विवेक रंजन श्रीवास्तव
नर्मदा अंचल के जंगलों में दुर्गम पहाडियों में बसी प्राचीनतम हिन्दू जनजाति बैगा अपनी आदिम जीवन शैली के कारण आज भी कौतुहल का विषय है। समाजशास्त्रियों, जंगल की वनस्पतियों के बैगाओं के चिकित्सकीय ज्ञान के कारण शोधकर्ता, आयुर्वेद में रुचि रखने वाले अनुसंधानकर्ताओं के लिये यह जाति एक ऐसी वेबसाइट से कहीं ज्यादा है, जिसका जितना भी अध्ययन किया जावे कम है। बैगाओ का पारंपरिक ज्ञान अद्भुत है।
सामान्यतः स्वभाव से आत्म केंद्रित, सभ्यता के विकास के प्रति झिझकते, जंगल में मंगल मनाते वैगाओं की देहयष्टि हल्के भूरे रंग की, माथा चौड़ा, केश लम्बे होते हैं। वे कभी केश काटते नहीं है। अनावृत नितम्बों के साथ कमर पर एक छोटी सी लंगोट, बिना ढका शरीर, किन्तु उनके सिर पर बंधी कपडे की एक पट्टी शायद उनके आत्म सम्मान की प्रतीक होती है। गले में गुरियों की मालायें, अंग प्रत्यंग पर बचपन से ही दागे हुये सुन्दरता के प्रतीक चिन्ह-गुदना अर्थात् टैटू, यही है शब्द चित्र जंगल के मानव राजा बैगा का।
स्त्रियां हमेल अर्थात् पुराने सिक्कों में कुन्दे लगवाकर बना हार भी पहनती हैं, पीढ़ी दर पीढी विरासत में स्थानांतरित होते इन गहनों में किसी बैगा रुप सी के गले में कोई दुर्लभ सिक्का मिल जाये तो कोई आश्चर्य नहीं। हंसिया, कुल्हाड़ी सदैव वे अपने साथ रखते है।
दुनियां में म.प्र. के मण्डला जिले के रामनगर, मवई, बाघमाड, दलदली, बंधान, डिडौरी जिले में बैगाचक क्षेत्र के गांवों संझनीसरई, धावा, अजगर, सिलपुरी, चांडा, बजाग, शहडोल, सिवनी, सीधी, जिलों के कुछ क्षेत्रों में छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव, दुर्ग, बिलासपुर, रायगढ़, रायपुर आदि के अतिरिक्त उडीसा, बिहार, आंध्र आदि के सीमावर्ती क्षेत्रों में ही बैगा जनजाति के लोग मूलतः सदियों से रह रहे हैं।
उपजातियों के रूप में नामकरण, गोत्र, कार्यों का विभाजन वैगाओं में भी मिलता है। बिंझवार बैगा एक तरह से पुरोहित के समकक्ष होता है। इन्हें जंगली जड़ी-बूटियों का ज्ञान होता है जिनसे वे असाध्य रोगों की भी गुमनाम चिकित्सा कर लेते हैं। ये देवज्ञ बैगा मकान कहां बनाना? फसल कब बोना? जैसे गूढ प्रश्नों के सहज उत्तर अपने पीढीगत अनुभवों से देते हैं, किसी जंगली प्राणी द्वारा किसी बैगा की असामयिक मृत्यु पर आत्मा की मुक्ति हेतु पूजा विधान ये ही करवाते हैं। वे अपने आंगन में बैठकर अपनो की समस्यायें सुलझाने में, अलिखित अदालत की भूमिका निभा लेते हैं।
बैगा अपने जंगल में आत्मनिर्भर, परिपूर्ण हैं। कथित सभ्य समाज इनकी रुढियों के चलते टोने टोटके के पोषण का दोष इन पर लगाता है। भरौतिया, कुड़का, भूमिया आदि बैगाओं के उपवर्ग हैं। इनमें परस्पर एक सूक्ष्म कार्य विभाजन दृष्टिगोचर होता है। जैसे शिकार के लिये, उत्सवों के अवसर पर नगाड़ा बजाने का कार्य कुडका बैगा करते हैं, बेवर से उपजी फसल काटने का कार्य भी इन्ही का है।
घने जंगल में जलाशय के निकट, किसी पहाडी पर थोडे से समतल पठारी हिस्से में वैगाओं के छोटे से आवासीय गांव बसे मिलते हैं, चारों और एक कमरे और परछी के भीतर की ओर बीच के आंगन में खुलती साढे पांच छः फुट ऊंची झोपडियाँ, बीच में बड़ा सा चौकोन आंगन होता है। जंगल की ही लकडी बांस की दीवारें, जिन पर मिट्टी की छपाई कर दी जाती है। गोबर से लीप कर उन्हें चिकना कर लिया जाता है। छत घास-फूस की होती है। फर्श पर छुई मिट्टी से सफेद ढिग लगाई जाती है। स्त्री पुरुष मिलकर निर्माण करते हैं। आंगन में सामूहिक उपयोग की लकड़ी आदि रखी रहती हैं।
बैगाचक रू बैगाओं की मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभ में धरती मां ने नंगी बैगिन और नंगे बैगा को जन्म दिया जिनसे बैगा वंशावली शुरु हुई। इस तरह धरती उनकी पूज्य मां है। अतः मां के हृदय पर हल चलाना ये उचित नहीं समझते। इसलिये यह जाति पारम्परिक रूप से बेवर पद्धति से खेती करती रही है। इस पद्धति में जंगल काट कर वृक्ष गिरा दिये जाते हैं, लकड़ी सूख जाने पर उसमें आग लगा दी जाती हैं, राख उर्वरक का कार्य करती है। वर्षा ऋतु से पहले फेंककर बीज बो दिये जाते हैं, इस तरह वर्षा आधारित फसल ले ली जाती है, जब दो एक वर्षों में फसल कम होने लगती है तो आबादी अन्यत्र स्थानांतरित होकर यही क्रम दोहराती है। अंग्रेजों के शासनकाल में ही, बैगाओं की इस प्रवृत्ति जिससे जंगलों के विनाश का खतरा था, पर नियंत्रण हेतु यत्न किये गये। इसी प्रयत्न के रूप में चांडा के चारो ओर 10 हजार एकड का क्षेत्र बैगाचक घोषित किया गया, यहां बेवर कृषि को कानूनी मान्यता दी गई। और इस तरह बैगाओं को सीमाबद्ध किया गया।
जंगली पशुओं एवं जलाशयों तथा नदियों में मछली का शिकार बैगाओं के भोजन का हिस्सा हैं। शिकार के लिये धनुष बाण तथा फांदा अर्थात् जाल का उपयोग किया जाता है। बाण चलाने के लिये ये अंगूठे का प्रयोग नहीं करते, जिससे एकलव्य के दृष्टांत से इनका साम्य परिलक्षित होता है, जो अनुसंधानकर्ताओं के लिये शोध का विषय बन सकता है। तीर कमान का बाण जंगली वनस्पतियों से, एवं चीटियों के बिल में घुसाकर जहरीला बनाया जाता है।
वैगाचक क्षेत्र में अरहर दाल की एक विशिष्ट किस्म उगाई जाती है जिसे भूजकर दला जाता है, यह सुस्वादु होती है। इसी तरह भटे की एक पीले रंग के फलों वाली प्रजाति जो उत्पादन भले ही ज्यादा न दे पर अति स्वादिष्ट होती है, इन लोगों के द्वारा पैदा की जाती है। वैगा जंगली फलों, पत्तों, कंद के आहार के बड़े जानकार होते हैं, बरसात के दिनों में जंगल में बादलों की कड़कड़ाहट से रातों रात उग आये मशरूम ये बड़े चाव से खाते हैं, कोदों, कुटकी, और भुट्टा प्रमुखता से इनके भोजन में शामिल है। वर्ष भर के लिये भुट्टे का संग्रह विशिष्ट तरीके से घरों के सामने बल्लियां गडाकर उन पर भुट्टे लटका कर किया जाता है। न केवल शहद वरन् उसका छतना भी खाया जाता है। गुनियां बैगा मंत्र पढ़कर छत्ते से शहद निकालता है, जिससे मधुमख्खियां किसी को न काटें। भोजन के लिये ही पशुपालन, मुर्गी पालन किया जाता है।
इनमें सगोत्र विवाह नहीं होते। पारम्परिक विवाह अर्थात् चर विवाह में लडके वाले, लड़की मांगने जाते हैं, 4-5 दिनों का उत्सवी विवाह समारोह होता है, छक कर शराब भी पिलाई जाती है। सात फेरों से विवाह पूर्ण होता है। पठौनी विवाह पद्धति भी प्रचलित है जिसमें लड़की वाले ही लड़की को लड़के के घर पहुंचा आते हैं वहीं सारी रस्में पूरी की जाती हैं। लमसेना विवाह रोचक है जिस पद्धति में लडका एक निश्चित समयावधि तक नौकर की तरह लड़की के घर पर रहकर, लड़की वालों का दिल जीतता है। इस अवधि में लड़के को लमसेना कहा जाता है। इसके अतिरिक्त परस्पर समझौते को सामाजिक वैवाहिक मान्यता देने के अन्य तरीके जैसे चूड़ी पहनाना, हल्दी छिड़ककर लड़के के घर बैठे रहना, गोत्र बरका कर भाई बहन भाई से विवाह दूध लौटाना, आदि पद्धतियां भी प्रचलित है।
पूजा पद्धति रामनगर चौगान की स्वर्ग सीढ़ी रू मूलतः बैगा जाति धरती मां की उपासक है, देवी, शिव, विष्णु, हनुमान भगवान की पूजा की परम्परा मिलती है। स्थान देवता की पूजा के रूप में ठाकुर देव की पूजा होती है, देवताओं की मूर्तियां नहीं पाई जाती, निराकार ब्रम्ह की उपासना। वर्ष के दोनों नौ दुर्गाेत्सवों पर जवारे बोये जाते हैं, मुर्गे, सुअर, बकरे की बलि चढ़ाई जाती है। देवी उपासना की दृष्टि से चौगान रामनगर बैगाओं के साथ साथ गौड़ों का भी राष्ट्रीय तीर्थ कहा जा सकता है। यहां अज्ञात समय से अनवरत अग्नि प्रज्वलित है। इस धूनी की राख रोगोपचार, आत्मिक शांति हेतु श्रद्धा, आस्था, विश्वास से स्वीकारी जाती है। यहां मैदान के बीच जमीन पर लम्बवत् गड़ाई गई स्वर्ग सीढ़ी है। पुरानी लकड़ी की सीढ़ी खराब हो गई है, बाजू में ही लोहे की कुछ और ऊंची सीढी लगा दी गई है। नवरात्रि पर्वाे पर सीढी के सबसे ऊपर दिया जलाया जाता है। धरती से आकाश को जोड़ने की इस अनोखी आध्यात्मिक अवधारणाकी विवेचना करें तो पिछड़ी कही जाने वाली इस जाति की आत्मा की मुक्ति की गहरी सोच परिलक्षित होती है, वहीं दूसरी ओर रावण की
स्वर्ग सीढ़ी के दृष्टांत से साम्य को देखते हुये आनुवंशिक अनुसंधान के शोधार्थियों के लिये यह एक विशद अध्ययन का विषय है। तीज त्यौहार, नृत्य संगीत , आखेट में ही जीवन यापन के लिये भोजन के साथ साथ मनोरंजन भी तलाश लेते हैं, युवा बैगा। इनके तीज त्यौहार, फसल के पकने पर मनाये जाने वाले उत्सव, प्रकृति के साथ तादात्म्य के अनोखे उदाहरण हैं। जन्म, विवाह, दीपावली आदि अवसरों पर मंदिर के संगीत के साथ सामूहिक नृत्य होता है। शेला एवं करमा इनके प्रमुख लोक नृत्य हैं। इन लोक नृत्यों के प्रदर्शन राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर हो चुके है, एवं सराहे गये हैं। शेला नृत्य में युवक युवतियों की गोलाकार मण्डलियां, धरती की ओर झुककर, झूमते हुय नृत्य करती हैं तो करमा में लडके लडकियों की टोलियां आमने-सामने गीतों में वार्तालाप करते हुये नृत्य स्वान्तः सुखाय गाते बजाते हैं। मस्ती में डूब रात रात भर
अंतिम संस्कार रू मृत्यु संस्कार में पुरुषों का दाह कर्म किया जाता है, पर स्त्रियों को दफनाने की ही परम्परा है। 9 दिनों का पारिवारिक शोक मनाया जाता है, इस अवधि में घर पर चूल्हा नही जलाया जाता भोजन पडोसी भिजवाते हैं। प्रगति की नई रोशनीः आजादी के बाद से बैगा जनजाति के विकास के लिये शासन ने विशेष ध्यान दिया है। आरक्षण दिया गया है। इनके गांवों तक सड़के पहुंची हैं, बिजली आई है। शिक्षा केंद्र प्रांरभ किये गये हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवायें सुलभ कराई गई है। पीने के पानी हेतु हैण्ड पम्प लगाये गये हैं। कृषि, पशु पालन की वैज्ञानिक जानकारियों उन्हें उपलब्ध कराने की व्यवस्था कराई जा रही है। कुछ बैगा युवक शासकीय सेवाओं, रोजगार में आ चुके हैं। उनकी जीवन शैली में आमूल बदलाव दिख रहा है।
बैगा संस्कृति अध्ययन का विषय हो सकती है। पर बैगाओं को किसी अजूबे की शक्ल नहीं दी जानी चाहिये। उनके आवरण को सभ्यता का लिबास अवश्य पहनाना है, पर उनकी आत्मा का भोलापन, निश्छलता, भावनात्मक मौलिकता को दंश नहीं पहुंचाया जाना चाहिये। महुये की शराब, बैगानी गांजा पीने की उनकी दुष्प्रवृत्तियां बेशक बदली जानी चाहिये पर उनके अल्हड नृत्यों की थिरकन, मांदर की थाप पर लय ताल का नृत्य संरक्षित करना समाज की जिम्मेदारी है।
आज के प्रदूषित राजनैतिक वातावरण में कुछ लोग अपने निहित स्वार्थाे की सिद्धि हेतु इस भोले-भाले समाज को एक वोट बैंक के रूप में उपयोग करने के षड्यंत्र कर रहे हैं जो गलत है, ईसाई मिशनरियां इन्हें अपने धर्म प्रचार का कच्चा माल मानकर सेवा के परदे में इनका धर्मातरण करवा रही हैं, शासकीय अधिकारी और राजनेता इनके विकास के नाम पर सरकारी धन का फाग खेल रहे हैं। इस सबसे लगभग बेखबर बैगा अपने आप में मस्त है। जरुरत है कि हिन्दू धर्म के इन शिव भक्तों को मूल धारा के साथ बढने के समुचित अवसर सुलभ करायें जावें।
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