भारतीय धारावाहिक नाटकों में कानून जानकारी का आभाव

भारतीय धारावाहिक नाटकों में कानून जानकारी का आभाव

शादाब सलीम

दो चार दफा कलर्स चैनल के एक नए शुरू होने वाले धारावाहिक का प्रोमो देखा है। उसमें बताया जा रहा है कि आठ बजे मेरी लग्न हुई, दस बजे मैं पंडाल में बैठा, ग्यारह बजे फेरे शुरू हुए, पौने ग्यारह बजे कन्यादान हुआ एवं रात बारह बजे मुझे अपनी पत्नी को तलाक देना पड़ा।

मैं हमेशा से कहता हूं कि भारत के निर्देशकों को कानून की कोई समझ नहीं है एवं वे करोड़ो रूपये खर्च करते हैं लेकिन किसी कानूनविद को नियुक्त भी नहीं करते हैं अन्यथा वकीलों को कोई काम मिल जाए सो उनकी दरिद्रता तो खत्म हो बेचारे कब तक लोहे की टेबलों पर चद्दर के शेड के नीचे बैठे, दुर्भाग्य से उनकी परेशानी खत्म ही नहीं होती। टी एस ठाकुर भी कह कर गए हैं कि आज हमारी गरीबी के कारण कोई हमे लड़की नहीं देता है, उन्होंने ठीक कहा था क्योंकि मेरे ससुर ने भी हाथ पीछे खींच ही लिए थे, चिर कुंआरा रहना पड़ता लेकिन धन्य हो भाग्यवान।

बहरहाल, कलर्स चैनल वाले झूठ बता रहे हैं। भारत के सिनेमा को कानून की समझ है ही नहीं। मुझे तो केवल अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म पिंक ही वास्तविक अदालती कार्यवाही पर आधारित मालूम हुई है उसके अलावा जितनी भी अदालती कार्यवाही दिखाई जाती है सब झूठ है, सन्नी देओल की दामिनी की तारीख पर तारीख भी झूठ है और अमिताभ बच्चन की शहंशाह भी बहुत बड़ा झूठ है,वहां शहंशाह जेके को अदालत की छत पर लटका कर ही मार डालता है।

यह भारत की निरक्षरता के कारण है, शायद विश्व के किसी सिनेमा में ऐसा झूठ और नकली अदालती मामला नहीं दिखाया जाता है। अपनी कहानी के हिसाब से कुछ भी कानून और कुछ भी प्रोसेस बता दी जाती है, कभी कभी तो यह सी ग्रेड टाइप का लगता है जहां विदेशी फिल्मों के पोर्न सीन बीच बीच में डाल दिए जाते थे।

हिन्दू मैरिज एक्ट से जब किसी व्यक्ति की शादी हो जाती है तब उसका तलाक अब जिला न्यायधीश की डिक्री पर ही होगा अब भले शादी शून्य हो या सेपरेशन करना हो या तलाक करना हो या म्युचुअल तलाक करना हो।

डिक्री जारी होने के लिए एक अच्छी खासी लंबी प्रक्रिया है तब जाकर विवाह का विघटन होता है। इसके लिए अदालत में मुकदमा लगाना होता है, बकायदा पेटिशन दाखिल होती है, नोटिस सर्व होते हैं। ऐसा तो कतई नहीं हो सकता कि पौने ग्यारह पर सप्तपदी समाप्त हुई और बारह बजे पति तलाक दे दे, कभी होता भी हो लेकिन वर्तमान में हिन्दू मैरिज एक्ट,1955 आने के बाद तो हरगिज नहीं होता।

हिंदी का सिनेमा एवं टीवी विश्व के सिनेमा के आगे रद्दी इसलिए है क्योंकि वास्तविक घटना से बहुत दूर है। यहां कभी कभार रंग दे बसंती,स्वदेश, पिंक, थ्री इडियट्स जैसा सिनेमा आता है। इससे बेहतर तो पाकिस्तानी ड्रामे श्रेष्ठ है, वह कम से कम उनके समाज के यथार्थ पर है जैसे मैंने उनका ड्रामा दुररे शाहवर देखा जो वहां की स्त्रियों के वास्तविक दमन पर है।

(युवराज)

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