कांग्रेस इसी तहर टूटती-बिखरती रहेगी लेकिन खत्म कभी नहीं होगी

कांग्रेस इसी तहर टूटती-बिखरती रहेगी लेकिन खत्म कभी नहीं होगी

कांग्रेस टूटती-बिखरती रही है और आगे भी ऐसा ही होता रहेगा लेकिन खत्म नहीं होगी। उसकी कम सीटों पर हंसने वाली भारतीय जनता पार्टी को यह समझना चाहिए कि किसी समय उसके पास मात्र दो सीटें थी। 

अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर कांग्रेस के घोषणापत्र पर अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि यह मुस्लिम लीग का घोषणापत्र जैसा लगता है। इसमें कितनी सत्यता है यह तो शोध का विषय है लेकिन प्रधानमंत्री जिस पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार के मुखिया हैं उसने इस बार के लोकसभा चुनाव में उन तमाम नेताओं का टिकट काट दिया है जो हिंदुत्व की मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उसके स्थान पर पार्टी ने कांग्रेस से आयातित नेताओं को तरजीह दी है और उसमें से तो कई को राज्यसभा तक भेज दिया। यदि हम झारखंड की बात करें तो भाजपा कोटे से कुल 13 लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए गए हैं, जिसमें से 11 उम्मीदवार दूसरी पार्टी से आए हुए हैं और एक पलामू लोकसभा क्षेत्र के उम्मीदसार वीडी राम किसी जमाने में विचारधारा के खिलाफ काम करने में माहिर थे। बिहार में भी उसी प्रकार का माहौल है। जिस अधिकारी ने भारतीय जनता पार्टी के मूल चिंतन को भगवार आतंकवाद से जोड़ा आज वे पार्टी के प्रभावशाली नेता हैं। बिहार हो या उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश हो या राजस्थान, गुजरात हो या महराष्ट्र भारतीय जनता पार्टी ने अधिकतर कांग्रेस के उन नेताओं को अपनी पार्टी में लाकर उन्हें महत्वपूर्ण भूमिका में खड़ा किया है जो किसी समय भाजपा चिंतन के खांटी आलोचक रहे हैं। 

उत्तर प्रदेश के एक चाकलेटी नेता कांग्रेस का दामन छोड़ भाजपा की सदस्यता ली, तब कुछ लोगों को शायद लगा होगा कि भारत तेजी से कांग्रेस-मुक्त हो रहा है। 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का मुख्य नारा था- ‘गरीबी हटाओ’। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुख्य नारा है- कांग्रेस हटाओ, जिसे वे अपने खास अंदाज में ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ कहते हैं। यह सही है कि कांग्रेस के लिए रोज-रोज बुरी खबरें आ रही हैं। यह भी सही है कि कांग्रेस अपने सबसे संकट काल से गुजर रही है। 2014 से वह केंद्रीय स्तर पर सत्ता से तो बाहर है ही, प्रांतों में भी उनकी सरकारें एक-एक कर टूट-बिखर रही हैं। 

ऐसे में यह प्रश्न तो है कि क्या कांग्रेस धीरे-धीरे सचमुच विनष्ट हो जाएगी? यदि मुझसे कोई सवाल पूछे तो मैं कहूंगा, ऐसा नहीं हो सकता है। मैंने इस पर अपने तरीके से सोचा है। कांग्रेस के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डालें तो 1883 में एक अंग्रेज अधिकारी, एओ ह्यूम ने कोलकाता के स्नातकों के नाम एक खुला पत्र लिखा था, जिसमें वह एक ऐसे संगठन की जरूरत बताया, जो अंग्रेजी राज और भारत के प्रतिनिधि तबके के बीच संवाद का माध्यम बन सके। दो वर्ष बाद 28-31 दिसंबर 1885 को मुंबई में कुल 72 प्रतिनिधियों की एक सभा में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई। उमेश चंद्र बनर्जी इसके प्रथम अध्यक्ष चुने गए। दादा  भाई नवरोजी और दिनेश वाचा  जैसे लोग इसके संस्थापक सदस्य थे। अगली दफा के सालाना अधिवेशन में बाल गंगाधर तिलक और महादेव गोविन्द रानाडे भी इस संगठन से जुड़ गए। 

दस साल के भीतर ही इस संगठन में वर्चस्व को लेकर गतिरोध प्रारंभ हो गया। कांग्रेस में विभाजन के कई बीज उसी समय अंकुरित हो चुके थे। ऐसा इसलिए भी हुआ कि खुद फिरंगी कांग्रेस को मजबूत नहीं होने देना चाहते थे। उस वक्त उन्होंने डाॅ. अंबेडकर को आगे कर संगठन को कमजोर करने की कोशिश की। इसके बाद गरम दल और नरम दल में कांग्रेस विभाजित हो गयी। धर्म और संप्रदाय के आधार पर भी कांग्रेस में मतभेद उभरे जिसके कारण इंडियन मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। उसकी प्रतिक्रिया में पहले हिन्दू महासभा और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई। कांग्रेस के अंदर खुद जवाहर लाल नेहरू आदि नेताओं ने एक समाजवादी घरा खड़ा कर दिया। इस प्रकार कांग्रेस कई भागों में विभाजित होती चली गयी लेकिन भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की धूरि बनी रही। 

1915 में गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटकर भारत आते हैं और सर्वप्रथम उन दिनों के कद्दावर नेता गोपाल कृष्ण गोखले के निजी सचिव बनाए गए। 1909 में लिखी उनकी किताब “हिन्द स्वराज” में उस समय के भारतीय लोकमानस की एक झलक मिलती है। 1917 में गांधी चम्पारण के किसान आंदोलन को व्यवस्थित करने लगे। इसके बाद वे राष्ट्रीय नेता हो गए और वर्ष 1920 से कांग्रेस उनके नेतृत्व में आ गयी। गांधी के नेतृत्व में ही कांग्रेस किसानों, कामगारों और छोटे व्यापारियों की पार्टी बनी। इसके पहले कांग्रेस केवल प्रभावशाली वकीलों की पार्टी थी, नख-दंत विहीन थी और फिरंगी हुकूमत के लिए सेफ्टी वाल्व का काम कर रही थी। कांग्रेस मुख्यतः वकीलों और जमींदारों की एक महासभा थी, जिसके सालाना अधिवेशन बड़े लोगों की पिकनिक पार्टियों की तरह होते थे। इसका अनुभव जवाहरलाल नेहरू ने 1912 के बांकीपुर (पटना) अधिवेशन में किया था। अपनी आत्मकथा में इस अनुभव को उन्होंने तसल्ली से व्यक्त किया है। 

गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस कायांतरित चट्टान की तहर मजबूत और प्रभावशाली बन गयी। कांग्रेस को उन्होंने जमीन पर उतारने की हर संभव कोशिश की। इस कोशिश में कुछ दकियानूसी फैसले भी लिए गए। खिलाफत आंदोलन का समर्थन कुछ ऐसे ही फैसले थे लेकिन ने कांग्रेस को एक धारदार संगठन बना दिया था। कांग्रेस सदस्यों के लिए सूत कातना आवश्यक कर गांधी ने कांग्रेस में शामिल बड़े लोगों को भी आंशिक ही सही, मेहनतकश बना दिया था। मोतीलाल  नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, राजा जी पट्टाभी सीतारमैया सब के सब एकबारगी बुनकर-जुलाहा  बन गए। खादी का सूत राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गया। यह मेहनत की संस्कृति का पुनर्निर्माण था, जिस पर मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन ने जोर दिया लेकिन इसी वक्त खिलाफत आंदोलन के चक्कर में पड़ना गांधी और उससे अधिक देश के लिए धातक सिद्ध हुआ। कई दूसरे मुद्दों पर भी कांग्रेस के भीतर मतभेद थे। नतीजतन 1923 में मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास और एनी बेसेंट कांग्रेस से टूट कर स्वराज पार्टी बना लिए, लेकिन फिर सब वापस आ गए। 

1929 में कांग्रेस के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू बनाए गए। तब तक कांग्रेस 40 की हो चुकी थी। वर्ष 1930 को 26 जनवरी के दिन कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज के लक्ष्य को अपना लिया और औपनिवेशिक सत्ता के होते स्वशासन की जगह पूरी आजादी कांग्रेस का लक्ष्य हो गया। 1934 में कांग्रेस के अंदर ही युवा समाजवादियों का एक मंच विकसित हो गया। 1938 आते-आते कांग्रेस के भीतर उस तरह की खींच-तान एक दफा फिर प्रारंभ हो गया, जैसी 1906 में नरम और गरम के बीच हुई थी। 1939 में दक्षिणपंथियों को वामपंथियों से तगड़ी सिकस्थ मिली। यह लड़ाई सुभाष बोस और पट्टाभि सीतारमैय्या के बीच में हुई थी। सीतारमैय्या को गांधी का खुला समर्थन था। इस लड़ाई के बाद क्या हुआ, सब जानते हैं। गांधी कांग्रेस के मेंबर भी नहीं थे, लेकिन कांग्रेस में उनकी ही चलती थी। सुभाष चंद्र बोस चुनाव जीत कर भी कांग्रेस छोड़ने के लिए मजबूर हो गए। उस समय ऐसा लगा कि सचमुच गांधी, का झुकाव न केवल सत्ता पक्ष के प्रति है अपितु पूंजीपरस्थों के प्रति भी उनका साफ्टकाॅरनर है। 

कांग्रेस के आरंभिक इतिहास के दो-तीन तथ्यों पर हमें ध्यान देना चाहिए। 1920 से पूर्व कांग्रेस के कद्दावर नेता तिलक थे। वे जीते या हारें और उनके विचार चाहे जो हों, कांग्रेस का मतलब तिलक था। 1920 से कांग्रेस गांधी की हो गयी और वह तब तक रही, जब तक नेहरू प्रधानमंत्री नहीं हो गए। नेहरू के प्रधानमंत्री होने के बाद कांग्रेस का मतलब था नेहरू। जो नेहरू के साथ नहीं था, वह कांग्रेस में भी नहीं टिक सका। फिर कांग्रेस इंदिरा गांधी की हो गयी। दो बार इंदिरा को कांग्रेस से लगभग बहिष्कृत कर दिया गया।  पहली दफा जुलाई 1970 में, जब उनके राष्ट्रपति उम्मीदवार के प्रस्ताव को उनकी ही पार्टी ने निरस्त कर दिया। इंदिरा जी ने जगजीवन राम का प्रस्ताव किया था लकिन सिंडिकेट ने नीलम संजीव रेड्डी को उम्मीदवार बना दिया। दूसरी दफा 1978-79  में देवराज अर्स के नेतृत्व में कांग्रेस दो फाड़ हो गयी। इन दोनों बार कांग्रेस कमजोर स्थिति में थी। 1978-79 में तो कांग्रेस सत्ता में भी नहीं थी। इंदिरा गांधी मुकदमे, गिरफ्तारी और संसद की सदस्यता गंवाने जैसी कार्रवाइयों से परेशान थीं, लेकिन कांग्रेस वहां रही, जहां इंदिरा ले गयीं। 

1990 के दशक से लेकर अब तक पर नजर डालें तो मई 1991 में राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी। चुनाव के बाद पामूला पति नरसिंह राव कांग्रेस आलाकमान और प्रधानमंत्री थे। इनके नेतृत्व में आर्थिक क्षेत्र में नेहरू युगीन मिश्रित व्यवस्था की सोच को हटा कर उदारवादी नीतियां अपनाई गईं। साल भर बाद अयोध्या में विवादित मस्जिद के ढांचे को हिंदूवादी ताकतों ने ढहवा दिया। अब कांग्रेस की ताकत भाजपा की तरह जाने लगी थी। कहा जाता है, प्रधानमंत्री राव उस रोज दिन में तब तक सोते रहे, जब तक मस्जिद ध्वस्त नहीं कर दी गई। इन सब के कारण  कांग्रेस कमजोर होती गयी। 1991 तक 244 सीटें लाने वाली कांग्रेस 1996 और 1998  में 140  और 141  पर सिमट गयी। 

ऐसे में एक बार फिर एक करिश्माई नेता की बात उठी और लौट कर लोग एक बार फिर उस पुराने घराने के पास आये। सोनिया से राजीव की मौत के बाद ही कांग्रेस की कमान संभालने का आग्रह किया गया था, लेकिन उन्होंने मजबूती से मना कर दिया था। एक बार फिर सोनिया से आग्रेह होने लगा। इस बार वह तैयार हो गयीं। सोनिया ने कोई सत्ता नहीं हासिल की, कांटों का ताज संभाला। कांग्रेस निष्प्राण थी। लोग उसकी आखिरी सांसें गिन रहे थे। राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस के मरने की भविष्यवाणियां कर रहे थे। एक मृतप्राय पार्टी का नेतृत्व उन्होंने अपने हाथ में लिया। 1999 के लोकसभा चुनाव में तो पारा और नीचे उतर गया, जब कांग्रेस को सिर्फ 114 सीटें मिली। सोनिया के नेतृत्व में यह पहला चुनाव था लेकिन सोनिया ने सधे कदमों से अपनी राजनीति कायम रखी। उन्होंने क्षेत्रीय दलों और वामपक्ष से कांग्रेस का एक समन्वय बनाया। 2004 में सोनिया के समन्वय का थोड़ा कमाल दिखा। सीटें तो भाजपा से केवल सात ही अधिक थीं (145 सीटें कांग्रेस की थीं और 138 भाजपा की), लेकिन तालमेल और कूटनीति के तहत अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को हार का सामना करना पड़ा। 

2009 में कांग्रेस 206 और भाजपा 116 पर सिमट गयी। सात सीटों का फासला बढ़ कर 90 का हो गया। कांग्रेस को और आगे बढ़ना था लेकिन अचानक वह फिसल गयी। उसे नए विचारों और खून की जरूरत थी।  उस पर दलाल हावी होने लगे। दूसरी बात यह है कि जब 2009 में बिना वामपंथियों के कांग्रेस ने सफलता हासिल की तो कांग्रेस को घमंड भी हो गया और उसे लगने लगा कि वह बिना वामपंथ के देश की सत्ता चला सकती है। इस बीच कांग्रेस की नीति जनविरोधी होती गयी। परमाणु दायित्व विधेयक पर कांग्रेस ने अमेरिकी भक्ति दिखाई। साथ ही बाहरी पूंजी का समर्थन किया। यही कांग्रेस के लिए खतरनाक हो गया। दूसरी ओर कांग्रेस चौतरफा सुस्त होती गयी और भाजपा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्रीय कमान सौंप दी। यह एक प्रयोग था, जो पर्दे के पीछे से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा था। दो कदम आगे बढ़ने के लिए एक कदम पीछे चलने की राजनीति। अपनी रणनीति के मामले में मोदी ने जाने-अनजाने 1970-71 के इंदिरा गांधी की नकल की, फिर अपनी ही पार्टी के उस कल्याण सिंह का भी अनुसरण किया, जिसे अटल बिहारी ने घर बैठा दिया था। नतीजा हुआ 2014 में मोदी ने आश्चर्यजनक रूप से दिल्ली की सत्ता हासिल कर ली। भाजपा का पूर्ण बहुमत के साथ आना केवल कांग्रेस की नाकामी का नतीजा ही नहीं है अपितु वाम चिंतन की भी भयानक हार थी, जो देश में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर लगातार काम कर रहे थे। 

कांग्रेस 206 से अचानक 44 पर आ गयी। कांग्रेस इस वक्त कुछ गरूर में चली गयी। राहुल गांधी को नेता के रूप में खड़ा किया गया। उन्होंने अपने इर्द-गिर्द जो टीम बनाई, वह राजसी किस्म की थी। अंग्रेजीदां, चिकने-चुपड़े चेहरे और खानदानी पृष्ठभूमि। ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद जैसे चेहरे कांग्रेस के लिए भार के सिवा कुछ नहीं थे लेकिन उन्हें कांग्रेस की मुख्यधारा और प्रथम पंक्ति का नेता बनाया गया। इसमें से कोई भी किसान, मजदूर, छोटे व्यापारी और जमीनी नेता नहीं थे। इसमें ज्योतिरादित्य और जितिन तो अलग हो चुके और सचिन भाजपा में जाने को तैयार बैठे हैं। 

हम यह कहने की स्थिति में हैं कि राजस्थान में गहलोत, कर्णाटक में सिद्धारमैय्या या छत्तीसगढ़ में बघेल जैसे नेता उन सब के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत थे लेकिन उन्हें केन्द्रीय टीम में नहीं रखा गया। ज्योतिरादित्य, जितिन और सचिन के उदाहरण कुछ और संकेत करते हैं।  राजनीति में सत्ता हासिल करना उद्देश्य अवश्य होता है, लेकिन वह तो पावर है, ताकत है, इसलिए उसे हासिल करना है। असली मकसद तो वे उसूल और विचार या कार्यक्रम हैं, उसको पूरा करने के लिए सत्ता चाहिए। ये कैसे कांग्रेसी हैं, जो सत्ता के लिए कांग्रेस से सीधे भाजपा में मिल रहे हैं। इसका मतलब उनकी कोई विचारधारा नहीं थी। पार्टी छोड़ना कोई गलत नहीं है। लोकतंत्र में इस प्रवृति का न होना ही गलत है। पार्टी की स्थिति से रंज हो कर पहले भी नेताओं ने पार्टी छोड़ी है। सुभाष चंद्र बोस  अध्यक्ष पद का चुनाव भारी बहुमत से जीत कर भी पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर हुए थे लेकिन वह हिन्दू महासभा में नहीं चले गए। 1948 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के लोगों ने इकट्ठे पार्टी छोड़ी। उन लोगों ने सोशलिस्ट पार्टी बनाई। चरण सिंह, चंद्रशेखर जैसे जाने कितने लोगों ने कांग्रेस छोड़ी लेकिन उनमें से शायद ही कोई जनसंघ की सदस्यता ग्रहण की। समान विचारों के दलों में उनका जाना हुआ, अथवा उन्होंने अपनी पार्टी बनाई। शरद पवार, ममता बनर्जी, जगनमोहन रेड्डी ने भी पार्टी छोड़ी, लेकिन उन्होंने  राष्ट्रवादी कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और वाईएसआर कांग्रेस बनाई, वे भाजपा में नहीं गए। ज्योतिरादित्य, गौरव भल्लभ और जितिन भाजपा में गए हैं। इन्होंने पार्टी तो छोड़ी ही है, विचार का भी परित्याग किया है। इन दिनों राहुल गांधी भी कभी-कभार ब्राह्मण बनने की कोशिश करते दिखते हैं लेकिन उन्हें यह सोच लेना चाहिए कि ब्राह्मण बनने से उन्हें वोट नहीं मिलने वाला है। इसलिए वे जहां हैं वहीं रहें और संघर्ष करें। 

कांग्रेस के भविष्य का अनुमान यहां जरूरी है। कांग्रेस खत्म नहीं होगी। क्या रूप होगा, कहा नहीं जा सकता है लेकिन परिस्थितियां कांग्रेस को आत्म बदलाव  के लिए मजबूर कर देंगी। यह प्रकृति का नियम है। उसका रूप बदल जाये, नाम बदल जाये, लेकिन एक विचार जो कांग्रेस के रूप में है, मध्य मार्ग विचार, वह कांग्रेस की पूंजी है। इसी के इर्द-गिर्द एक बार फिर राजनीतिक जुटान होगा। जिस तरह कांग्रेस की नाकामियों का लाभ भाजपा को मिला, उसी तरह भाजपा की नाकामियों का लाभ अंततः कांग्रेस को मिलेगा, क्योंकि कोई अन्य राष्ट्रीय पार्टी दिखाई नहीं देती, जो कांग्रेस की तुलना में खड़ी हो। इस बीच कांग्रेस को लाभ लेने लायक अपनी जमीन बना लेनी चाहिए। कांग्रेस को रजवाड़ी और सामंती ताकतों के मुकाबले सभी तबकों के युवाओं को प्रोत्साहन देना चाहिए। महिलाओं की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करे, ताकि आधी आबादी को वह विश्वास में ले सके। दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े तबकों की नई पीढ़ी एक नयी पार्टी की तलाश में है। कांग्रेस उस तलाश को पूरी कर सकती है। 

भाजपा नेता कांग्रेस की कम सीटों के लिए व्यंग्य करने के समय भूल जाते हैं कि 1984 में उसके पास बस 2  सीटें थी। आज वह पूर्ण बहुमत में है।  कांग्रेस के पास तो अभी 50 से अधिक सांसद हैं। कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, पाने के लिए पूरी सत्ता है। भविष्य उसका हो सकता है, यदि वह चाहे तो। कट्टरपंथी दक्षिणपंथ और क्रूड़ पूंजीवाद के खिलाफ कांग्रेस को एक मोर्चा बनाना चाहिए और उसमें वामपंथियों को जबतक शामिल नहीं किया जाएगा तबतक कांग्रेस मजबूत नहीं होगी। इसके लिए कांग्रेस को थोड़ा त्याग करना होगा।

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