मुसलमान क्या अपनी आधी आबादी की उपेक्षा कर समाज को समुन्नत बना सकते?

मुसलमान क्या अपनी आधी आबादी की उपेक्षा कर समाज को समुन्नत बना सकते?

गौतम चौधरी

सच पूछिए तो इस्लाम में मर्द और औरत के बीच कोई भेदभाव नहीं है। इस्लामिक साहित्यों में इस बात की मुकम्मल चर्चा की गयी है। पवित्र ग्रंथों में बताया गया है कि अल्लाह, जो दुनिया का मालिक है महिलाओं के लिए पुरुषों के समान अधिकार प्रदान किए हैं। मसलन, महिला किसी कीमत पर पुरुषों से कम नहीं हैं। पवित्र कुरान अक्सर ‘‘विश्वास करने वाले पुरुषों और महिलाओं’’ की अभिव्यक्ति का उपयोग पुरुष और महिला दोनों की उनके विशेष कर्तव्यों, अधिकारों और गुणों के संबंध में समानता पर जोर देने के लिए करता है। इस्लाम ने पुरुषों के बराबर महिलाओं के अधिकारों, उनकी गरिमा और सम्मान की पहचान की है। इस्लाम ने असमानता, महिलाओं के प्रति भेदभाव को समाप्त कर दिया और पुरुष व महिला दोनों के लिए एक पूर्ण आचार संहिता दी है। अल्लाह ने कुरान में कहा है, ‘‘जो कोई भी पुरुष या महिला अच्छा करता है, और वह एक आस्तिक है, वह स्वर्ग में प्रवेश करेगा और उनके साथ जरा-सा भी अन्याय नहीं किया जाएगा।’’ (4ः125)।

पवित्र कुरान की शिक्षाओं के विपरीत, कुछ मुस्लिम समुदायों में महिलाओं को अभी भी इस्लाम की बुनियादी शिक्षाओं में निहित अधिकार प्रदान नहीं किए गए हैं। यहां मलप्पुरम केरल की एक घटना का जिक्र करना चाहुंगा। बीते वर्ष 2022 की शुरुआत में एक वीडियो ने पुरुष और महिलाओं के बीच समानता की अवधारणा के बारे में कुछ गंभीर सवाल उठाए हैं। वीडियो में, सुन्नी मुस्लिम विद्वान, एमटी अब्दुल्ला मुसलियार को सार्वजनिक रूप से एक सम्मान समारोह में आयोजकों को डांटते हुए देखा जा रहा है। मुसलियार साहब आयोजकों को दसवीं कक्षा की एक छात्रा को पुरस्कार करने पर डांटते नजर आते हैं। वाकया बेहद गंभीर है। उस मंच पर अब्दुल्ला मुसलियार के अलावे कई मुस्लिम विद्वान उपस्थित थे। जैसे ही इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के नेता पनक्कड़ सैयद अब्बास एएन शिहाब थंगल ने लड़की को एक स्मृति चिन्ह सौंपी मुसलियार आयोजकों में से एक के खिलाफ हो गए। वीडियो में मुसलियार साहब कहते सुने जा रहे हैं कि ‘‘आपको किसने कहा कि दसवीं कक्षा की लड़की को मंच पर आमंत्रित करें … यदि आप (ऐसी लड़कियों को) दोबारा बुलाएंगे …. मैं आपको दिखाऊंगा … ऐसी लड़कियों को यहां मत बुलाओ … क्या आप नहीं जानते संस्था का निर्णय? क्या आपने उसे फोन किया था … कृपया माता-पिता को मंच पर आने के लिए कहें।’’ यह घटना निश्चित रूप से इस्लाम की शिक्षाओं की पुष्टि नहीं करता है। इस्लामी शिक्षा निश्चित रूप से यह नहीं सिखाती है कि महिलाओं को घरों की चारदीवारी के अंदर बंद कर दिया जाए और इस प्रक्रिया में उनकी महत्वाकांक्षाओं और सपनों को कुचल दिया जाए।

बता दें कि इस्लामी धर्मगुरु मौलवियों के विश्वास के विपरीत, मुस्लिम महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में सार्वजनिक जीवन का आनंद लिया है। इस्लामी इतिहास ऐसे कई उदाहरणों से भरा पड़ा है। खदीजा (आरए), पैगंबर मुहम्मद की पहली पत्नी, एक सफल और सम्मानित व्यवसायी महिला थीं। कुछ का कहना है कि उनका व्यवसाय कुरैश के सभी व्यवसायों के संयुक्त व्यापार से बड़ा था। वह निष्पक्ष व्यवहार और उच्च गुणवत्ता वाले सामानों के लिए समाज में की प्रतिष्ठित थीं। इससे पता चलता है कि इस्लाम के शुरुआती दौर में महिलाओं को नेतृत्व, शैक्षिक मार्गदर्शन, उद्यमिता और निर्णय लेने की जिम्मेदारी दी गई थी। हमारे देश में ही दिल्ली सल्तनत काल में रजिया सुल्तान ने पांच साल तक सफल शासन चला के दिखा दिया।

इस्लाम ने पुरुषों की तरह जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं के अधिकारों की गारंटी दी है और महिलाओं पर पुरुषों के प्रभुत्व की अनुमति नहीं दी है। पुरुषों के प्रभुत्व वाली दुनिया में उचित धार्मिक ज्ञान की कमी, महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता की कमी, प्रचलित रीति-रिवाजों और समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता के कारण भी महिलाओं के अधिकारों के बारे में कुछ भ्रांतियां प्रचलित हैं। कभी-कभी महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करने के लिए पुरुष कुछ बुरे रीति-रिवाजों का पालन करते हैं और इस्लामी शिक्षाओं को तोड़-मरोड़ कर इसे वैध बनाने की कोशिश करते हैं। इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों के बारे में प्रचलित गलत धारणाओं को खत्म करने के लिए महिलाओं के बीच उचित इस्लामी ज्ञान और जागरूकता आवश्यक है। हालांकि, यह तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता में आवश्यक परिवर्तन नहीं किए जाते।

हर धर्म पंथ और चिंतन में महिलाओं को उच्च स्थान दिया गया है। कुछ लोग पंथ और परंपराओं की गलत व्याख्या कर महिलाओं के अधिकारों का तिरोहन करने की कोशिश करते हैं। यह निहायत नाजायज है। महिलाओं का अधिकार और उनका कर्तव्य महिला भली-भांति समझती और जानती हैं। हां, ऐसा भी नहीं होना चहिए कि महिलाएं इस आड़ में अपनी मनमानी करने लगें। यदि ऐसा करती हैं तो समाज को खामियाजा बाद में मुगतना पड़ेगा पहले तो उन्हें खुद कई प्रकार की परेशानियां झेलनी होगी। हिन्दू चिंतन में कहा गया है स्त्री भोग की नहीं पूजनीय हैं। इस्लाम में भी कई स्थानों पर महिलाओं का उच्च आदर्श प्रस्तुत किया गया है। इसलिए हमारे समाज को स्त्रियों के प्रति नजरिया बदना पड़ेगा। इस्लामिक चिंतकों को भी इस मामले में अपने हृदय विकास करने होंगे।

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