अशोक प्रवृद्ध
नवरात्र काल में आदि काल में सृष्टि निर्माण से संबंधित दो प्रसिद्ध दैत्य मधु व कैटभ नामक भ्राताद्वय के वध की कथाएं लोगों के मन मस्तिष्क पर छाई रहती हैं। असुरों के पुराण प्रसिद्ध राक्षसद्वय मधुकैटभ की उत्पत्ति महाभारत शांति पर्व 355/22 व देवी भागवत पुराण 1/4 के अनुसार कल्पांत तक सोते हुए विष्णु के कानों की मैल से हुई थी। विष्णु धर्माेत्तर पुराण 1/15 के अनुसार विष्णु के पसीने से हुई थी। तथा महाभारत शांति पर्व 355/22 और पद्म पुराण सृजन खंड 40 के अनुसार रजोगुण और तमोगुण से हुई थी। मार्कण्डेय पुराण के दुर्गा सप्तशती में अंकित वर्णन के अनुसार देवी की उत्पति सर्वप्रथम तब हुई, जब कल्प के अंत में योगनिद्रा में सोये हुए भगवान विष्णु के कानों के मैल से उत्पन्न मधु और कैटभ नामक राक्षसों ने ब्रह्मा अर्थात प्रजापति अथवा संवत्सर को नष्ट कर देना चाहा। ब्रह्मा ने उस समय देवी का जिन शब्दों में आवाहन किया था, वह ऋग्वेद में अंकित वाक अर्थात तड़ित अथवा विद्युत के स्वकथित वर्णन से बहुत कुछ मिलता है।
देवी सप्तशती में देवी का आवाहन करते हुए ब्रह्मा कहते हैं- देवी! तुम ही स्वाहा, स्वधा, तथा वषट्कार हो। स्वर भी तुम्हारे ही रूप हैं। ॐकार भी तुम ही हो। देवी! तुम ही इस विश्व ब्रह्मांड को धारण करती हो। खड़ग धारिणी, शूल धारिणी, गदा, चक्र, शंख तथा धनुष धारण करने वाली हो। बाण, भुशुंडि तथा परिध भी तुम्हारे अस्त्र हैं। वाक स्वयं कहती है- मैं देवी रुद्र, बसु, आदित्य तथा विश्वेदेवों के रूप में विचरती हूँ, मैं ही ब्रह्मद्वेषियों को वध करने के लिए रुद्र के धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाती हूँ। महाभारत में अंकित है कि मधु के मारने वाले भगवान विष्णु स्वयं हैं। दुर्गा सप्तशती के अनुसार भी मधु और कैटभ को विष्णु ने ही मारा था, परंतु देवी ने इस कार्य में उनका साथ दिया था। प्राचीन वैदिक काल में मधु वर्ष के प्रथम मास का नाम था। मधु तथा माधव ये दोनों महीने वसंत ऋतु के होते थे। इसलिए मधु संवत्सर का सिर था।
वृहदारण्यकोनिषद में संवत्सर तथा यज्ञ दोनों को ही प्रजापति कहा गया है। यज्ञ तथा यज्ञीय अश्व का अनेक स्थानों में समीकरण किया गया है। यज्ञ के अश्व का वध होता था। उषा को भी यज्ञीय अश्व का सिर कहा गया है। ऋग्वेद के इंद्र उषा के रथ का ध्वंस करने वाले हैं। छान्दोग्य उपनिषद 1 /3 में आदित्य को देवमधु, उसकी किरणों को भ्रमर तथा दिशाओं को मधुनाड़ी कहा गया है। इंद्र के मेघ से सूर्य आच्छादित हो जाता है, तथा सूर्य के तिरोहित होने पर उसके स्थान पर तड़ित अर्थात वाग्देवी का प्रकाश सूर्य के समान रहता है।
देवी द्वारा मधु का यही वध है। कैटभ अथवा केतु भी चंद्रमा अथवा सूर्य ही है, जो अकेतु अर्थात अचेतन को केतु अर्थात चेतनशील करता है। महिषासुर का वध भी वृष्टि के द्वारा सूर्य की लोकनाशक प्रवृति के दमन का रूपक है, अन्यथा महिषासुर वध महान आच्छादक वृत्र का ही वध है। विष्णु द्वारा मधु कैटभ का वध संवत्सर द्वारा सूर्य तथा चंद्रमा का नियमवद्ध होना है।
वर्तमान में प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन काल में चतुर्दिक जलायमग्न स्थिति में कल्पांत तक शेषनाग की शैय्या पर सोये भगवान विष्णु के दोनों कान की मैल से मधु और कैटभ नामक दो महापराक्रमी दानव उत्पन्न हुए। उत्पन्न होते ही वे अपनी उत्पति का कारण सोचने लगे। कैटभ ने मधु से कहा- इस जल में हमारी सत्ता को क़ायम रखने वाली भगवती महाशक्ति ही हैं। उनमें अपार बल है। उन्होंने ही इस जल तत्त्व की रचना की है। वे ही परम आराध्या शक्ति हमारी उत्पत्ति की कारण है। इतने में ही आकाश में एक सुंदर वाग्बीज गुंजने लगा। गुंजते वाग्बीज को सुन उन दोनों दैत्यों ने सोचा कि यही भगवती का महामंत्र है और वे उसी मंत्र का ध्यान और जप करने लगे। अन्न -जल का त्याग करके निराहार रह उन्होंने एक हज़ार वर्ष तक बड़ी कठिन तपस्या की, तो भगवती महाशक्ति उन पर प्रसन्न हो गईं। और आकाशवाणी से उनसे वरदान मांगने के लिए कहा।
मधु और कैटभ ने उनसे स्वेच्छामरण का वर देने की मांग की। देवी ने दैत्यों से कहा- मेरी कृपा से इच्छा करने पर ही मृत्यु तुम्हें मार सकेगी। देवता और दानव कोई भी तुम भ्राताद्वय को पराजित नहीं कर सकेंगे। देवी का वर पाकर मधु और कैटभ को अत्यन्त अभिमान हो गया। वे समुद्र में जलचर जीवों के साथ क्रीड़ा करने लगे। एक दिन अचानक प्रजापति ब्रह्मा पर उनकी दृष्टि पड़ी। ब्रह्मा कमल के आसन पर विराजमान थे। उन दैत्यों ने ब्रह्मा से युद्ध करने के लिए ललकारते हुए कहा कि कहा- हमसे युद्ध करो, यदि लड़ना नहीं चाहते तो इसी क्षण यहाँ से चले जाओ, क्योंकि यदि तुम्हारे अन्दर शक्ति नहीं है, तो इस उत्तम आसन पर बैठने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। मधु और कैटभ की बात सुनकर ब्रह्मा अत्यन्त चिंतित हुए कि उनका सारा समय तो तप में व्यतीत हुआ है। युद्ध करना उनके स्वभाव के प्रतिकूल था। भयभीत होकर वे भगवान विष्णु की शरण में गये। उस समय भगवान विष्णु योगनिद्रा में निमग्न थे।
ब्रह्मा के बहुत प्रयास करने पर भी उनकी निद्रा नहीं टूटी। अन्त में उन्होंने भगवती योगनिद्रा की स्तुति करते हुए कहा- भगवती! मैं मधु और कैटभ के भय से भयभीत होकर आपकी शरण में आया हूँ। भगवान विष्णु आपकी माया से अचेत पड़े हैं। आप सम्पूर्ण जगत की माता हो। सभी का मनोरथ पूर्ण करना आपका स्वभाव है। आपने ही मुझे जगतस्रष्टा बनाया है। यदि मैं दैत्यों के हाथ से मारा गया तो आपकी बड़ी अपकीर्ति होगी। इसलिए आप भगवान विष्णु को जगाकर मेरी रक्षा करें। ब्रह्मा की प्रार्थना सुनकर भगवती भगवान विष्णु के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु और हृदय से निकल कर आकाश में स्थित हो गईं। और भगवान विष्णु उठकर बैठ गये। बाद में उनका मधु और कैटभ से पाँच हज़ार वर्षों तक घोर युद्ध हुआ। फिर भी वे मधु कैटभ भ्राता द्वय को परास्त करने में असफल रहे। बाद में उन्हें स्मरण हुआ कि इन दोनों दैत्यों को भगवती ने इच्छामृत्यु का वर दिया है। भगवती की कृपा के बिना इनको मारना असंभव है। इतने में ही उन्हें भगवती योगनिद्रा के दर्शन हुए। भगवान ने रहस्यपूर्ण शब्दों में भगवती की स्तुति की।
तब भगवती ने प्रसन्न होकर कहा- आप देवताओं के स्वामी हैं। मैं इन दैत्यों को माया से मोहित कर दूँगी, तब आप इन्हें मार सकेंगे। भगवती का अभिप्राय समझकर विष्णु ने दैत्यों से कहा कि तुम दोनों के युद्ध से मैं परम प्रसन्न हूँ। इसलिए मुझसे इच्छानुसार वर माँगो। दैत्य भगवती की माया से मोहित हो चुके थे। उन्होंने कहा- हम याचक नहीं हैं, दाता हैं। तुम्हें जो मांगने की इच्छा हो, हम से प्रार्थना करो। हम देने के लिए तैयार हैं। विष्णु बोले- यदि देना ही चाहते हो तो मेरे हाथों से मृत्यु स्वीकार करो। भगवती की कृपा से मोहित होकर मधु और कैटभ अपनी ही बातों से ठगे गये। भगवान विष्णु ने दैत्यों के मस्तकों को अपने जांघों पर रखवाकर सुदर्शन चक्र से काट डाला। इस प्रकार मधु और कैटभ का अन्त हुआ। कथा के अनुसार जब ये ब्रह्मा को मारने दौड़े तो विष्णु ने इनका वध कर दिया। तभी से विष्णु मधुसूदन अर्थात मधु दैत्य का संहार करने वाले और कैटभभाजित अर्थात कैटभ दैत्य के विनाशक कहलाए। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार उमा ने कैटभ को मारा था, जिससे वे कैटभा कहलाईं। महाभारत और हरिवंश पुराण का मत है कि इन असुरों के मेदा के ढेर के कारण पृथ्वी का नाम मेदिनी पड़ा था।
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