अशोक भाटिया
कांग्रेस ने कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री का नाम फाइनल कर ही लिया है। सिद्धारमैया ही कर्नाटक के अगले मुख्यमंत्री होंगे। डीके शिवकुमार को डिप्टी मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। लोकसभा चुनाव तक शिवकुमार कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने रहेंगे। 20 मई को नई सरकार का शपथ ग्रहण समारोह होगा।
थोडा सा हम 6 दिनों से चल रहा घटनाक्रम पर ध्यान दे तो 13 मई को कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आए। कांग्रेस ने 135 सीटों पर जीत हासिल की। 14 मई को कर्नाटक में कांग्रेस विधायक दल की बैठक हुई। इसमें पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की तरफ से भेजे गए तीन पर्यवेक्षक भी मौजूद थे। बताया जाता है कि बड़ी संख्या में विधायकों ने इसी बैठक में सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री बनाने के लिए अपना समर्थन दे दिया था। हालांकि, बैठक में एक लाइन में प्रस्ताव पास कराया गया कि मुख्यमंत्री पर फैसला मल्लिकार्जुन खरगे करेंगे। 15 मई को तीनों पर्यवेक्षक दिल्ली पहुंचे और उन्होंने अपनी रिपोर्ट खरगे को दी।
पार्टी ने उसी दिन डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया को दिल्ली बुलाया। सिद्धारमैया दोपहर तक पहुंच गए, लेकिन डीके शिवकुमार जन्मदिन होने की वजह से दिल्ली नहीं पहुंचे। अगले दिन यानी 16 मई को डीके शिवकुमार भी दिल्ली पहुंचे। इसी दिन खरगे के आवास पर कांग्रेस के बड़े नेताओं की बैठक हुई। राहुल गांधी भी इसमें शामिल हुए। इसके बाद खरगे और राहुल ने अलग-अलग शिवकुमार और सिद्धारमैया से बात की, लेकिन कुछ बात नहीं बनी।
17 मई का दिन सबके लिए काफी अहम रहा। इस दिन कई राउंड की बैठकें हुईं। राहुल गांधी ने अपने आवास पर केंद्रीय पर्यवेक्षक भंवर जितेंद्र सिंह, केसी वेणुगोपाल, सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के साथ अलग-अलग बैठकें कीं। वहीं, कर्नाटक कांग्रेस प्रभारी रणदीप सुरजेवाला और बाद में केंद्रीय पर्यवेक्षक सुशील शिंदे के साथ मल्लिकार्जुन खरगे ने बैठक की। खरगे ने फोन पर सोनिया गांधी से बात की। बाद में सोनिया ने डीके शिवकुमार को खरगे और राहुल से मिलने के लिए कहा। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए राहुल ने सोनिया गांधी से बात भी कराई। इसके बाद डीके शिवकुमार उप-मुख्यमंत्री पद के लिए मान गए। साथ में उन्हें अध्यक्ष पद पर बने रहने को भी कहा गया। 18 मई की दोपहर 12:30 बजे कांग्रेस ने सिद्धारमैया को सीएम, डीके शिवकुमार को डिप्टी मुख्यमंत्री बनाने का आधिकारिक एलान कर दिया।
सूत्रों के अनुसार, सिद्धारमैया को अभी दो साल के लिए मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। इसके बाद कर्नाटक की कमान डीके शिवकुमार को दे दी जाएगी। लेकिन इस बीच पावर क्लैश होना आम होगा। सिद्धारमैया नहीं चाहेंगे कि उनपर डीके शिवकुमार किसी भी तरह से भारी पड़ें और शिवकुमार सिद्धारमैया को खुद से आगे जाने नहीं देना चाहेंगे। ऐसे में इन दो साल के अंदर खुलकर जंग हो सकती है। इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ सकता है। अगर ये जंग अभी से शुरू हो गई तो आने वाले लोकसभा चुनाव पर इसका भारी असर पड़ सकता है।
कर्नाटक में जिस तरह से मुख्यमंत्री पद को लेकर लंबी माथापच्ची के बाद सिद्धारमैया पर मुहर लगी, उसे लेकर कई तरह की चर्चा शुरू हो गई है। ऐसा इसलिए क्योंकि पार्टी ने डीके शिवकुमार को कर्नाटक कांग्रेस की जिम्मेदारी थी। उन्हें कई मौकों पर पार्टी के ‘संकटमोचक’ के तौर पाया गया। फिर जब कर्नाटक पीसीसी चीफ की जिम्मेदारी मिली तो उन्होंने इसे भी बखूबी निभाया। पार्टी ने उनके नेतृत्व में शानदार जीत दर्ज की। इसके बाद ये माना जा रहा था कि आलाकमान उन्हें ही मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी देगा। हालांकि, ऐसा नहीं हुआ।
कांग्रेस में सिर्फ मुख्यमंत्री और डिप्टी मुख्यमंत्री के लिए नहीं, बल्कि मंत्रिपद के लिए भी जोर आजमाइश होगी। सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार दोनों ही गुट के विधायक खुद को मंत्री पद पर देखना चाहेंगे। उधर, दिग्गज नेता और पूर्व डिप्टी मुख्यमंत्री जी परमेश्वर ने भी अपनी नाराजगी जाहिर कर दी है। उन्होंने सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री और शिवकुमार को डिप्टी मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद कहा कि इससे दलित समुदाय आहत हुआ है। कर्नाटक में दलित मुख्यमंत्री की डिमांड ज्यादा थी। मैं भी सरकार चला सकता था। अगर मुख्यमंत्री नहीं तो कम से कम मुझे डिप्टी मुख्यमंत्री ही बना देते।
कई दौर की बैठक के बाद सिद्धारमैया ने बाजी मार ली। बुधवार को राहुल गांधी के साथ सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार की मुलाकात हुई। इसके बाद देर रात सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान हुआ। इस सियासी घटनाक्रम के बाद गुरुवार शाम बेगलुरु में कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाई गई है। जिसमें आगे की रणनीति पर फैसला होगा। वहीं नए मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण 20 मई को बेंगलुरु में होगा। जिसके लिए पार्टी ने तैयारी तेज कर दी है। डीके शिवकुमार खेमे का इस फैसले के बाद क्या रुख होगा? इन सभी चुनौतियों पर आने वाले दिनों में कांग्रेस नेतृत्व को नजर रखनी होगी।
आगे क्या होगा इसे समझने के लिए हमने कुछ राजनीतिक विश्लेषको से बात की। उन्होंने कहा, ‘अगर समय रहते पार्टी के अंदर का विवाद सुलझ जाता है तो ठीक है, नहीं तो इसका असर आने वाले लोकसभा चुनाव पर जरूर पड़ेगा। समय-समय पर दोनों के बीच विवाद होना लाजिम है। इसका सीधा फायदा भाजपा उठाने की कोशिश करेगी। दो साल बाद अगर सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार की लड़ाई बढ़ जाती है तो पार्टी में फूट भी पड़ सकती है। ऐसी स्थिति में भी कांग्रेस को नुकसान होगा।’
हालांकि, कांग्रेस आलाकमान के इस फैसले ने 2018 राजस्थान चुनाव नतीजों के बाद की कहानी याद दिला दी। जब पार्टी आलाकमान ने सचिन पायलट के नेतृत्व में विधानसभा का चुनाव जीता। उस समय पायलट ही राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष थे। हालांकि, जब मुख्यमंत्री बनाने पर चर्चा हुई तो पार्टी नेतृत्व ने अशोक गहलोत को ये जिम्मेदारी सौंप दी। जिसके बाद से लगातार राजस्थान कांग्रेस में घमासान देखने को मिला।दरअसल उस समय सचिन पायलट ने राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभालते हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी की शानदार वापसी कराई थी। लगभग सभी को लग रहा था कि पायलट ही मुख्यमंत्री बनेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि गहलोत उस समय पार्टी संगठन से जुड़े हुए थे और दिल्ली में मोर्चा संभाल रखा था। हालांकि, चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस आलाकमान ने कई दौर की चर्चा के बाद अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला लिया। सचिन पायलट को डिप्टी मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी दी गई।
पायलट ने उस समय तो ये जिम्मेदारी संभाल ली, लेकिन उनके मन में कहीं न कहीं मुख्यमंत्री नहीं बन पाने की टीस दबी रही। जिसके चलते बीते 4 साल के दौरान कई मौके ऐसे आए जब अशोक गहलोत और सचिन पायलट आमने-सामने आते दिखे। 2020 में सरकार गिरने तक की नौबत आ गई थी। यही नहीं अब चंद महीने बाद राज्य में चुनाव हैं तो भी दोनों दिग्गज एक-दूसरे पर जुबानी हमले कर रहे। जिससे पार्टी कार्यकर्ताओं और सपोर्टर्स में असमंजस की स्थिति बन रही। हालांकि, अब ऐसी खबरें आ रही कि पार्टी नेतृत्व कर्नाटक में फैसले के बाद अब अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच घमासान को टालने की कवायद में जुट सकता है।
जानकारों का कहना है भले ही कांग्रेस नेतृत्व ने कर्नाटक में मुख्यमंत्री पोस्ट को लेकर फैसला ले लिया है। लेकिन भाजपा ने इस पर अटैक का मौका नहीं छोड़ा। भाजपा आईटी सेल के हेड अमित मालवीय ने कांग्रेस के अंदर जारी घमासान पर कटाक्ष किया। उन्होंने कांग्रेस आलाकमान पर सचिन पायलट की तरह डीके शिवकुमार को भी धोखा देने का आरोप लगाया। अमित मालवीय ने ट्वीट में लिखा- ‘सचिन पायलट और डीके शिवकुमार में गजब की समानताएं हैं। पायलट की तरह, डीकेएस ने कर्नाटक में कांग्रेस को सत्ता में आने में मदद की। लेकिन सचिन पायलट को धोखा देकर गांधी परिवार ने एक अधिक आज्ञाकारी और कम महत्वाकांक्षी अशोक गहलोत को राजस्थान का मुख्यमंत्री बना दिया। अब कांग्रेस उसी तरह से इस्तेमाल करने के बाद डीके शिवकुमार को भी हटाना चाहती है।’
अमित मालवीय ने गांधी परिवार, विशेष रूप से सोनिया गांधी को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि सोनिया गांधी किसी भी ऐसे नेता को पसंद नहीं करती हैं जो महत्वाकांक्षी हो। जिसके पास अपनी ताकत हो और जो गांधी भाई-बहनों (राहुल और प्रियंका गांधी) को मात दे सकता हो। इशारों-इशारों में कांग्रेस आलाकमान पर एक बड़ा हमला बोलते हुए भाजपा नेता ने यह भी लिखा कि डीके शिवकुमार उनके लिए ‘बहुत ज्यादा’ हिंदू हैं। वह मंदिरों में जाने के खिलाफ नहीं हैं और सिद्धारमैया की तरह एक नास्तिक या कम्युनिस्ट नहीं हैं। उन्होंने कांग्रेस पर कर्नाटक को अस्थिरता में ढकेलने और राज्य के भविष्य को बर्बाद करने का आरोप लगाया।
बात करें मध्यप्रदेश की करीब साढ़े चार साल पहले भी कर्नाटक जैसी एक तस्वीर सामने आई थी। तब मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए थे और 15 साल बाद कांग्रेस सरकार बनाने की हालत में थी। कमलनाथ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे और ज्योतिरादित्य सिंधिया चुनाव अभियान समिति के प्रमुख। दोनों ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। कर्नाटक की तरह ही कई दिनों तक चली उठापटक के बाद कांग्रेस आलाकमान ने कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया था। सिंधिया इस फैसले से खुश नहीं थे, लेकिन राहुल गांधी के मनाने पर राजी हुए थे। फैसले के बाद राहुल ने सिंधिया और कमलनाथ के साथ वैसी ही तस्वीर ट्वीट की थी, जैसी आज खरगे ने की है। तस्वीर का संदेश भी वही था, जो आज है- कांग्रेस में एकता है।इसके बाद क्या हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है। कमलनाथ किसी तरह 15 महीने तक अपनी सरकार खींचते रहे। फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने करीब दो दर्जन विधायकों के साथ पार्टी छोड़ दी और कांग्रेस की सरकार गिर गई। सिंधिया अपने समर्थकों के साथ भाजपा में चले गए और शिवराज सिंह चौहान फिर से मुख्यमंत्री बन गए।
इसके पहले मध्य प्रदेश राजस्थान में जो हुआ था और आज कर्नाटक में जो हो रहा है, वह इस बात की ओर इशारा करता है कि इतने दिनों में कांग्रेस में कुछ नहीं बदला। पांच साल में देश की सियासत कहां से कहां पहुंच गई, कांग्रेस के अध्यक्ष बदल गए, कई बड़े नेताओं ने पार्टी छोड़ दी, लेकिन फैसले लेने का तरीका अब भी वही है। पार्टी में गुटबाजी की हालत पहले से भी खराब हो गई। गुटों के बीच संतुलन बिठाने में पार्टी नेतृत्व अब भी उतना ही लाचार है। सत्ता बचाए रखने के लिए पार्टी तात्कालिक फैसले लेती है जो आगे चलकर बैकफायर करते हैं। फिर सत्ता तो हाथ से निकल ही जाती है, पार्टी को प्रभावशाली नेताओं से भी हाथ धोना पड़ता है।
केवल विधानसभा ही नहीं, लोकसभा चुनावों में भी भाजपा के मुकाबले कांग्रेस के पिछड़ने का यही सबसे बड़ा कारण है। भाजपा में पार्टी नेतृत्व का फैसला अंतिम होता है। एक बार फैसला होने के बाद सभी उसे मानने के लिए बाध्य होते हैं। कांग्रेस में जिसे कुर्सी मिल जाती है, वह विपक्ष के बजाय पार्टी में अपने प्रतिद्वंद्वियों को ही निपटाने में लग जाता है। मध्य प्रदेश राजस्थान में भी यही हुआ था और कर्नाटक की इस तस्वीर में भी यही डर छिपा हुआ है।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)