राज सक्सेना
विगत पांच राज्यों में हुए चुनावों की सबसे बड़ी विशेषता निर्वाचन के समय राज कर रहे राजनैतिक दलों की सत्ता में वापसी की अग्नि परीक्षा के समान थी। पंजाब को छोड़ जहां कांग्रेस का शासन था, अन्य चारों राज्यों में भाजपा नीत सरकारों की साख दांव पर लगी थी तो पंजाब में कांग्रेस की। इस निर्वाचन में एक उल्लेखनीय बात यह थी कि इसमें भाजपा एक बड़ी और दूरगामी सोच लेकर अपने आपस के सारे मतभेद किनारे कर चार राज्यों में कांग्रेस से लड़ रही थी तो कांग्रेस इन राज्यों में तो भाजपा से लड़ ही रही थी मगर पंजाब में उसकी आम आदमी पार्टी से अस्तित्व की लड़ाई चल रही थी जिसे कांग्रेस का हर पदाधिकारी बड़े बेमन से एक दूसरे की टांग खींचने के लिए लड़ रहा था।
निर्वाचन की घोषणा से पहले ही नवजोत सिद्धू के दबाव में कांग्रेस नेतृत्व अपने पूर्वाग्रहों के चलते कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के नेतृत्व में चल रही सरकार को बदल कर अनिश्चय और असमंजस की स्थिति के चलते दोनों हाथों में लड्डू के चक्कर मंय कथित दलित सिख चन्नी को आपसी अंतर्द्वंद्व के लिए सत्ता सौंप कर पंजाब की ओर से पीठ फेरकर सो रहा था, यह बात भूल कर कि पंजाब का जट सिख किसी और की सत्ता स्वीकार करने की मानसिकता में नहीं रहता। इस बार भी पंजाब का वोटर बदलाव देखना चाहता था क्योंकि पंजाब में 1966 को छोड़ कर किसी भी अगले इलेक्शन में सत्तारूढ़ सरकार को बदलने की परम्परा रही है। पंजाब की कांग्रेस सरकार के ‘इन्कम्बैंसी फैक्टर’ के साथ यह मुद्दा भी जुड़ा और पंजाब के मतदाताओं ने जो अन्य दलों की सरकारें देख चुके थे, इस बार आम आदमी पार्टी पर दांव लगा दिया। फलस्वरूप कांग्रेस अनेक सीटों पर हार कर केवल 18 पर अटक गयी और प्रचंड बहुमत के साथ भगवंत सिंह मान के चेहरे पर आम आदमी पार्टी 92 सीटें लेकर सत्ता में आ गयी।
आइये अब चलते हैं पंजाब में सत्ता के गलियारे में हुए इस विराट बदलाव के निहितार्थ की ओर। सबसे पहले भाजपा की ओर। पंजाब में भाजपा हमेशा शिरोमणि अकाली दल की ‘सबसिडियरी’ पार्टी के रूप में रही थी और अपनी संस्कृति और संस्कारों से बंधे होने के कारण शिरोमणि अकाली दल से अलग भी नहीं हो पा रही थी। शिमअद ने जब किसान कानूनों की आड़ में भाजपा से नाता तोड़ा तो शायद भाजपा के नीति नियंताओं ने चैन की साँस ली होगी क्योंकि उन्हें अब पंजाब में भी अपनी जमीन अलग से तैयार करने का मौका मिलने जा रहा था और उन्होंने बनाया भी। अब तक केवल अपनी आवंटित सीटों पर ही प्रचार करने के बंधुआ आदेश से बंधी भाजपा ने इस निर्वाचन में न केवल पूरे पंजाब में अपनी स्वतंत्रा जमीन तैयार की है अपितु शिरोमणि अकाली दल से अलग हुए धड़े और कैप्टन भूपेंदर सिंह की नई पार्टी से भी समझौता कर एक नवीन शक्ति प्राप्त कर ली है जिसमें उसकी भूमिका बड़े भाई की रही, बंधुआ मजदूर की नहीं। अब भाजपा पंजाब में भी खुलकर अपनी शक्ति संवर्धन योजनाओं पर काम करने में सफल होगी और देश के अन्य प्रदेशों की तरह हो सकता है कि आगामी चुनावों में एक बड़े दल के रूप में सामने आ जाय।
जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है, यदि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और जिसकी पूर्ण सम्भावना भी है तो एक दो अपवादों को छोड़ कर अन्य प्रदेशों की भांति पंजाब में भी किसी सत्ताधारी बड़े दल की चेरी के रूप में नजर आ सकती है और वह बड़ा दल आम आदमी पार्टी हो सकता है क्योंकि कांग्रेस को वर्तमान में पश्चिम बंगाल में टीएमसी ने निगल लिया है और दिल्ली के बाद अब पंजाब में आम आदमी पार्टी इसे निगलने को तैयार बैठी है।
और अंत में ‘आप’ पर। जैसा कि हम सब जानते हैं कि आम आदमी पार्टी अपने दिल्ली के इतिहास को पंजाब में दोहरा रही है। जैसे दिल्ली में वह पहली बार अंधड़ के रूप में और फिर आंधी के रूप आयी थी, वही वह पंजाब की धरती पर कर रही है और जिस तरह से तीसरे दिल्ली निर्वाचन में उसने कांग्रेस का दिल्ली असेम्बली में बीज नाश कर दिया है, वैसा ही अगले निर्वाचन में आम आदमी पार्टी का प्रयास पंजाब से भी कांग्रेस के बीज नाश का रहे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए?
इसमें भी किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए कि अपनी आदत के मुताबिक पंजाब में पूर्ण राज्य और सर्व शक्ति सम्पन्न होने के बावजूद रोज ‘आप’ का केंद्र को लेकर विधवा विलाप, कोसना और स्वयं को बेबस और बेचारा बनने का प्रयास शुरू हो जाय, दिल्ली में परीक्षित नुस्खे के अनुसार पंजाब के चार छः स्कूलों को दिल्ली की तरह बनाया जाय और उसका प्रचार किया जाय। यह भी सम्भावना है कि अब पंजाब के हर सरकारी विज्ञापन में केजरीवाल का चेहरा भगवंत मान के साइज में नजर आने लगेगा और हो सकता है उनसे बड़ा भी हो जाय।
संशय तो इसमें भी नहीं होना चाहिए कि एकाध महीने में ही केजरीवाल और भगवंत मान की महत्वकांक्षाओं में टकराव शुरू हो जाए और अपनी आदत के मुताबिक केजरीवाल मान के सर पर हाथ फिराते हुए मुस्कुराकर ‘बर्फ में लगा दें’ और फिर स्वयं या फिर किसी और को बर्फ में लगाने के लिए फिट कर दें।
यह भी सम्भव है कि ‘आप’ की सुनामी का हवाला देते हुए नवम्बर में गुजरात में होने वाले निर्वाचन के लिए अभी से पंजाब सरकार के बड़े बड़े होर्डिंग्स लगना शुरू हो जाएं और नवम्बर तक गुजरात की सारी सड़कें उन से पटी नजर आने लगें।
आशंका यह भी है कि अब पंजाब से शुरू होकर देश के अन्य भागों में भी अशांति का एक नया दौर शुरू हो जाय और देश में कोई एक बड़ा आन्दोलन फिर से प्रारम्भ होने की सम्भावनाएं अंगड़ाइयां लेने लगें? जिसकी प्रतिध्वनि विदेशों में भी शिद्दत से सुनाई देने लगे।
कुल मिला कर पंजाब में एक अशांति का दौर शुरू हो सकता है जिसमें दिल्ली सरकार का पूर्ण सहयोग सम्भावित है और जिसके देश पर दूरगामी परिणाम भी सम्भावित हो सकते है?
(अदिति)
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेना-दना नहीं है। हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करते हैं।)