गौतम चौधरी
सावन मास का पहला पख बीत रहा है, यानी शुक्लपक्ष है। पूर्वी बिहार के गांव-गांव में मांदर के थाप पर बिहुला और विषहरी का कथ्य गीत गाया जा रहा है –
‘‘अरे दइबा मनमा में सोंचे काली नगिनियां,
छतिया पीट रोवे लागी हो राम।
अरे चइबा बिहुला त हई मोर बहिनियां,
बाला मोर बहनोइया हवे हो राम।
अरे मइया डसबो जो आपन बहनोइया तो हमरो नरकवा होई हो राम।’’
सावन मास के शुक्लपक्ष एकम से पूरे एक महीने तक पूर्वी बिहार और पश्चिम बंगाल में मनसा देवी की पूजा की जाती है। मनसा देवी नाग माता के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वैसे तो भिन्न-भिन्न तरीकों से पूरे देश में इनकी पूजा की जाती है लेकिन पूर्वी भारत में इस लोक देवी की पूजा थोड़े अलग रूप में होती है। इसे विषहरी पूजा के नाम से भी जाना जाता है। बता दें कि भागलपुर में जो हिन्दू-मुसलमानों के बीच सबसे बड़ा दंगा हुआ था उसकी शुरूआत भी विषहरी पूजा पर पथराव के कारण ही हुआ था। इससे विषहरी या मनसा के प्रति लोगों की आस्था को समझा जा सकता है। इसी विषहरी पूजा से एक कथा भी जुड़ी हुई है। आज लोगों को यह कथा मिथकीय लग रहा होगा लेकिन इस कथा की व्यापकता पूर्वी बिहार की लोक संस्कृति में रची-बसी है। यह कथा बिहुला-विषहरी की कथा है।
हमारे देश में नागपंचमी पर्व पर नाग पूजा के निमित्त नाना प्रकार के अनुष्ठान किए जाते हैं। पूर्वी बिहार और पश्चिम बंगाल के कई स्थानों पर मेला लगता है, जहां भगत लोग कई आश्चर्यजनक कारनामें दिखाते हैं। पुराणों में नाग को देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। भारतीय धर्म चिंतन में नागों को इतना बड़ा स्थान प्रदान किया गया है कि जहां एक ओर भगवान विष्णु की शैया के रूप में शेष नाग का उल्लेख मिलता है, तो वहीं दूसरी ओर भगवान शिव के गले में वाषुकी नाग विराजमान होते हैं। कहा तो यहां तक जाता है कि शेष नाग के फण पर पृथ्वी टिकी है। भगवान कृष्ण द्वारा उनके बचपन में यमुना नदी में निवास कर रहे नाग को नाथने की कथा तो सर्वविदित है ही। कहते हैं कि कृष्ण ने उस नाग को कुश से नाथा था।
ऐसी कथा है कि इसी वजह से कुश में आज भी विष का कुछ अंश मौजूद है जो उसकी जड़ों को पैर में चुभने से महसूस होता है। ग्रामीण अंचलों में नाग पूजा में कुश का उपयोग आज भी किया जाता है। यह नागपूजा नागों को अपने प्रति सकारात्मक करने का एक अनुष्ठान है। मनसा पूजा या विषहरी पूजा से जिस बिहुला विषहरी को जोड़ा गया है, आज हम उसी कथा के बारे में विस्तार से बताने जा रहे हैं।
कथा के अनुसार मैना, बिहुला, भवानी, विषहर और पद्मा पांच बहने थीं। इनका जन्म सोनदह के माया तालाब में भगवान शंकर के स्नान करने के दौरान उनकी टूटी जटा से हुआ। ये पांचों बहने मृत्यु लोक में अपनी पूजा कराने की महत्वाकांक्षा पाले हुई थी। इस बाबत भगवान शंकर ने उन्हें बताया था कि मृत्युलोक के चंपा नामक नगर में चंद्रधर नाम का एक सौदागर है। वह उनका भक्त और धर्मिक प्रवृति का व्यक्ति है। वह यदि उन पांच बहनों की पूजा देना स्वीकार कर लेगा तो मृत्यु लोक में सब उनकी पूजा करने लगेंगे। पांचों बहनें चंद्रधर सौदागर के पास जाकर पूजा देने की बात कही लेकिन चंद्रधर सौदागर ने उन्हें पूजा देने से मना कर दिया और कहा, ‘‘मैं तो भगवान शिव की अराधना करता हूं। इसलिए मैं और किसी की पूजा नहीं कर सकता।’’ इस प्रकार चंद्रधर ने उन्हें पूजा देने से मना कर दिया। उसके इस व्यवहार से तकलीफ तो सभी बहनों को हुई लेकिन विषहरी को इस बात पर क्रोध आ गया। क्रुध होकर विषहर ने इस अपमान का बदला लेने का निश्चय कर लिया। वह भेष बदलने में माहिर तो थी ही, लिहाजा, उसने अपना स्वरूप बदल-बदल कर चंद्रधर सौदागर के परिवार का नाश करने लगी। यहां के बाद इस कथा को कई प्रकार से सुनाया जाता है। एक कथा में कहा गया है कि विषहरी विषहर ब्राह्मण का भेष धरण कर अक्सर चंद्रधर सौदागर के पास आने लगी। ब्राह्मण विषहर स्वयं निःसंतान था इस कारण चंद्रधर सौदागर भीतर से उससे घृणा करता था। चांद सौदागर के छः पुत्रा थे। उनके घर आकर ब्राह्मण भेषधरी विषहर जिस जगह पर बैठता था, उसके चले जाने के बाद चांद सौदागर उस जगह की मिट्टी कटवा कर हटवा देता और नई मिट्टी डालकर उस जगह को गोबर से लिपवा देता था। यह जान कर ब्राह्मण विषहर ने सोचा कि निःसंतान होने के कारण ही यह सौदागर मेरा इतना अपमान कर रहा है और बाहर से भक्ति-भाव दिखलाता है। विषहर ने चांद सौदागर से इसका बदला उसे भी निःसंतान बना कर लेने का निश्चय कर लिया। सौदागर ने जब बड़े बेटे का विवाह किया तो सुहाग रात में ही विषहर ने सांप भेज कर उसे कटवा दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई। चांद सौदागर के छःपुत्रा बारी-बारी से सुहागरात में ही सर्प दंश का शिकार होकर मर गए। वह भी अब विषहर की तरह ही निःसंतान हो गया। घर में छः विध्वा बहुएं अपने दुर्भाग्य पर छाती पिटती रही। उसकी इस दुर्दशा पर ब्राह्मण भेषधरी विषहर मन ही मन खुश थी।
कुछ समय बाद चांद सौदागर को फिर एक पुत्रा हुआ जिसका नाम रखा गया बाला लखन्दर। चूंकि पहले ही उसके छः पुत्रा शादी के बाद सुहागरात में ही सर्पदंश से मर चुके थे इसलिए चांद सौदागर बाला लखन्दर का विवाह करना नहीं चाहता था। ब्राह्मण भेषधरी विषहर बाला लखन्दर को भी मौत देने का उपाय सोचने लगी। वह चांद सौदागर का गुरु तो था ही लिहाजा सौदागर की मति फेरते हुए उसे बाला लखन्दर की शादी के लिए राजी करा लिया। बाला लखन्दर का विवाह बिहुला से हुआ। इसमें भी विषहर भेषधरी की महत्वपूर्ण भागीदारी रही। बिहुला सब कुछ जान रही थी। उसने अपने पिता बेचु साहु से कहा कि चांद सौदागर के छः बेटे सुहागरात में ही सर्पदंश के शिकार होकर मर चुके हैं। उसके सातवें बेटे बाला लखन्दर से मेरा विवाह होने जा रहा है। इनका भी वही हाल होगा। इसलिए इसका पहले ही कोई उपाय किया जाय। बिहुला के ऐसा कहने पर चांद सौदागर को एक संदेश भेज कर बेचु साहु ने एक पत्रा भेजकर उनसे ऐसा घर बनवाने को कहा कि जिसमें कहीं भी एक छोटा छिद्र भी नहीं रहे। पत्रा पाते ही घर बनना शुरू हुआ। कारीगर को कड़ी हिदायत दे दी गई कि कहीं भी छिद्र नहीं रहे अन्यथा कारीगर को पूरे परिवार समेत मौत के घाट उतार दिये जाएंगे। ऐसे सुरक्षित मकान बनने की खबर जब विषहरी को मिली तो उसे अपनी योजना विफल होती दिखाई देने लगी। फिर भी उसने हार नहीं मानी और कारीगर को बुला कर उसे ऐसी छोटी सुराख मकान की दीवार में छोड़ देने पर राजी कर लिया जिसे आसानी से देखा नहीं जा सके। मकान बनकर जब तैयार हो गया तो चांद सौदागर ने अपने परिजनों के साथ उसका मुआयना किया। उसे वह छिद्र दिखाई नहीं दिया। वह इस तरह के मकान निर्माण से काफी खुश हुआ। तय समय पर बाला लखन्दर का विवाह बिहुला से संपन्न हुआ। वह ससुराल आ गई। विषहरी भी ब्राह्मण भेष में चांद सौदागर के घर आया और बारीक नजरों से नये बने मकान का निरीक्षण करने लगा। चांद सौदागर इस बात को समझ नहीं पाया।
बिहुला जब ससुराल के लिए चली तो अपने पिता से एक कुत्ता, एक बिलार, एक नेवला, एक गरूड़, एक घोड़ा और अगर चंदन की लकड़ी मांग कर साथ में लेती आयी। अगर चंदन में ऐसा गुण था कि यदि सर्प के काटने से कोई मर जाता तो उसे घिसकर पिला देने से वह जीवित हो जाता। सुहागरात में बाला लखन्दर और सती बिहुला गाढ़ी निद्रा में थे। विषहरी ने अपने षडयंत्रा के तहत उस मकान में जो छोटा छिद्र करवा दिया था वह उसकी योजना में बड़ा कारगर सिद्ध हुआ। इसी छिद्र से विषहरी की प्रेरणा पा कर एक पतला सांप कमरे में घुसा और बाला लखन्दर को डंस लिया। उसने बिहुला को जगाने की कोशिश की मगर गाढ़ी निद्रा में होने के कारण नहीं जग पाई। कहते हैं कि उसकी यह निद्रा भी विषहरी की ही करतूत थी। जिस नागिन ने बाला लखन्दर को डंसा वह बिहुला की ही बहन थी। गुरु विषहरी ने उसे काफी दबाव देकर और डरा-ध्मका कर भेजा था। डसने के बाद वह भागी नहीं पलंग के नीचे स्थिर रह कर वह रोने लगी। बाला लखन्दर के प्राण पखेरू उड़ चुके थे। बिहुला नींद में पड़ी रही और उसके द्वारा इस संभावित विपदा से बचने के लिए अपने मायके से लायी गई वे पांचों चीजें व्यर्थ साबित हुईं। जब बिहुला की नींद खुली तो बाला लखन्दर को मृत देख वह छाती पीटकर रोने लगी। उसकी यह दशा देख उसके पति को डंसने वाली नागिन ने उसे सांत्वना देते हुए कहा कि तुम रोओ मत। यदि कहोगी तो मैं अभी तुम्हारे पति को जीवित कर दूंगी लेकिन विषहरी की दुर्गति नहीं हो पाएगी। विषहरी के कारण ही तुम्हारे छः जेठ और पति मरे हैं। तुम्हें इसका बदला लेना है। धीरज रखो। अपने पति की लाश लेकर शीघ्र इन्द्रलोक के लिए प्रस्थान कर जाओ। उध्र बाला लखन्दर के मृत्यु की खबर सुनते ही चांद सौदागर की हवेली में कोहराम मच गया। पिता चांद साहु और मां महेश्वरी समेत छः विध्वा भौजाईयां छाती पीट-पीट कर रोने लगी। सती बिहुला में इतनी क्षमता थी कि वह अपने पति को तत्क्षण जिंदा कर सकती थी लेकिन ऐसा करके वह अपने छः जेठों को जिंदा नहीं कर पाती। लिहाजा, अपने पति की लाश के साथ दो मटकी दही और केला के चार पौधे लेकर इन्द्रलोक के लिए प्रस्थान कर गई।
इस दौरान जिस नागिन ने बाला को डंसा था, बिहुला ने उसे भी अपने जूरे में बांध् लिया। बिलार को भी साथ में ले लिया। कुत्ता, नेवला और गरूड़ को छोड़ दिया। गंगा किनारे जाकर केला के पौधे का बेड़ा बनाया। उस पर अपने पति की लाश रख, बिलार को बैठा कर अपने गंतव्य पर निकल गई। लाश पर दही का लेप चढ़ाती रही ताकि लाश खराब न हो। बीच-बीच में बिलार से लाश पर लगी दही चटवा कर लाश को साफ करने के बाद पुनः दही का लेप चढ़ा दिया करती थी। 12 वर्षों की यह यात्रा थी। रास्ते में कई लोगों ने उसे विवाह का प्रलोभन भी दिया लेकिन पतिव्रता बिहुला ने इन प्रलोभनों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इध्र, विषहर के क्रोध् के कारण चांद सौदागर की संपत्ति नष्ट हो गई और पति-पत्नी दोनों अंधे हो गए। 12 वर्षों तक बिहुला निर्जला उपवास करती रही। बिहुला की एक मौसी थी। उसका नाम रेघवा था। उसका पता-ठिकाना पूछती हुई वह उसके पास गई। सारा हाल कह सुनाया। वह उसके पति की लाश कुछ समय के लिए रखने के लिए राजी हो गई और बिहुला को अकेले ही इन्द्रपुरी जाने की सलाह दी। उसने बिहुला को यह रहस्य भी बताया कि रास्ते में नेतिया नाम की एक धेबिन है जो इन्द्रपुरी का कपड़ा धेती है। वह महा राक्षसनी है, वह देखते ही तुम्हे खा जा सकती है। इसलिए उसके पास जाते ही तुम उससे मौसी का रिश्ता बना लेना। इससे तुम्हारा काम बन जायगा। बिहुला वहां से नेतिया धेबिन के पास गई और नेतिया ने बिहुला से कहा कि उसकी तो कोई बहन ही नहीं है तो वह उसकी यबिहुला कीद्ध मौसी कैसे हुई? इसपर बिहुला ने नेतिया को जवाब दिया कि उसके विवाह के बाद उसकी मां की पैदाईश हुई थी। जब आप अपनी बहन को ही नहीं देखी हैं तो मुझको कैसे पहचानोगी?
बिहुला से ऐसा सुन कर नेतिया को विश्वास हो गया कि वह उसके बहन की ही बेटी है। वह उसे अपने घर ले गई और भोजन के लिए कहा। बिहुला तो निर्जला व्रत रखे हुई थी। सचाई बता देने पर खतरा था इसलिए उसने भोजन के लिए हां कह दिया। वह जब उसे खिलाने ले गई तो पहले हाथ-मुंह धेने के लिए एक लोटा पानी दिया और थाली में भोजन रख दिया। बिहुला ने लोटा के पानी को हाथ-पैर धेने में ही खर्च कर दिया। इस तरह नेतिया जब तक दुबारे पानी लाने बाहर गई तो बिहुला ने मौका पाकर ध्रती से प्रार्थना की, ध्रती फट गई और उसने खाना उसी में डाल दिया। जब पानी लेकर नेतिया लौटी तो थाली खाली देख कर उससे पूछा कि इतना जल्दी कैसे भोजन कर लिया? इसपर बिहुला ने कहा कि बड़ी भूख लगी थी सो जल्दी खा लिया। नेतिया बिहुला को घर पर ही छोड़ कपड़ा देने इन्द्रपुरी चली गई, घर पर दूसरा कोई नहीं था। बिहुला ने एक घर में जाकर देखा तो पाया कि वहां उसके पति और छः जेठ एक कटिया में मक्खी की तरह भनभना रहे हैं। यह देख कर वह नेतिया के कमरे में आ कर सो गई। उध्र नेतिया ने इन्द्रपुरी में बताया कि उसके घर उसकी बहन की एक बेटी आयी हुई है। इसी कारण यहां आने में देर हुई है। यह कपड़ा भी उसी ने तहाया है। इन्द्र के आदेश पर नेतिया घर लौटी और बिहुला को बुलाकर इन्द्रपुरी ले गई। इन्द्र ने नेतिया से कहा कि वह बिहुला को यहीं छोड़कर जाए और कल आकर इसे ले जाए। नेतिया वापस घर लौट गई।
बिहुला ने सारी आपबीती देवराज इन्द्र को सुना दिया। उन्होंने बिहुला से कहा कि जो इच्छा हो मांग लो। इस पर बिहुला ने कहा कि उसका सिंदूर लौटाया जाए, छः जेठों को जिलाया जाए और विषहर को उसके हाथों सौंप दिया जाए। तब इन्द्र ने पूछा कि विषहर को लेकर वह क्या करेगी? इसपर उसने कहा कि विषहर को उसको जो करना होगा वह करेगी। अगर विषहर उसे नहीं दिया जायगा तो वह कुछ नहीं लेगी। इन्द्र ने मृत्यु लोक से विषहर को तुरंत इन्द्रलोक लाने का आदेश दिया। विषहर इन्द्रलोक लाया गया। यहां आने पर जब उसने बिहुला को देखा तो उसके होश उड़ गए। बिहुला ने विषहर के सामने ही इन्द्र को उसके तमाम कारनामों से अवगत करा दिया। विषहर ने बिहुला द्वारा अपने उफपर लगाये गए आरोपों का प्रमाण देने को कहा। बिहुला ने इसके लिए कुछ समय की मांग की। वह रेघवा के घर जा कर अपने पति की लाश ले आई और साक्षी के रूप में अपने जुड़े में बंधे नागिन को खोल दिया। उस नागिन ने कहा कि वह बारह वर्ष से निर्जला है। बोलने की शक्ति उसमें नहीं है। कुछ खाने के बाद ही सारा हाल बता सकूंगी। इसके बाद बाला लखन्दर की लाश के साथ बिहुला को सुलाया गया। जैसे-जैसे नागिन ने उसे डंसा था। सब प्रत्यक्ष उसने दिखा दिया। बिहुला ने इन्द्र से कहा कि विषहर उसके छः जेठ को मार कर नेतिया के यहां रखे हुए हैं। वहां से उन्हें मंगाया जाए। कुछ लोगों के साथ विषहर को नेतिया के घर भेज कर बिहुला के सभी जेठ एवं पति को लाया गया। इन्द्र महाराज ने उन्हें पिफर से जीवित कर दिया। बिहुला इन्द्र की आज्ञा लेकर पति और छः जेठ के साथ अपने घर की ओर वापस चली। सारा समान विषहर के सिर पर लाद कर उसके गले में डोरी बांध् ले चली। रास्ते में विषहर की काफी दुर्गति हुई। पति की लाश के साथ इन्द्र लोक आने के क्रम में जिन लोगों ने उसे प्रलोभन दिया था, सबों को बारी-बारी से मुंह से फूंक कर जला दिया।
अंत में वह अपने नगर में आई और अपने पातिव्रत्य धर्म के बल पर सारी नष्ट हुई संपदा को वापस ले आयी। सास-ससुर को जब स्नान कराया तो उनका अंधपन दूर हो गया। सास और ससुर को उनका सातो बेटा सामने खड़ा कर दिया। इसके बाद डोरी में बंधे विषहर को दिखाते हुए कहा कि ये आपके गुरु महाराज हैं, लीजिए दर्शन कर लीजिए। इतना कह कर गड्ढा खोदवा कर विषहर को उसमें दफन कर दिया गया। कुछ वर्षों तक राज करने के बाद बाला लखन्दर और बिहुला इन्द्रासन प्रस्थान किए और चांद सौदागर के सभी छः पुत्रा एवं पुत्रा वधू आनंदपूर्वक जीवन बिताने लगे। आज भी सती बिहुला का नाम आदर के साथ लिया जाता है। बिहुला-विषहरी लोक कथा की दर्दनाक पहलू एक गीत की इन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है-‘अरे दइबा मनमा में सोंचे काली नगिनियां, छतिया पीट रोवे लागी हो राम। अरे चइबा बिहुला त हई मोर बहिनियां, बाला मोर बहनोइया हवे हो राम। अरे मइया डसबो जो आपन बहनोइया तो हमरो नरकवा होई हो राम।’ संदर्भ यह कि विषहर जब बारी-बारी से बाला लखन्दर को डंसने के लिए सांपों को कोहबर घर में भेजता है तो एक नागिन जो बिहुला के रिश्ते में बहन लगती है, वह बाला लखन्दर को डंसने की हिम्मत नहीं करती। वह वापस अपने गुरू विषहर के पास आ जाती है। वह कहती है कि कमरे का छिद्र पतला है और मेरा शरीर काफी मोटा है। उसमें मेरा प्रवेश असंभव है। इतना सुनते ही ब्राह्मण भेषधरी विषहर कुश की सहायता से दुह-दुह कर उस नागिन के शरीर को पतला बना देता है। इस क्रिया में उसके शरीर के कई टुकड़े हो जाते हैं। धमीन, करईत, गेहुअन, ढ़ोर आदि प्रजाति इसी क्रम में पैदा हुई बतायी जाती है। दूहने की इस प्रक्रिया में उस नागिन को इतनी पीड़ा हुई कि उसने विषहर को सबक सिखाने का निर्णय ले लिया। यही कारण था कि बाला को डंसने के बाद वह भागी नहीं, वहीं ठहर गई और अंत तक अपनी बहन बिहुला का साथ दिया। विषहर की जो दुर्गति हुई उसमें उसका भी योगदान कम नहीं था।
एक दूसरी कथा भी है जिसमें बताया गया है कि चंद्रधर सौदागर चंपानगर के एक बड़े व्यवसायी थे। वे एक परम शिवभक्त भी थे। विषहरी जो भगवान शिव की पुत्री कही जाती हैं ने चंद्रधर पर दबाव बनाया कि वे शिव की पूजा न कर उसकी पूजा करे। लेकिन चंद्रधर राजी नहीं हुए। इसके बाद आक्रोशित विषहरी ने सौदागर के पूरे परिवार को खत्म करना शुरी कर दिया। सौदागर के छोटे बेटे जिनका नाम बाला लखेंद्र था की शादी बिहुला से हुई थी। उसके प्राण की रक्षा के लिए सौदागर ने लोहे-बांस से एक घर बनाया ताकि उसमें एक भी छिद्र न रहें। विषहरी ने उसमें भी प्रवेश कर लखेन्द्र को डस लिया।
सती हुई बिहुला अपने पति के शव को केले के थम से बने नाव में लेकर गंगा के रास्ते स्वर्गलोक तक चली गई। इसके बाद वो पति का प्राण वापस लेकर लौटी। सौदागर भी विषहरी की पूजा के लिए राजी हुए लेकिन बाएं हाथ से तब से आज तक विषहरी पूजा में बाएं हाथ से ही पूजा होती है। बता दें कि सौदागर का बेटे के लिए बनाया हुआ घर आज भी चंपानगर में स्थित है। इस कथा में विषहर ब्राह्मण की चर्चा नहीं है। इसमें विषहरी खुद प्रतिशोध लेती है। इस प्रकार और कई प्रकार से बिहुला की कथा अंग प्रदेश में गायी और सुनायी जाती है।
इस कथा से यह साफ लगता है कि अंग प्रदेश मंे एक ऐसी संस्कृति पनपी जो शिव की तो पूजा करती ही थी साथ में नागपूजा से भी जुड़ी थी। कहीं-कहीं चंद्रधर सौदागर के बारे में यह भी चर्चा है कि वह न केवल सिल्क के कपड़े का व्यापारी थी अपितु चंपानगर स्थित गंगा के बंदरगाह की चुंगी भी वही वसूलता था। इस कथा की ऐतिहासिकता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अंग प्रदेश के चंपानगर की बिहुला विषहरी कहानी पौराणिक मान्यताओं से परिपूर्ण है। इसके तथ्य विक्रमशिला के अवशेषों में भी मिले हैं। यहां एक बात यह भी बता दें कि चैरासी सिद्धों में से एक सरहपाद, जिसकी मान्यता सबसे अधिक है, भागलपुर के आसपास ही कहीं रहा करते थे। यह क्षेत्र किसी जमाने में बौद्ध चिंतन के बज्रयान संप्रदाय का गढ़ माना जाता था। इस प्रकार यह क्षेत्र ब्राह्मणवादी चिंतन के खिलाफ पहले से रहा है।
(आलेख के तथ्य इंटरनेट के विभिन्न साइटों से लिया गया है। इसे हमने केवल संपादित किया है।)