गौतम चौधरी
आज अपने पाठकों के लिए दो ऐसी किशोरियों की कहानी लेकर आया हूं, जिसने ब्रितानी हुकूमत की नींव हिला कर रख दी थी। 15 साल की वो स्कूली छात्रा जिसने चॉकलेट खिलाकर ब्रिटिश मजिस्ट्रेट को गोली मार दी! यह कल्पनातीत है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं, 8वीं कक्षा में पढ़ने वाली दो लड़कियां ब्रिटिश साम्राज्य के एक क्रूर अधिकारी का सामना करने के लिए बंदूक उठा सकती हैं? वह दो किशोरियों थी, शांति घोष और सुनीति चौधरी। इन दोनों ने 1931 में इतिहास बदल कर रख दिया था।
दोनों किशोरियों की वीरता की कथा आपको जरूर जाननी चाहिए। 14 दिसंबर, 1931 सर्दी की सुबह थी। कोमिला (अब बांग्लादेश) के जिला मजिस्ट्रेट चार्ल्स स्टीवंस अपने बंगले पर बैठे थे। दो किशोर लड़कियां, शांति (15 वर्ष) और सुनीति (14 वर्ष), उनसे मिलने पहुंचीं। उनका बहाना? वे अपने स्कूल में एक ‘स्वमिंग क्लब’ (तैराकी प्रतियोगिता) शुरू करने के लिए अनुमति मांगने आयी थीं।
कहा जाता है कि लड़कियों ने डीएम को चॉकलेट या कैंडी भी ऑफर की। जैसे ही स्टीवंस याचिका पढ़ने में व्यस्त हुए, इन ‘मासूम’-सी दिखने वाली लड़कियों ने अपनी शॉल के नीचे छिपी स्वचालित पिस्तौलें निकालीं। शांति और सुनीति ने सीधे फायर किया। स्टीवंस की मौके पर ही मौत हो गई। यह ‘मासूमियत’ का इस्तेमाल करके ब्रिटिश राज को दिया गया सबसे बड़ा झटका था।
गिरफ्तारी के बाद, लड़कियां डरी नहीं। कोर्ट में जब उन्हें सजा सुनाई जा रही थी, वे हंस रही थीं। शांति घोष ने अदालत में जो कहा, वह आज भी रोंगटे खड़े कर देता है –
(“It is better to die than live in a horse’s stable.”)
घोड़ों के अस्तबल ख्गुलाम भारत, में रहने से तो मरना बेहतर है)
उम्र कम होने के कारण उन्हें फांसी नहीं दी जा सकती थी, इसलिए उन्हें आजीवन कारावास (काले पानी) की सजा सुनाई गई। 7 साल तक उन्होंने जेल में कठोर यातनाएं सहीं लेकिन कभी माफी नहीं मांगी। 1939 में गांधीजी और अंग्रेजों के बीच हुई बातचीत के बाद उन्हें रिहा किया गया।
जेल से बाहर आने के बाद शांति रुकी नहीं। उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। 1942 में चित्तरंजन दास (चटगांव के एक क्रांतिकारी, देशबंधु नहीं) से शादी की। आज़ाद भारत में वे पश्चिम बंगाल विधानसभा और विधान परिषद की सदस्य बनीं और जनता की सेवा की।
उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘अरुण वह्नि’ लिखी, जिसका अर्थ है ‘भोर की अग्नि’। शांति घोष का 1989 में निधन हो गया। हमें शांति और सुनीति जैसी वीरांगनाओं को भी नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने अपने बचपन की आहुति देकर हमें आज़ादी दिलाई।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आजादी बिना खड्ग और ढ़ाल से नहीं मिली थी। इसके लिए हमाये पूर्वजों ने बड़े पैमाने पर कुर्बानी दी थी। इस आजादी को कायम रखने के लिए हमें हर वर्क सतर्क रहना होगा।
