गौतम चौधरी
संयुक्त राज्य अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा अभी हाल ही में भारत के खिलाफ लगाए गए 50 प्रतिशत तक सीमा शुल्क का सबसे बड़ा असर, चाइना प्लस वन रणनीति पर पड़ने वाला है। इससे सीधा लाभ चीन को पहुंचेगा। हालिया अमेरिकी रणनीति ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि चाहे वह चीन के खिलाफ कितना भी दिखावा कर ले लेकिन अमेरिकी रणनीतिकार अप्रत्यक्ष रूप से चीन का लगातार सहयोग कर रहे हैं। सहयोग करना स्वाभाविक भी है क्योंकि दुनिया के बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों की पूंजी चीन ने अपने यहां निवेश करवा रखा है। यदि चीन किसी कारण धरासायी होता है तो वहां निवेशित पूंजी को डूबने की पूरी संभावना है। इस बात से अमेरिका भी डरता है और जब कभी भी चीन कमजोर पड़ने लगता है अमेरिका किसी न किसी रूप से उसकी मदद कर देता है। अब हमें यह समझना होगा कि आखिर अमेरिका चीन की मदद क्यों करता रहा है?
दरअसल, जब औटोमन साम्राज्य के पतन के बाद ग्रेट ब्रिटेन का विकास हुआ, तब दुनिया बदल चुकी थी और नए तरह की व्यवस्था खड़ी होने लगी थी। दुनिया भर के व्यापारी और पूंजीपरस्थ ग्रेट ब्रिटेन का संरक्षण प्राप्त करने लगे थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक बार फिर दुनिया बदली और ग्रेट ब्रिटेन कमजोर पड़ गया। अब दुनिया के पूंजीपरस्थों का संरक्षक कौन होगा? ऐसे में इन पूंजीपरस्थों के सबसे बड़े पैरोकार के रूप में उभरकर सामने आए अमेरिका के तत्कालिन राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डेलानो रूजवेल्ट। हालांकि द्वितीय विश्वयुद्ध के थोड़े ही समय के बाद उनकी मृत्यु हो गयी लेकिन उन्होंने अपने सैन्य ताकत के बल पर दुनिया के पूंजीपरस्थों को संरक्षित करने का आस्वासन दिया। इधर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संगठित पूंजीपरस्थों के खिलाफ एक नया ब्लॉक बना। उस ब्लॉक का नेता, यूनाइटेड सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक बन कर उभरा। फिर नए वैश्विक रणनीति का उदय हुआ। पूंजीवाद और साम्यवाद की के बीच दुनिया विभाजित हो गयी। साम्यवादी प्रभाव जैसे-जैसे बढ़ता गया वैसे-वैसे साम्रज्यवादी प्रभाव से नए-नए देश मुक्त होने लगे। साम्यवादी प्रभाव के कारण जो देश आजाद हो रहे थे वह साम्यवादी रूस के साथ होते जा रहा थे। इस बात को लेकर दुनिया के पूंजीपरस्थ चिंतित होने लगे और इस बात की चिंता संयुक्त राज्य अमेरिका को भी होने लगी।
इसी बीच चीन के किसानों ने वहां के राजा और सामंतों के खिलाफ संघर्ष प्रारंभ किया। साम्यवादी रूस ने उस आंदोलन को सहयोग करना प्रारंभ किया। इधर सत्ता पक्ष को अमेरिका ने सहयोग कर दिया। अंततोगत्वा वर्ष 1949 में चीन में भी माओ के नेतृत्व में साम्यवादी सरकार का गठन हो गया। अब चीन का नाम भी बदल दिया गया। अब दुनिया के नक्शे पर एक नया देश उभरा और उसका नाम पीपुल्स लिबरेशन ऑफ चाइना रखा गया। सब कुछ ठीक चल रहा था। माओ और चीनी साम्यवादी नेता रूस के साथ मिल कर दुनिया में साम्यवाद का अलख जगाने की कसमें खा रहे थे लेकिन इधर चीन अपनी सीमा में विस्तार को लेकर भी संवेदनशील था। साम्यवादी रूस की सीमा साम्यवादी चीन से मिलने गली। चीन अपनी सीमा विस्तार की नीति पर आगे बढ़ने लगा। इससे रूस को आपत्ति हुई और दोनों में सीमा विवाद प्रारंभ हो गया। इसी मौके का फायदा पूंजीवादी अमेरिका ने उठाया और चीन को सहयोग करना प्रारंभ कर दिया। साम्यवादी खाल में चीन कब पूंजीवादी हो गया पता ही नहीं चला। दुनिया भर की व्यक्तिगत या कॉरपोरेटी पूंजी की सुरक्षा करने वाला अमेरिका, साम्यवादी चीन का दोस्त बन गया। अब चीन में डेंग शियाओ पिंग का दौर प्रारंभ हो गया था। चीन पूरी तरह बदल गया। चीन रूस को छोड़ अमेरिका का साथी बन गया और बड़े पैमाने पर अमेरिकी संरक्षित पूंजीपरस्थों ने चीन में निवेश किया। आज का चीन उसी पूंजी से दुनिया पर बढ़त बनाते जा रहा है।
जब चीन अमेरिका और अन्य पूंजीवादी देशों पर भारी पड़ने लगा तो पश्चिम के रणनीतिकारों ने चीन की मोनोपोली को कम करने के लिए भारत को खड़ा करने की कोशिश प्रारंभ की। उसी रणनीति का परिणाम चाइना प्लस वन पॉलिसी है। इस पॉलिसी के तहत भारत के पास वैश्विक विनिर्माण के क्षेत्र में निवेश आकर्षित करने का अवसर प्राप्त होने लगा था। अब थोड़ा इस रणनीति को समझ लेना ठीक रहेगा। यह रणनीति कंपनियों की वैश्विक प्रवृत्ति को संदर्भित करता है जिसमें कंपनियाँ चीन के अतिरिक्त अन्य देशों में अपने परिचालन इकाई स्थापित कर अपने विनिर्माण और आपूर्ति शृंखलाओं का विस्तार करते हैं। इस दृष्टिकोण का उद्देश्य विशेष रूप से भू-राजनीतिक तनाव और आपूर्ति शृंखला व्यवधानों को दृष्टिगत रखते हुए किसी एक देश पर अत्यधिक निर्भरता के कारण होने वाले जोखिमों को कम करना है। विगत कुछ दशकों से चीन वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं का केंद्र बन गया है, जिससे इसे ‘वर्ल्ड्स फैक्ट्री’ की संज्ञा दी जाने लगी है। दुनिया के देशों को इस बात की चिंता है कि अगर चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वैश्विक खतरा पैदा हो सकता है। चाइना प्लस वन रणनीति इसी सोच का प्रतिफल है। इस रणनीति के कारण बहुराष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स अनुबंध विनिर्माण कंपनी, फॉक्सकॉन ने भारत में धराधर अपनी शाखा खोलना प्रारंभ की। यही नहीं ऐसी कई कंपनियों ने भारत का रूख लिया था। जिसके कारण चीनी रणनीतिकार दबाव में दिखने लगे थे। अब ऐन वक्त अमेरिकी नेतृत्व ने भारत पर 50 प्रतिशत तक का टैरिफ लाद कर अप्रत्यक्ष रूप से चीन का सहयोग कर दिया है।
वैसे अमेरिकी टैरिफ आक्रमण के कई अप्रत्यक्ष दृष्टिकोण हैं लेकिन इससे यह साबित हो गया है कि अमेरिका चीन के खिलाफ चाहे जितना बोल ले लेकिन वह चीन को आर्थिक रूप से कमजोर नहीं देखना चाहता है। इसके कई कारण चीन-अमेरिकी संबंधों के इतिहास में छुपा है।

बहुत ही तथ्यात्मक विश्लेषण 🙏🙏