हरीश दुबे
क्षेत्राफल की दृष्टि से मध्य प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। इस विशेषता के अलावा मध्य प्रदेश अपने आंचल में और भी कई अनूठी चीजों को समेटे हुए है। अनेक परंपराएं तथा कलाएं इस प्रदेश में जन्मीं और यहीं पल्लवित हुई। सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था के उचित संयोजन के लिए मध्य भारत क्षेत्रा की पुरानी रियायतों को अभी भी याद किया जाता है।
किसी भी राज्य की अर्थव्यवस्था करों के उचित निर्धारण तथा वसूली पर ही निर्भर करती है। स्वतंत्राता से पूर्व मध्यप्रदेश की रियासतों ने कितने प्रकार के कर लगाए थे, वे देश में अनूठी किस्म के हैं। आज इन करों का नाम सुनते ही हंसी छूट पड़ती है।
इन रियासतों की आबादी का एक भी हिस्सा करों से अछूता नहीं था। गरीब वर्ग पर करों का बोझ ज्यादा था। दिन-रात मेहनत-मजदूरी कर किसी तरह अपना पेट पालने वाले अति निर्धन वर्ग पर भी तमाम तरह के कर ठोंक दिये गये थे। अपना वंशगत व्यवसाय करने वाले हरिजन वर्ग के धंधों पर भी करारोपण किया गया था।
किसान इन करों के कारण आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह परेशान थे। कुछ ऐसे करों का उल्लेख यहां आवश्यक है जो न केवल हास्यप्रद है बल्कि देश में अपने ढंग के अनूठे हैं। धार रियासत में ’चमारी दुकान कर‘ लगाया गया था। यह कर चर्मकारों की दुकानों से वसूला जाता था। इसकी दर एक रुपया प्रति दुकान थी। वसीदारी भी ऐसा ही एक कर है जो रतलाम की रियासत में धोबियों से वसूल होता था।
पिपलौदा रियासत ने यावता ग्राम में भड़भूजों पर कर लगाया था। इस कर को ’भाड़ टैक्स’ बोला जाता था तथा यह कर भड़भंूजा व्यवसाइयों से वसूला जाता था। पिपलौदा राज्य में ही ’कीकव लाग‘ तथा ’खाडू लाग‘ नाम से दो अन्य कर आरोपित किये गये थे। कीकव लाग गुड़ बनाने वाले किसानों से वसूल किया जाता था जबकि ’खाडू लाग‘ खाडू का काम करने वालों से लिया जाता था। प्रति खाडू पर सवा रुपया लिया जाता था।
कुछ अन्य क्षेत्रों में ’तेलखूंट‘ नाम से कर लगाये जाने का भी उल्लेख मिलता है। यह कर तेली समुदाय से लिया जाता था। ’तेलखूंट‘ की वसूली तेल की प्रति घानी की दर से होती थी। यह कर रतलाम और सैलाना में लागू होता था। सैलाना राज्य के ग्राम डावढ़ी में एक अलग ही तरह का कर लिया जाता था जो गूजर देते थे। यहां के गूजरों से प्रति वर्ष दो रुपये लिए जाते थे। यह कर ’घृत लाग‘ नाम से प्रचलित था।
धार क्षेत्रा में ’पांढर फाला‘ कर लिया जाता था। यह कर केवल चमार तथा पारुढ से लिया जाता था। इसी प्रकार देवास रियासत में स्थित ब्रह्मचर्य आश्रमों से एक विशेष कर वसूला जाता था। मथवाड़ क्षेत्रा में जनता से धर्मादा फण्ड के लिए कर एकत्रा होता था। रतलाम, पिपलौदा तथा सैलाना रियासतों के शासक अपनी प्रजा से एक खास तरह का टैक्स वसूलते थे जिसे स्थानीय भाषा में खिसी कहा जाता था।
मध्य भारत क्षेत्रा की रियासतों में और भी तमाम तरह के बेढंगे कर लागू थे जिनका सामाजिक व्यवस्था व आर्थिक जन-जीवन की दृष्टि से न तो कोई खास महत्व था और न ही सोच समझकर उक्त कर लगाये गये थे। सही तो यह है कि उक्त कर भी तत्कालीन रियासतदारों द्वारा अपनी प्रजा पर किये जाने वाले अत्याचारों का हिस्सा मात्रा बनकर रह गये थे।
इन देशी रियासतों के स्वतंत्रा भारत में विलीनीकरण एवं 28 मई 1948 को मध्यभारत राज्य की स्थापना होने के बाद उक्त सभी करों की तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों की आवश्यकता के अनुरूप पुनः समीक्षा हुई और इनमें से अधिकांश नाजायज एवं हास्यप्रद कर समाप्त कर दिये गये।
तत्कालीन मध्य भारत सरकार ने कोई नया कर न लगाकर भी एक नवंबर 1951 से अनेक पुराने कर बंद कर दिये। यद्यपि मध्यभारत प्रदेश की आर्थिक स्थिति मजबूत थी फिर भी जनता की तरक्की संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक धन की आवश्यकता थी। इसके लिए सरकार ने केवल विक्रय कर लगाया। सही तो यह है कि विक्रय कर कस्टम-कर का ही रूपान्तर था।
मध्यभारत में जिन किसान संबंधी करों को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया, उनमें सड़क कोश, स्कूल कोश, पटवारी फण्ड, कमीशन शिकमी, कोटेश्वर लाग, धर्मादा फण्ड, अबबाब, ऑटी लाग, कीकव लाग, कराई टैक्स, वार फण्ड तथा पोस्ट फण्ड, खाडूलाग, दवाखाना टैक्स आदि शामिल हैं। भारत के मध्य क्षेत्रा की देशी रियासतों के इन करों का अध्ययन करने पर हम तत्कालीन जनजीवन से सीधे रूबरू होते हैं।
(अदिति)