अक्कारपु केशवराजू
आंध्र प्रदेश और उसमें भी तेलंगाना का क्षेत्र लम्बे समय से चरमपंथी साम्यवादी जिसे सामान्य भाषा में माओवादी या नक्सली भी कहा जाता है उसके गैर-कानूनी व असंवैधानिक गतिविधियों का केन्द्र रहा है। रूस और चीन के वामपंथी नेताओं का हाथ उनकी पीठ पर रहता था। वहां से उन्हें हथियार और पैसा भी आता था। अतः गांव और कस्बों में वही होता था, जो नक्सली चाहते थे। यद्यपि अब उनके पैर उखड़ चुके हैं। गांव और जंगलों में ‘लाल सलाम’ की जगह अब ‘भारत माता की जय’ और ‘वन्दे मातरम्’ के स्वर सुनायी देने लगे हैंय पर यह स्थिति लाने में सैकड़ों युवा देशप्रेमी कार्यकर्ताओं ने अपनी जान दी है। ऐसे ही एक वीर थे तिम्ममपेट गांव के निवासी श्री माणिक्यम्।
माणिक्यम् अपने गांव तिम्ममपेट के मंदिर में पुजारी थे। अतः धर्म और देश के प्रति भक्ति उनके खून में समाहित थी। उनका व्यवहार सभी गांव वालों से बहुत अच्छा था। अतः वे पूरे गांव में बहुत लोकप्रिय थे। संघ का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उनके विचारों में और प्रखरता आ गयी। गांव में युवाओं की शाखा भी लगने लगी।
नक्सली प्रायः उसके गांव में आकर धनी किसानों और व्यापारियों को लूटते थे। जो उनकी बात नहीं मानते थे, उनकी हत्या या हाथ-पैर काट देना उनके लिए आम बात थी। इसके लिए नक्सलियों की लोक अदालतें काम करती थीं। शासन भी डर के मारे इनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करता था। कहने को तो वे स्वयं को गरीबों का हितचिंतक कहते थेय पर वास्तव में वे गुंडे, माफिया और लुटेरों का एक संगठित गिरोह बन चुके थे।
माणिक्यम् की लोकप्रियता को देखकर नक्सलियों ने उसे अपना साथी बनने को कहा। वे चाहते थे कि हर महीने गांव वालों से एक निश्चित राशि लेकर माणिक्यम् ही उन तक पहुंचा दिया करो पर माणिक्यम् ने इसके लिए साफ मना कर दिया। इतना ही नहीं, वह गांव के युवकों को उनके विरुद्ध संगठित करने लगा। इससे वह नक्सलियों की आंखों में खटकने लगा।
माणिक्यम् के मामा नारायण गांव के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे वारंगल जिला पंचायत के अध्यक्ष भी रह चुके थे। 20 अप्रैल, 1965 को नक्सलियों का एक दल गांव में आया। वे नारायण को पकड़कर गांव से बाहर ले गये और उनसे एक बड़ी राशि की मांग की। जैसे ही माणिक्यम् को यह पता लगा वह सब काम छोड़कर उधर ही भागा, जिधर नक्सली उसके मामा जी को ले गये थे। कुछ ही देर में दोनों की मुठभेड़ हो गयी। नक्सलियों ने माणिक्यम् और नारायण दोनों को मारना-पीटना शुरू कर दिया।
नक्सली संख्या में काफी अधिक थेय पर माणिक्यम् ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने ताकत लगाकर उनके नेता के हाथ से कुल्हाड़ी छीन ली और उस पर ही पिल पड़ा। इससे उसका सिर तत्काल ही धड़ से अलग हो गया। कुछ देर में दूसरे की भी यही गति हुई तथा तीसरा बाद में मरा। बाकी नक्सली भी सिर पर पाँव रखकर भाग गया पर इस संघर्ष में माणिक्यम् को भी पचासों घाव लगे। उसका पूरा शरीर लहूलुहान हो गया। चार-पांच लोगों से अकेले लड़ते हुए वह बहुत थक भी गया था। अतः वह भी धरती पर गिर पड़ा।
इधर नारायण ने गांव में आकर सबको इस लड़ाई की बात बताई। जब गांव के लोग वहां पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि माणिक्यम् के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। माणिक्यम् की वीरता का समाचार राज्य की सीमाओं को पार कर देश की राजधानी दिल्ली तक पहुंच गया। अतः राष्ट्रपति महोदय की ओर से उसकी विधवा पत्नी को ‘कीर्ति चक्र’ प्रदान किया गया। आंध्र के मुख्यमंत्री ने हैदराबाद में उन्हें सम्मानित किया। सामान्यतः यह सम्मान सैनिकों को ही दिया जाता है। ऐसे नागरिक बहुत कम हैं, जिन्हें यह सम्मान मिला हो।
इस घटना से पूरे गांव तथा आसपास के क्षेत्र में बड़ी जागृति आयी। अतः नक्सलियों ने ही डरकर उधर जाना बंद कर दिया।
(लेखक विश्व हिन्दू परिषद दक्षिण भारत क्षेत्र संगठन मंत्री हैं। इनके विचार निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेना देना नहीं है।)