अमित शुक्ल
इन दिनों ‘‘एक देश एक चुनाव’’ की चर्चा जोरों पर है। दरअसल, विगत दिनों सरकार ने संसद के विशेष सत्र आयोजित करने की सूचना सार्वजनिक की। इस विशेष सत्र की सूचना के साथ ही समाचार के विभिन्न माध्यमों पर खबरें आने लगी कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार, इस विशेष सत्र के दौरान कई विधेयक पास करवाने वाली है। उन विधेयकों में ‘एक देश एक चुनाव’ वाला विधेयक अहम है। इस प्रकार की व्यवस्था निःसंदेह बेहतर है। अगर ऐसा होता है तो इसे चुनाव बदलाव की प्रक्रिया का अहम कदम माना जाएगा। इसके कई फायदे हैं लेकिन यह फायदा तभी सफल हो पाएगा जब इसका असर देश के अंतिम पंक्ति तक पहुंचे। अंतिम पंक्ति का अर्थ साफ है। जो लोग गांव में निवास कर रहे हैं और जिनके पास विकास एवं प्रगति की किरणें सबसे अंत में पहुंचती है, वहां इस बदलाव का असर दिखना चाहिए। यह तभी संभव है जब चुनाव प्रक्रिया के बदलाव का फायदा पंचायतों को प्राप्त होगा। वैसे इन दिनों समाचार के विभिन्न माध्यमों पर इसके कई फायदे गिनाए जा रहे हैं। वे तमाम फायदे संभव भी हैं। जैसे – ‘‘एक देश एक चुनाव से बड़े पैमाने पर सार्वजनिक पैसे की बचत होगी, इससे विकास के कार्यों को गति मिलेगा, चुनाव के कारण जो विभिन्न प्रकार की वैमस्यता दिखती है उसमें भी कमी आएगी, सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग जनता के लिए सूनिश्चित की जा सकेगी, देश संगठित और सुव्यवस्थित होगा, पूरे देश में एक प्रकार की राष्ट्र भावना का संचार होगा, इत्यादि।’’ ऐसे तमाम फायदे हैं लेकिन इस प्रक्रिया के कारण जो सबसे बड़ा घाटा होने वाला है, उसके बारे में चर्चा कम हो रही है।
एक देश एक चुनाव के पारित होने से सबसे बड़ी हानि हमारे लोकतंत्र को होगी, जो इस देश की आत्मा है। हालांकि फायदे के तर्क कई प्रकार के गढ़े जा रहे हैं। तर्क कोई-सा भी गढ़ लो लेकिन इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है कि एक देश एक चुनाव से लोकतंत्र को घाटा होगा। अमूमन केन्द्रीय आम चुनाव तो समय पर ही होता है। कभी-कभी सरकार के अल्पमत में आ जाने के कारण मध्यावधि चुनाव संभव हो पाया है। बांकी समय में सरकार अपना कार्यकाल पूरा करती रही है। एक देश एक चुनाव से प्रादेशिक सरकारों को बहुत घाटा होने वाला है। यदि चुनी हुई सरकार गिर जाती है और वैसी परिस्थिति में फिर सरकार का गठन नहीं हो पाता है, तो सत्ता स्वाभाविक रूप से केन्द्र के हाथ में चली जाएगी और तब हमारे देश के संघीय गणतंत्रात्मक ढ़ाचे को चोट पहुंचेगा, जो अंततोगत्वा देश के लोकतंत्र के लिए हानिकारक सिद्ध होगा। भारतीय संविधान में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि भारत राज्यों का समूह है। मतलब साफ है कि भारत एक संघात्मक गणतंत्र है। एक देश एक चुनाव, देश के संघीय गणतंत्रात्मक ढ़ाचे को कमजोर करेगा और यह देश की एकता एवं अखंडता के लिए खतरा उत्पन्न कर सकता है।
इसके लिए एक आसान-सा उपाय है जो एक देश एक चुनाव विधेयक को पारित करने से पहले करना चाहिए। भारतीय संविधान में संघ सूची में कई विषय शामिल किए गए हैं। इसके अतिरिक्त 61 विषय राज्यों को प्रदान किया गया है। कुल 52 ऐसे विषय हैं, जिसे समवर्ती सूची में शामिल किया गया है। पंचायती राज अधिनियम के पारित होने और संविधान के 73वें संशोधन के बाद राज्य सरकारों को 29 विषय पंचायती संस्थाओं को प्रदान करने थे। देश के प्रत्येक राज्यों ने अपने-अपने प्रदेश में इन 29 विषयों को पंचायती संस्थाओं के जिम्मे भी कर रखी है लेकिन इसका संचालन अमूमन राज्य सरकारों के द्वारा ही होता है। इसके कारण आज तक स्थानीय निकाय, पंचायती संस्थाएं अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पायी है। यदि एक देश एक चुनाव लागू हो गया तो राज्य की तकत स्वाभाविक रूप से कमजोर पड़ जाएगी और तब पंचायती संस्थाओं को जो 29 विषय प्राप्त हैं वह कहीं न कहीं केन्द्र के हाथों में चली जाएगी। इसलिए संवैधानिक रूप से 29 विषय जो पंचायतों को प्रदान किया गया है उसे मुकम्मल तौर पर पंचायतों को आवंटित करने की व्यवस्था पहले होनी चाहिए। इसके लिए केन्द्र सरकार को पहल करनी होगी। सरकार जिस प्रकार राज्यों को 61 विषय प्रदान की है, उसी प्रकार केन्द्र सीधे तौर पर ईमानदारी से पंचायतों को 29 विषय आवंटित कर दे। सच पूछिए तो राज्य सरकारों के पास पुलिस कानून व्यवस्था के अतिरिक्त कोई काम ही नहीं है। संवैधानिक तौर पर विकास के सारे काम पंचायती संस्थाओं के पास है लेकिन राज्य सरकार के अनर्गल हस्तक्षेप के कारण विकास की प्रक्रिया राज्य सरकार अपने पास रखे हुई है। यदि विकास का काम सचमुच के पंचायतों की चुनी हुई सरकारों के पास हो तो राज्य सरकार को करने के लिए कुछ बचेगा ही नहीं और तब देश में सच्चा लोकतंत्र स्थापित हो जाएगा।
कुल मिलाकर यदि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार एक देश एक चुनाव विधेयक पारित कराना चाहती है, तो उससे पहले पंचायतों को सशक्त करना चाहिए। इस विधेयक से जो लोकतंत्र और संघीय ढ़ाचे को घाटा पहुंचने वाला है उसकी भरपाई इससे संभव है। साथ ही तब प्रादेशिक सरकारों के पास स्थानीय समस्याओं और जन सामान्य से जुड़े कार्यों को करने के लिए कुछ रहेगा ही नहीं तो फिर वहां भी राष्ट्रपति शासन लगने की वजह से लोकतंत्र को क्षति हो सकती है वह बहुत ही सीमित हो जाएगी।
(आलेख में व्यक्त लेखक के विचार निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)