 72 साल है। प्रति 1000 जन्मों पर मृत्यु की संख्या केरल की तुलना में उत्तर प्रदेश में छह गुना अधिक है। प्रसव के दौरान मरने वाली महिलाओं की दर महाराष्ट्र की तुलना में असम में चार गुना अधिक है।

पंजाब में बौनेपन (उम्र के हिसाब से कम लंबाई) वाले बच्चों की संख्या कुल बच्चों की एक चौथाई है, लेकिन बिहार में कुल बच्चों की आधी है। हरियाणा में आंगनवाड़ी (ग्रामीण क्रेच और बाल देखभाल केंद्र) पश्चिम बंगाल की तुलना में पक्की इमारत में होने की संभावना 10 गुना ज़्यादा है। कर्नाटक में प्रति लाख लोगों पर अस्पताल के बिस्तरों की संख्या बिहार की तुलना में 10 गुना ज़्यादा है और महाराष्ट्र में प्रति लाख लोगों पर डॉक्टरों की संख्या ओडिशा की तुलना में आठ गुना ज़्यादा है।

हिमाचल के लोगों के उच्च शिक्षा में नामांकन की संभावना गुजरातियों की तुलना में दोगुनी है और पंजाबियों के अंग्रेजी में शिक्षा प्राप्त करने की संभावना गुजरातियों की तुलना में तीन गुना अधिक है (इससे जो स्थिति पैदा हुई है उसका मुझे व्यक्तिगत अनुभव है)। नीलकांतन बताते हैं कि मध्य प्रदेश में आर्थिक उत्पादन में कृषि का हिस्सा तमिलनाडु के मुकाबले पांच गुना है जबकि गुजरात में जीडीपी में विनिर्माण का हिस्सा आंध्र प्रदेश के मुकाबले तीन गुना है। श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी बिहार की तुलना में हिमाचल प्रदेश में 12 गुना अधिक है और यूपी की तुलना में छत्तीसगढ़ में तीन गुना अधिक है।

भारतीय राज्य अपने नागरिकों के लिए अलग-अलग तरीके से काम करता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति कहां रहता है। पुलिस के पास शिकायत करने वाले मणिपुरी व्यक्ति की शिकायत पर आंध्र प्रदेश के व्यक्ति की तुलना में आरोप पत्र दाखिल होने की संभावना छह गुना कम है। अभियोजन की शुरुआत को चिह्नित करने वाली चार्जशीट की दर आंध्र प्रदेश में 92 प्रतिशत है, लेकिन मणिपुर में यह केवल 14 प्रतिशत है और यह मौजूदा संकट शुरू होने से पहले 2021 के सरकारी आंकड़ों से मिली जानकारी है। केरल में दर्ज अपराधों की दर कर्नाटक की तुलना में प्रति लाख जनसंख्या पर 12 गुना अधिक है (1075 बनाम 71)।

तो क्या यह मान लें कि एक पड़ोसी राज्य में दूसरे राज्य की तुलना में कई गुना ज़्यादा अपराध होते हैं? ज़्यादा संभावना यह है कि केरल में अन्य राज्यों की तुलना में मामलों का पंजीकरण ज़्यादा तत्परता से किया जाता है। केरल में प्रति लाख जनसंख्या पर हत्या की दर सबसे कम 0.9 है, जो कि आंध्र प्रदेश (1.8) की दर से आधी है और गुजरात (1.4), ओडिशा (3.0) और झारखंड (4.0) से भी कम है।

पिछले डेढ़ दशक में इन सभी मोर्चों पर क्या बदलाव हुए हैं – नोटबंदी और कोविड की दूसरी लहर के प्रभाव से लेकर प्रजनन क्षमता में गिरावट और कृषि श्रमिकों की संख्या में वृद्धि तक क्या कुछ बदला है, इसे जानना दिलचस्प होगा, लेकिन हमें यह तभी पता चलेगा जब जनगणना की जाएगी।

यह आलेख नवजीवन के वेबसाइट संस्करण से लिया गया है। आलेख में व्यक्त लेखक के विचार निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।

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