कुछ के चरमपंथी चिंतन को बहुसंख्यक विचार न समझें

कुछ के चरमपंथी चिंतन को बहुसंख्यक विचार न समझें

रजनी राणा

हरिद्वार में पिछले दिनों संपन्न हुई धर्मसभा के दौरान महामंडलेश्वर नरसिंहानंद सरस्वती द्वारा मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के विरूद्ध किये गये आह्वान, गुरूग्राम में हिन्दुवादी समूहों द्वारा मुसलमानों के जुम्मे की नमाज में विघ्न डालना तथा दिल्ली में एक मीटिंग के दौरान हिन्दू युवा वाहिनी द्वारा मुस्लिम विरोधी घटना को अंजाम देने इत्यादि को भारत में बढ़ रही मुस्लिम विरोधी हिंसा में बढ़ोतरी के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। इसे असहिष्णुता के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। भारत विरोधी समाचार माध्यम इसे भारत के खिलाफ हथियार के रूप में उपयोग करने लगे हैं। लेकिन आम तौर पर इस देश में ऐसा कुछ भी नहीं है। किसी भी आम मुसलमान की दिलचर्या यह साबित करती है कि वे इस तरह की एकाएक घटी चरम चिंतन पर आधारित घटनाओं, प्रतिक्रियाओं से बिल्कुल ही प्रभावित नहीं होते हैं। एक आम हिन्दू, किसी भी अन्य मुसलमान के साथ शांतिपूर्ण ढ़ंग से रह रहा है और अपना दैनिक कार्य भी कर रहा है।

सरकारी नौकरी हो या फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियां, हर कहीं अल्पसंख्यक मुसलमानों की अनुपातिक हस्तक्षेप साफ दिखता है। पेशेवर मुसलमानों को न तो रोजगार में कोई परेशानी हो रही है और न ही अपने धार्मिक व पारंपरिक कार्य में कोई व्यावधान पैदा करता है। इसका जीता-जागता सबूत भी है। टाटा समूह जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने तो अपने परिसार में मुस्लिम कर्मचारियों को जुम्मे की नमाज पढ़ने के लिए जगह भी उपलब्ध कर रखी है। गुरूग्राम के विवाद के दौरान ही एक हिन्दू व्यक्ति ने नमाज के लिए अपना परिसार तक उपलब्ध कराने की पेशकश की थी। इससे यह साबित होता है कि नमाज से संबंधित हर प्रकार का विवाद कुछ ही दिनों में अपने आप खत्म हो जाता है और यह समाज के गहराई में बिल्कुल ही नहीं है। देश में राजनीतिक तौर पर गर्म हुए चुनावी माहौल के कारण संभवतः ध्रुवीकरण के लिए ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया जाता है लेकिन यह बिल्कुल सतही होता है। समाज इसे कतई स्वीकार नहीं करता है। इसके कारण बड़े पैमाने पर भारत में व्याप्त सांप्रदायिक-सौहार्द पर कोई असर देखने को नहीं मिलता है।

अधिकतर भारतीय धार्मिक स्वतंत्रता में विश्वास रखते हैं, धार्मिक सहिष्णुता के मूल्य को समझते हैं एवं ऐसा मानते हैं कि सभी धार्मों के प्रति आदर-सम्मान करना ही धर्म की सही अर्थ है। भारत का कानून और संविधान भी हर व्यक्ति को धर्म की स्वतंत्रता प्रदान करता है। पाकिस्तान या अन्य देशों की तरह भारत में धर्म, जाति, पंथ, भाषा या रेस के आधार पर व्यक्ति को विशेषाधिकार नहीं है। उदाहरण के तौर पर जितेन्द्र नारायण सिंह त्यागी, जिसे पहले वसीम रिजवी के नाम से जाना जाता था और नरसिंहानंद सरस्वती के खिलाफ त्वरित कार्रवाई से यह साबित होता है कि भारत में कानून सर्वोपरि है, न की धर्म। चरमपंथी विचारों को कोई भी व्यक्तिगत छमता में तो उजागर कर सकता है, किन्तु इनका आम जीवन में प्रदर्शन करने से उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होना लाजमी है। न सिर्फ मुसलमान बल्कि दूसरे लोगों ने भी हरिद्वार के धर्म संसद में कथित घृणापूर्वक भाषणों की घटना के विरूद्ध आवाज उठाई और दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की मांग की, जिससे भारतीय समाज की खूबसूरती का पता चलता है। नरसिंहानंद द्वारा सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ की गयी टिप्पणी के कारण, उस पर कोर्ट की अवहेलना करने का केस भी दर्ज किया गया है। मुंबई पुलिस एवं दिल्ली पुलिस, दोनों ने त्वरित कार्रवाई करते हुए ‘‘सुल्ली डील व बुल्ली बाई’’ केस में सम्मिलित लोगों को गिरफ्तार कर लिया जिन्होंने मुस्लिम महिलओं को बदनाम करने की कोशिश की थी। ये तमाम कानूनी कार्रवाइयां व लोगों के द्वारा की गयी मांग उन लोगों के दावों को झुठलाता है जो मुसलमानों के प्रति प्रशासनिक उदासीनता का आरोप लगाते हैं।

संप्रदायिक-सौहार्द को कायम करने के लिए, घृणापूर्ण भाषणों की घटना को सख्ती से निवटते हुए रोकना होगा। इसके अलावा न्यायिक व सुरक्षा एजेंसियों को पीड़ितों के धर्म को नजरअंदाज करते हुए उन्हें न्याय दिलाना सूनिश्चत करना होगा। सामाजिक स्तर पर हिन्दू बहुसंख्यक समुदाय को यह कार्य सूनिश्चत करना होगा कि कट्टरवाद पर अंकुश लगाया जा सके और सांप्रदायिक एकजुटता कायम की जा सके। भारत को चीन व पाकिस्तान जैसे दो पड़ोसी दुश्मनों से निवटना है, इसलिए समावेशी राष्ट्रवाद की अवधारणा को प्रभावशाली बनाना होगा। संगठित और एकात्म भारत में यह क्षमता है कि वह दोनों से क्रमशः पड़ोसियों से लड़ सके। देश की एकता व अखंडता बनाए रखने के लिए भारत जैसे बहुधार्मिक व बहुसांस्कृतिक देश को साम्प्रदायिक सौहार्द हर हाल में कायम रखना पड़ेगा। बहरहाल चरमपंथी चिंतन इसे अंदर ही अंदर कमजोर कर सकता है तथा निश्चित तौर पर राष्ट्र विरोधी ताकतें इसका फायदा उठा सकते हैं।

(आलेख में व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेना-देना नहीं है।)

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