डॉ. अनुभा खान
हाल के दिनों में, ‘लव जिहाद’ शब्द समाचार माध्यमों के एक खास वर्ग में बड़ी तेजी से सुर्खियां बटोरने लगा है। इसके पीछे का कारण क्या हो सकता है, इसपर व्यापक पड़ताल की जरूरत है लेकिन ऐसा कुछ है, इसको लेकर चर्चा तो होनी ही चाहिए। मेरा व्यक्तगत ऐसा मानना है कि इस प्रकार की बातें आम तो बिल्कुल ही नहीं है। कुछ खास परिस्थिति में प्रेम विवाह का प्रचलन है लेकिन एक खास समुदाय के द्वारा संगठित गिरोह की तरह झांसा दे प्रेम जाल में फांस कर पहले विवाह करना और फिर उस विवाहिता का धर्मांतरण कराना, ऐसा इस्लाम के मूल चिंतन में तो बिल्कुल ही नहीं है।
सच पूछिए तो इस्लाम में जबरन धर्म परिवर्तन का कोई चिंतन है ही नहीं। इस्लाम के कई धार्मिक पुस्तकों में इस प्रकार के कृत्यों की भर्त्सना की गयी है। इस्लाम के मूल में आस्था के मामलों में स्वतंत्र इच्छा और व्यक्तिगत पसंद का सिद्धांत निहित है। पवित्र ग्रंथ कुरान में स्पष्ट रूप से कहा गया है, ‘धर्म (इस्लाम) में कोई जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए, क्योंकि सत्य झूठ से स्पष्ट रूप से अलग है’ (कुरान 2ः256)। यह आधारभूत आयत इस्लाम की अंतरात्मा की स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता को रेखांकित करती है और विश्वास के मामलों में किसी भी प्रकार के दबाव या मजबूरी को अस्वीकार करता है। इस्लाम, विश्वास के मामलों में स्वतंत्र इच्छा और व्यक्तिगत पसंद के महत्व पर जोर देता है। किसी को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करने की धारणा इस्लामी शिक्षाओं के मूल सार का खंडन करती है। इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार, अल्लाह ने अपनी बुद्धि से मानवता को अपना रास्ता चुनने की स्वतंत्रता दी है और पुष्टि की है, यदि यह तुम्हारे प्रभु की इच्छा होती, तो वे सभी विश्वास करते, जो इस धरती पर निवास करने वाले मनुष्य हैं। क्या तुम फिर लोगों को उनकी इच्छा के विरुद्ध ईमान लाने के लिए मजबूर करोगे? (कुरान 10ः99)।
आलोचक अक्सर इस्लाम द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन के समर्थन के अपने दावों का समर्थन करने के लिए कुरान की कुछ आयतों और हदीसों का हवाला देते हैं। उदाहरण के लिए, इस्लाम की आलोचना करने वाले कुरान 2ः190-193 और 8ः38-39 जैसी आयतों को अक्सर उधृत करते हैं। उनका आरोप होता है कि पवित्र ग्रंथ में इस्लाम पर विश्वास नहीं रखने वालों के खिलाफ हिंसा की बात कही गयी है लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। इस्लाम के जानकार और कुरान के माहिर विद्वानों का मानना है कि इस प्रकार की बातें परिस्थितिजन्य स्थिति को ध्याम रख कर कहा गया है। वास्तव में, ये आयतें विशिष्ट ऐतिहासिक संदर्भों में प्रकट हुई थीं। यह ऐसे मौकों के लिए जोड़ा गया है, जब किसी दूसरे समूह के द्वारा इस्लाम के खिलाफ उत्पीड़न का मामला सामने आता है। ऐसी परिस्थिति के लिए इस प्रकार की बातें खुद परमपिता के द्वारा कही गयी है। इसका मूल हेतु आत्मरक्षा है, न कि किसी दूसरे समुदाय के खिलाफ घोषित और प्रयोजित हिंसा।
इसके अलावा, इस्लामी सहिष्णुता और इतिहास धार्मिक सह-अस्तित्व के सिद्धांत का गवाह है। सदियों से, मुस्लिम-बहुल समाजों ने विभिन्न धार्मिक समुदायों को अपनाया है, एक लोकाचार और आपसी सम्मान को बढ़ावा दिया है। इस्लाम की समृद्ध विरासत सभी व्यक्तियों के धार्मिक अधिकारों और अधिकारों का सम्मान करने की अनिवार्यता को रेखांकित करती है। यही नहीं, इस्लाम बौद्धिक जांच और सत्य की खोज को प्रोत्साहित करता है। यहां आस्था थोपी नहीं जाती, बल्कि चिंतन, समझ और दृढ़ विश्वास के माध्यम से खोजी जाती है। लंबे समय से भारत के मुसलमानों भारत के स्थानीय सांस्कृतिक मूल्यों का सम्मान करते आए हैं। यहां विविधता में एकता है, इसकी समझ मुसलमानों को भी है। कुछ थोड़े लोग, व्यक्तिगत स्वार्थ या चरमपंथी सोच के कारण इस प्रकार का कृत्य करने के लिए प्रेरित होते होंगे लेकिन आम इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता है। इसलिए आम मुसलमानों को भी इस्लाम के अपने पाक वसूलों पर ही चलना चाहिए और इस प्रकार के धर्म व समाज विरोधी गतिविधियों का समर्थन नहीं करना चाहिए। इस संदर्भ में, इस्लाम भारतीय समाज के ताने-बाने के भीतर विविध समुदायों के सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व की वकालत करता है।
इस्लाम स्पष्ट रूप से आस्था के मामलों में जबरन धर्मांतरण और जबरदस्ती की धारणा को खारिज करता है। सच्चा व दृढ़ विश्वास, ईमानदार विश्वास से पैदा होता है, न कि मजबूरी या हेरफेर से। सभी नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता को बनाए रखना अनिवार्य है, चाहे उनकी धार्मिक मान्यताएं कुछ भी हों। नागरिकों के रूप में, धार्मिक विविधता के लिए सहिष्णुता, समझ और सम्मान की संस्कृति को बढ़ावा देना हमा सब का कर्तव्य है। शांति, करुणा और न्याय के इस्लाम के संदेश को अपनाकर, हम उन मूल्यों का सम्मान करते हैं जो हमारे राष्ट्र की पहचान को परिभाषित करते हैं। हमें इसके लिए प्रतिबद्ध होना होगा।
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