कुमार कृष्णन
राजनीति में आज भी एक सिद्धांत जीवित है और वह सिद्धांत है डॉ. राममनोहर लोहिया का समाजवाद का सिद्धांत। वे एक मौलिक चिंतक थे। राम मनोहर लोहिया जो आजीवन एक न्यायपूर्ण, लोकतांत्रिक, समता और स्वतंत्रता आधारित भारत के निर्माण के लिए संघर्ष करते रहे। वे आजीवन एक ऐसे भारत को बनाने का प्रयास करते रहे जिसमें हर किसी की समान भागीदारी हो और हर किसी की आवाज का समान महत्व हो। आज उनका जन्मदिन है। भारत के राजनीतिक मंच के चौथे, पांचवें और छठे दशक के जबरदस्त, तूफानी-आकर्षक, बहुचर्चित और सुर्खियों में रहने वाले इस नेता का जन्म 23 मार्च 1910 को फैजाबाद में हुआ था। डा.राममनोहर लोहिया को समाजवादी विचारधारा के पोषक थे। उनके विचारों की प्रासंगिकता उनके काल से और अधिक है। जब तक मनुष्य का मनुष्य द्वारा व्यवस्थागत शोषण होता रहेगा, लोहिया और जयप्रकाश के राजनीतिक विचार और कर्म प्रासंगिक रहेंगे।
वे समाजवादी विचारधारा के पोषक थे। उन्हें भारतीय राजनीति में समाजवाद का जनक भी माना जाता है। स्वतंत्रता आंदोलन के सिपाही रहे लोहिया सत्य व निष्ठा, दृढ़ इच्छाशक्ति और निर्भीकता के लिए जाने जाते हैं। समाजवाद के जरिये उन्होंने देश के राजनीति का रुख मोड़ा था। आर्थिक व सामाजिक खाई पाटने के लिए डा लोहिया ने जीवन भर संघर्ष किया था। स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने अहम भूमिका निभाई, 22 बार जेल गए। उन्होंने जाति तोड़ो-समाज जोड़ो, हिमालय बचाओ, गंगा की सफाई, नारी सशक्तीकरण आदि सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर आंदोलन किया था।
जब लोहिया युवा अवस्था में थे तो भारतीय राजनीति के दो प्रेरणा स्त्रोत थे, एक गांधी दूसरे मार्क्स।हालांकि लोहिया गांधी से भी प्रभावित थे और मार्क्स भी लेकिन न तो वह मार्क्स से पूरी तरह सहमत थे न गांधी से। उन्होंने खुद कहा था, न मैं मार्क्सवादी हूं और न मार्क्सवाद का विरोधी वैसे ही न मैं गांधीवादी हूं, न गांधीवाद का विरोधी।
लोहिया ने मार्क्स के वर्ग संघर्ष को स्वीकार किया लेकिन इसके लिए हिंसा को वह नहीं स्वीकार करते थे। संपत्ति साधनों पर सामाजिक स्वामित्व को वह स्वीकार करते हैं लेकिन संपत्ति के केंद्रीकरण का उन्होंने डटकर विरोध किया। उसी तरह गांधी के अंहिसा में उनका पूरा विश्वास था लेकिन गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना उन्हें कभी नहीं सुहाई। वह चाहते थे इसके बदले ग्राम, तहसील, जिला और राज्य जैसे चार खंभों पर आधारित साधनों वाली शासन व्यवस्था हो।
जब लोहिया ने रूस में मार्क्सवाद के भ्रष्ट रूप को और गांधीवाद के भ्रष्ट रूप को भारत में देखा तो बोले श्श्जब ऋषि भ्रष्ट होता है तो वह क्रूर बनता है और जब संत भ्रष्ट होता है तो वह ढोंगी बनता है।
उनका समाजवाद मार्क्सवाद की भूमि में गांधीवाद के पौधे को रोपना नहीं था और न गांधीवाद की भूमि में मार्क्सवाद के पौधे को रोपना था। समाजिक दर्शन करते हुए लोहिया ने समाजवाद की अपनी परिभाषा गढ़ी थी। भारत में लोहिया वह समाजवादी नेता थे जिन्होंने पहली बार यह कहा कि आर्थिक और सामाजिक समानता के लिए यह जरूरी है कि शोषकों के हाथों से जाति और भाषा के खतरनाक हथियार छीन लिए जाएं। मुट्ठीभर अंग्रेजी बोलने वाले लोग और ऊंची जाति के लोगों का सत्ता पर एकधिकार छीन लेने का नारा देकर लोहिया ने समाजवादी आंदोलन को एक नई दिशा दी।
उनके पिताजी हीरालाल पेशे से अध्यापक और दिल से सच्चे राष्ट्रभक्त थे। वह गांधीजी के अनुयायी भी थे। जब वे गांधीजी से मिलने जाते तो राम मनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे. इसके कारण गांधीजी के विराट व्यक्तित्व का लोहिया पर गहरा असर हुआ। पिताजी के साथ वह 1918 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए। बनारस से इंटरमीडिएट और कोलकता से स्नातक तक की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए लंदन के स्थान पर बर्लिन का चुनाव किया था। जर्मनी में चार साल पढ़ाई की और फिर स्वदेश लौटे। इसके बाद लोहिया गांधीजी के साथ मिलकर देश को आजाद कराने की लड़ाई में शामिल हो गए।
वर्ष 1942 को महात्मा गांधी ने भारत छोडो़ आंदोलन में उन्होंने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। इस आंदोलन की वजह से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फिर 1946 में उनकी रिहाई हुई। इसके बाद 1946 और 47 के बाद नेहरू और लोहिया में कई मुद्दों पर मतभेद हुए। उस वक्त देश में नेहरू सबसे बड़े नेता थे लेकिन लोहिया के सवालों से नहीं बच पाए। एक वक्त पर नेहरू और लोहिया में तल्खी इस कदर हो गई थी कि उन्होंने कहा था कि बीमार देश के बीमार प्रधानमंत्री को इस्तीफ़ा दे देना चाहिए। यही कारण था कि आगे चलकर लोहिया ने श्श्कांग्रेस हटाओ देश बचाओश्श् का नारा दिया।
पहली बार लोहिया ने साल 1963 में फर्रुखाबाद से जीतकर संसद में प्रवेश किया। दरअसल, कांग्रेस के सांसद पं. मूलचंद्र दुबे की मौत के बाद 1963 में इस सीट पर हुए उपचुनाव में डा. राममनोहर लोहिया फर्रुखाबाद से मैदान में उतरे थे। उस वक्त कांग्रेस के विरोध में हवा चलनी शुरू हुई थी। नतीजतन वह चुनाव में जीत गए। इससे पहले वह 1962 के लोकसभा चुनाव में फूलपुर क्षेत्र से प्रधानमंत्री नेहरू के खिलाफ लड़े, जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
इसी समय उत्तर प्रदेश के अमरोहा और जौनपुर लोकसभा चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस की हार हुई। अमरोहा से आचार्य कृपलानी और जौनपुर से जनसंघ के दीन दयाल उपाध्याय जीते थे। इस तरह तीनों लोकसभा सीटों पर हुए उप चुनाव में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा।
1967 के चुनाव में लोहिया ने स्पष्ट शब्दों में श्कांग्रेस हटाओश् का नारा दिया। लोहिया के संयुक्त समाजवादी पक्ष ने बिना किसी ना-नुकुर के कांग्रेस हटाओ की भूमिका को मंजूर कर लिया। उन्होंने दिल्ली में सभी विरोधी पक्षों की एक बैठक बुलाई. इसका प्रजा समाजवादी पक्ष, स्वतंत्र पक्ष और जनसंघ ने विरोध किया और लोहिया को सहयोग नहीं दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि 1967 के चुनाव में कांग्रेस विरोधी दलों का एक संयुक्त मोर्चा नहीं बन पाया। इसका असर यह हुआ कि लोहिया को अपेक्षित सफलता नहीं मिली, लेकिन कुछ अंशों में लोहिया की नीति सफल रही। लोहिया ने कहा था सभी हिन्दी भाषी राज्यों में कांग्रेस की हार होगी और वह हुई भी. उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश समेत 8 राज्यों में कांग्रेस की हार हुई।
इस चुनाव में उत्तर प्रदेश के कन्नौज लोकसभा सीट से लोहिया जीते थे। 8 राज्यों में सरकार तो गैर कांग्रेसी बनी लेकिन इसका परिणाम ठीक नहीं रहा। केंद्र में कांग्रेस थी और अन्य 8 राज्यों में विरोधी पक्षों की मिलीजुली सरकार थी उसमें भी कई जगह जो मुख्यमंत्री थे वह भूतपूर्व कांग्रेसी थे। जिन राज्यों में संविद सरकार (संयुक्त विधायक दल) थी वहीं केवल बिहार ही एक ऐसा राज्य था जहां संयुक्त समाजवादी पार्टी पक्ष का बहुमत था।राज्य के मुख्यमंत्री भूतपूर्व कांग्रेस नेता महामाया प्रसाद थे। लोहिया को बिहार में अच्छे कामों की उम्मीद थी, अच्छे काम हुए भी लेकिन उतने नहीं जितनी लोहिया ने सोची थी, वहीं उत्तर प्रदेश में चरण सिंह मुख्यमंत्री थे। चरणसिंह भी कांग्रेस के माहौल में ज्यादा रहे थे इसलिए लोहिया की सारी नीति उनके गले नहीं उतरती थी, हालांकि किसानों के हित में लगन का कानून रद्द कर चरणसिंह ने लोहिया की बात रखी थी।
चौथे आम चुनाव के बाद तुरंत देश में राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनाव थे। आम चुनाव में कांग्रेस को पूरी तरह सत्ता से बेदखल नहीं कर पाए लोहिया ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए कमर कस ली। राष्ट्रपति के लिए कांग्रेस के जाकिर हुसैन और विपक्ष के के सुब्बाराव के बीच मुकाबला थां लोहिया को विश्वास था कि अगर विरोधी सदस्य दृढ़ता के साथ चलते तो कांग्रेस सदस्यों में से कुछ की अंतरात्मा की आवाज पुकार उठती और सुब्बाराव विजय हो जाते लेकिन विरोधियों ने लोहिया को निराश किया।
इस बीच राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के लिए लोहिया का नाम सामने आने लगा। तब लोहिया ने जो जवाब दिया था, वह इंदुमति केलकर की किताब श्राममनोहर लोहियाश् में दी गई है। लोहिया ने कहा था, श्श्मैं विविध भारती वाला आदमी नहीं हूं। मेरे अपने सिद्धांत हैं। मैं कभी अगर इन पदों पर आना चाहूंगा तो अपनी शर्तों पर।
इसी बीच प्रसिद्ध व्यंग्य चित्रकार नियतकालिक ने लोहिया के व्यंग्य चित्र के साथ टिपण्णी भी दी थी। उन्होंने चित्र के साथ लिखा था-श्श्आज सवेरे लोहिया ने शपथग्रहण की और आज शाम ही अपना त्यागपत्र भी दे दिया।
जिस राजनीति में डॉ. लोहिया ने जातीय मुद्दे उठाकर उनका समाधान करने की कोशिश की, कालांतर में वही जाती और जातीयता उस राजनीति का आधार बन गई है। जिस आर्थिक समानता की लोहिया बात करते थे कालांतर में वो मुद्दा भी सिर्फ एक राजनीतिक हथियार मात्र बन गया है।
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