राकेश सैन
1965 में सिंगापुर के प्रथम प्रधानमन्त्री ली कुवान यू ने कहा था ‘मैं सिंगापुर को कलकत्ता बनाना चाहता हूं।’ इन्हीं साहब ने 2007 में अपने पुत्र से कहा ‘बेटा, थोड़ी लापरवाही हुई तो सिंगापुर को कलकत्ता बनने में देर न लगेगी।’ आखिर क्या हुआ 1965 और 2007 के बीच? उत्तर है कि इस दौरान राज्य में वामपन्थियों का शासन था। वामपन्थियों द्वारा सम्भाले गए राज्य बंगाल में क्या नहीं था उनके पास! बन्दरगाह, पास में ही बिहार में खनिज व कोयले के भण्डार, मैदानी क्षेत्रों से जुड़ी हुई रेल सेवा, जलसंसाधनों से भरपूर दामोदर घाटी, बेहतरीन विद्युत् संजाल, चाय बागान, सस्ती कुशल श्रम शक्ति इत्यादि..इत्यादि। कम्यूनिस्ट जब शासन से विदा हुए तो पीछे छोड़ गये कंगाल बंगाल, जो 34 साल पहले विकसित राज्य कहा जाता था।
दूसरी ओर है गुजरात। 26 जनवरी, 2001 को भूकम्प ने राज्य के बहुत बड़े भाग को लगभग बर्बाद कर दिया, कितनी जन हानि हुई और कितनी धन की, इसका सही-सही आकलन शायद ही आज तक लग पाया हो। इस अपार हानि को देख कर तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि इससे बारे जो कोई जो भी आंकड़े दे वो सारे सत्य हैं। यही नहीं गुजरात की अधिकतर जमीन बंजर थी। अहमदाबाद के लिए दिल्ली से मीठा पानी भेजा जाता था। गुजरात में दंगे हुए। कई प्रकार की आर्थिक क्षति हुई। भूकंप द्वारा बर्बादी के 21-22 साल बाद वही गुजरात आज न केवल दोबारा अपने पैरों पर खड़ा है बल्कि देश के विकास का इंजन बन कर उभरा है।
चमकते-दमकते शहर, नगरों का आभास देते गांव, बहुमञ्जिला इमारतें, लम्बी-चैड़ी सडकों पर सरपट दौड़ती महंगे ब्राण्डों वाली गाडियां, कुलांचे भरता व्यापार, उद्योगपतियों व व्यापारियों की सबसे पसन्दीदा जगह, विदेशों में गुजराती व्यवसाइयों का बोलबाला और समृद्धि की हर कसौटी पर खरा उतरने की योग्यता, आज क्या नहीं है गुजरात में? कैसे हुआ? बंगाल विकसित से बीमारू राज्य बना तो लगभग उतने ही कालखण्ड में गुजरात बर्बादी के बाद विकसित कैसे बना? यदि इसके लिए कोई राजनीतिक कारण ढुंढा जाए तो वह है वामपंथ। चूंकि गुजरात वामपंथी चिंतन की चपेट में कभी नहीं आया। यही अन्तर है देश की जमीन से जुड़ी राष्ट्रवादी और विदेश से आयातित वामपन्थी विचारधाराओं के बीच। वामपन्थी विचार देश में विनाश की और राष्ट्रवादी विचारधारा विकास का वाहक बनी। वामपन्थियों ने बंगाल को बर्बाद कर दिया जबकि कांग्रेस, समाजवादी और भाजपा की सरकारों ने गुजरात को प्रगति के प्रथ पर लाकर खड़ा किया। इस मामले में भाजपा को इसका श्रेय तो देना ही पड़ेगा। क्योंकि गुजरात के विकास में सबसे ज्यादा योगदान भाजपयियों का रहा है।
बात करते हैं वामपन्थ की, अपने 34 वर्ष के कार्यकाल में माक्र्सवादियों का एक ही लक्ष्य था कि हर कीमत पर अपनी पार्टी को सत्ता में रखना। इसके लिए बंगाल में चलता था सिर्फ कम्यूनिस्ट डण्डा। हावड़ा स्टेशन पर टैक्सी चलानी है तो, स्कूल मास्टर की नौकरी करनी है तो, सरकारी ठेका लेना है तो, इन सबके लिए सबसे पहले कम्यूनिस्ट पार्टी का सदस्य बनें। वेतन वाले दिन पार्टी के खाते में चन्दा जमा करें। पढ़ाई करनी है तो कम्यूनिस्ट छात्र संघ, फैक्ट्री में काम करना है तो कम्यूनिस्ट यूनियन की सदस्यता लें। जो कम्यूनिसट् नहीं, उसके लिए बंगाल में कोई जगह नहीं। पार्टी में आओ फिर चाहे खुल कर मनमानी करो। रोज हड़ताल, चक्का जाम, इसको पीटो-उसको तोड़ो, पुलिस को लतिया दो, कोई कुछ नहीं कहेगा। एक पान बीड़ी की दुकान भी कोई लगाता था तो पहुंच जाते थे कॉमरेड रसीदबुक ले कर पर्ची काटने। कामरेडों के सत्ता सम्भालते ही मारवाड़ी उद्योगपतियों को ब्लैकमेल किया जाने लगा, चन्दा दो नहीं तो हड़ताल।
सत्ता बन्दूक की नाल से निकलती है के ध्येय वाक्य में विश्वास रखने वाले वामपन्थियों में दूरदर्शिता की ही कमी न थी कि रही सही कसर उनके हिंसक व्यवहार ने पूरी कर दी। वैसे बंगाल में वामपन्थियों का पदार्पण भी 1953 में हुए तेभागा व 1959 में हुए खाद्य जैसे हिंसक आन्दोलनों से ही हुआ। 1953 में बंगाल सरकार ने ट्राम के किरायों में एक पैसे की वृद्धि कर दी जिसके खिलाफ वामपन्थियों ने हिंसक तेभागा आन्दोल चलाया जिसमें सैंकड़ों लोग मारे गए और करोड़ों की संपति स्वाह हुई। इसी तरह 1959 में जन वितरण प्रणाली को लेकर खाद्य आन्दोलन चला जिसकी परिणती भी मानव व सार्वजनिक संपति की बलि के रूप में हुई। 1967 में बंगाल से नक्सवादी आन्दोलन की शुरूआत हुई जिसकी आञ्च में आज तक देश के विभिन्न हिस्से झुलस रहे हैं। इसके अतिरिक्त 2006 और 2008 में सिंगूर, नन्दीग्राम, मिदनापुर जैसे कितने नरसंहार हुए, इन 34 सालों में कितनी राजनीतिक हत्याएं, चुनावी हिंसा हुई इसका अंश मात्र भी जिक्र किया जाए तो हिंसा और अत्याचारों का छोटा-मोटे विश्वकोश तैयार हो सकता है। वामपन्थियों द्वारा राज्य में शुरू की गई हिंसा की परम्परा आज भी तृणमूल कांग्रेस निभा रही है जो वामपन्थियों की खूनी राजनीति के प्रतिरोध स्वरूप पैदा हुई।
ऐसा नहीं था कि कम्यूनिस्ट राज में सिर्फ निजी क्षेत्र ही बर्बाद हो रहा था। नासमझ लोग इसी में खुश थे कि पार्क स्ट्रीट में जो दही का कुल्हड़ 1980 में एक रुपए का था वो वर्ष 2000 में भी इतने का ही मिल रहा है। मगर समझदार लोग समझ चुके थे कि तरक्की रुक चुकी है इस राज्य की। आर्थिक जड़ हो चुका है ये प्रदेश, इसलिए कथित क्रान्ति का मोह छोड़ा और पलायन कर गए। जब तक वामपन्थियों को कुछ समझ आती तब तक उनके किले की रेत खिसक चुकी थी, टाटा सिंगूर और नन्दीग्राम को टाटा करके गुजरात में अपना प्लाण्ट लगा चुका था। वही गुजरात जो चाहे भूकम्प में बर्बाद हो गया परन्तु राष्ट्रवादियों के हाथ में था। वामपन्थियों पर हर चुनावों में बन्दूक की नोक पर सत्ता हथियाने और अलोकतान्त्रिक रूप से सरकारें चलाने के आरोप लगे पर गुजरात में जितने भी चुनाव हुए पूरी तरह हिंसामुक्त रहे। वामपन्थियों ने लगातार सात चुनाव जीत कर बंगाल को बर्बाद किया और गुजरात में भाजपा की हुई सातवीं लगातार जीत के बाद गुजरात विकास की नई कथाएं लिखता नजर आर रहा है। देश के वामपन्थियों को भाजपा से कुछ सीखना चाहिए।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख का कोई लेनादेना नहीं है।)