पर्यावरण/ उत्तरी भारत में बाढ़ से भारी नुकसान : प्राकृतिक नहीं, पूँजीवादी व्यवस्था की नाकामी का नतीजा

पर्यावरण/ उत्तरी भारत में बाढ़ से भारी नुकसान : प्राकृतिक नहीं, पूँजीवादी व्यवस्था की नाकामी का नतीजा

उत्तरी भारत में मानसून की भारी बारिश के कारण पंजाब और हिमाचल प्रदेश के कई इलाके बाढ़ का शिकार हुए हैं। हरियाणा के घग्गर नदी के साथ सटे कुछ इलाकों और दिल्ली में यमुना तट के कुछ इलाक़ों में भी बाढ़ का काफी असर नजर आया है। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर में भी भारी बारिश के कारण कुछ इलाकों में बाढ़ जैसी हालत बनी। उत्तरी भारत में बाढ़ और भारी बारिश के कारण अब तक सवा सौ से भी ज्यादा मौतें हुई हैं। कुछ मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि इस बार मानसून और पश्चिमी गड़बड़ियाँ एक ही समय बारिश का कारण बनी है, जिसके कारण ज्यादा बारिश हुई है, जबकि आमतौर पर मानसून के समय पश्चिमी गड़बड़ नहीं होती। इसका सबसे ज्याद नुक़सान हिमाचल और पंजाब में हुआ है। पंजाब में ज्यादा बारिश के साथ ही, बाढ़ का दूसरा बड़ा कारण जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में हुई भारी बारिश के कारण पंजाब की नदियों में पानी का स्तर चढ़ना भी है।

अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक हिमाचल में 80 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है, 100 से ज्यादा घर पूरी तरह ध्वस्त हो गए हैं, करीब चार सौ मकानों को नुकसान हुआ। 28 जुलाई की एक रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब के 19 जिलों के 1473 गाँवों को बाढ़ की मार झेलनी पड़ी है और बाढ़ में 43 लोगों की मौत हुई है और 19 व्यक्ति जख्मी हुए हैं। तीन सौ से ज्यादा घर गिर गए हैं और 6 लाख एकड़ से ज्यादा फसल का नुकसान हुआ। हरियाणा सरकार के मुताबिक राज्य में बाढ़ में करीब पंद्रह सौ गाँव चपेटे में आए हुए हैं, जिनमें 47 लोगों की मौत हुई है, 475 मकानों को नुक़सान पहुँचा है।

बेशक बारिश एक प्राकृतिक परिघटना है, जिसके कम या ज्यादा प्रभाव को काबू करने में इंसान अभी समर्थ नहीं है और ना ही बाढ़ को अटल तौर पर रोका जा सकता है। लेकिन बाढ़ से हुए भारी जान-माल के नुकसान के कारण सिर्फ प्राकृतिक नहीं हैं। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे इलाकों में विकास के नाम पर जंगलों-पहाड़ों की अंधाधुंध तबाही, गैर-योजनाबद्ध सड़कें-सुरंगें और अन्य बिल्डरों आदि ऐसे कारण हैं, जो मौसम को प्रभावित करने के साथ-साथ तबाही को बढ़ाने का कारण बनते हैं। इसलिए इसके लिए मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था पूरी तरह से दोषी है।

पंजाब जैसे मैदानी इलाकों में मानसून से पहले बाढ़ की संभावना के मद्देनजर तैयारी के लिए बहुत सी कोशिशें की जा सकती हैं, जिससे बाढ़ के नुकसान को कम से कम किया जा सके। राहत कार्यों की पहले से तैयारी से बाढ़ आने पर लोगों की पुख्ता मदद की जा सकती थी। पंजाब में किसी भी पार्टी की सरकार ने इस कार्य को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया। बरसाती नालों, ड्रेन आदि की सफाई, बाँधों को मजबूत करने और नहरों की व्यवस्था को दुरुस्त रखने जैसे कदमों के साथ नुकसान काफी हद तक कम किया जा सकता है। लेकिन बदलाव के दावे करने वाली आम आदमी पार्टी की सरकार ने भी पुरानी सरकारों की राह पर चलते हुए ऐसे कोई कदम नहीं उठाए। मुख्यमंत्री भगवंत मान ने झूठा बयान दिया कि घग्गर नदी की सफाई की गई। ऐसा ही हाल दूसरे राज्यों की सरकारों और भारत सरकार का है।

इसके लिए कोई बहुत पूँजी की जरूरत नहीं है। जो देश चंद्रयान भेज रहा हो, संसार की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो, जिसके अदाणी जैसे पूँजीपतियों की गिनती संसार के सबसे ऊपर के अमीरों में होती हो, उसके लिए बाढ़ को रोकने और राहत कार्यों के प्रबंध करना बहुत छोटा ख़र्चा है। कमी सिर्फ हुक्मरानों की इच्छा शक्ति की नहीं है। बाढ़ का एक और कारण पानी के बहाव के कुदरती रास्ते को प्रभावित करना या रोका जाना भी है। पंजाब की नदियों, नहरों, बरसाती नालों आदि के काफी हिस्से पर धनी किसानों (जो कृषि क्षेत्र के पूँजीपति हैं) ने कब्जा करके उन्हें अपने खेतों में मिला लिया है। कई हिस्सों पर बड़ी इमारतें भी बनी हुई हैं। यह सब सरकारी तंत्र की आँखों के सामने, बल्कि उसकी मिलीभगत से होता रहा है। बाढ़ का नुकसान झेलने वाले संवेदनशील इलाकों में भी ऐसे कब्जे धड़ाधड़ हुए हैं। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि सतलुज नदी के बाँधों को 4 लाख क्यूसेक पानी से निपटने के सक्षम बनाया गया था, पर नदी अब सिर्फ केवल 200000 क्यूसेक पानी भी नहीं सँभाल रही। इसका कारण नदियों के कुदरती रास्तों पर हुए कब्जे ही हैं। इसी प्रकार गैर-योजनाबद्ध और अनियमित ढंग से हुआ शहरी विकास भी इसका एक बड़ा कारण है, जिसमें भारी बारिश या बाढ़ का जरूरी ध्यान नहीं रखा गया। पटियाले का अर्बन स्टेट इलाके का बाढ़ की मार में आना इसका उदाहरण है।

बाढ़ के बाद लोगों को आँखों के फ्लू, चमड़ी रोग, पशुओं को अनेकों बीमारियों का सामना कर पड़ रहा है। इसके लिए भी सरकारों द्वारा पुख्ता प्रबंध नहीं किए गए हैं। बल्कि जनता को उसके हाल पर छोड़ दिया गया है। बाढ़ के समय में भी जहाँ राजनेताओं का मुख्य ध्यान तस्वीरें खिंचाने, वीडियो बनाने में लगा रहा, वहीं आम लोग ही खुले दिल से एक-दूसरे की मदद करने के लिए आगे आए हैं। बाढ़ पीड़ितों की मदद सरकार से ज्यादा आम लोगों ने ही की है। जनता को डूबे घरों से निकालकर सुरक्षित जगहों पर पहुँचाना, खाना-पीना, दवाइयाँ और अन्य जरूरी सामग्री पहुँचाना, पानी की निकासी का प्रबंध करना और बाँधों को मजबूत करना जैसे जोखिम भरे कामों के लिए बड़ी गिनती में जनता आगे आई है। बीमारियों के समय में भी सरकारों द्वारा पीड़ितों को जरूरी मदद नहीं पहुँचाई जा रही है। ऐसे समय में लोग ही लोगों का सहारा बन रहे हैं।

इस बाढ़ ने एक बार फिर जनता के सामने इस बात की पुष्टि कर दी है कि मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था से भले की उम्मीद जनता को नहीं करनी चाहिए। बाढ़ और अन्य समस्याओं के हल मेहनतकश जनता के विशाल आंदोलनों से ही किया जा सकता है। एक दिन जरूर आएगा, जब इन समस्याओं के हल के रास्ते में रुकावट बनने वाली मुनाफे पर टिकी मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था, मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था, को मजदूरों-मेहनतकशों के जनांदोलन की बाढ़ बहा ले जाएगी।

(यह आलेख मुक्ति संग्राम नामक मासिक पत्रिका से प्राप्त की गयी है। इसके लेखक इस पत्रिका के संपादक हैं और साम्यवादी रूझान के हैं। लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)

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